मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 7 भूतनाथ - खण्ड 7देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण
तीसरा बयान
रात आधी से ऊपर जा चुकी है। एक लम्बे–चौड़े दालान में प्रभाकरसिंह सिर्फ अपना दुपट्टा फर्श पर बिछाये सो रहे हैं। हल्के खुर्राटे यह भी बता रहे हैं कि इस समय वे गहरी नींद में हैं।
अंधेरा इस बात को अच्छी तरह जानने नहीं देता कि उस स्थान की लम्बाई-चौड़ाई या सजावट किस प्रकार की है तो भी इसमें शक नहीं कि यह दालान किसी बाग में बना हुआ है और तीन तरफ से खुला होने पर भी कि इसके चौथी तरफ कोई बड़ी इमारत है जिसके बन्द दरवाजों की आभा दिखाई पड़ रही है।
यह क्या, हमारी आंखें हमें धोखा दे रही हैं या सचमुच प्रभाकरसिंह के सिरहाने वाला एक दरवाजा धीरे-धीरे खुल रहा है! नहीं-नहीं, यद्यपि पूरा अंधेरा है फिर भी कोई शक नहीं कि वह दरवाजा कोई खोल रहा है, वह देखिए किसी ने उसके अन्दर से सिर निकालकर बाहर की तरफ देखा, जरा पास हो जाएं और देखें कि क्या मामला है।
काले लबादे में अपने समूचे बदन को छिपाए कोई आदमी उस दरवाजे के बाहर निकला और अच्छी तरह की आहट लेने के बाद प्रभाकरसिंह की तरफ बढ़ा, उनके सिरहाने कुछ देर खड़ा रहने के बाद उसको विश्वास हो गया कि वे गहरी नींद में है तो उसने पीछे की तरफ देखा और कोई इशारा किया। एक आदमी और दरवाजे के बाहर आया जो इस आदमी ही की तरह से लबादे के अन्दर अपना समूचा बदन ढांके हुए था। दोनों ने ही धीरे-धीरे कुछ बातें कीं और तब एक ने जरा आगे बढ़ और झुककर कोई चीज प्रभाकरसिंह की नाक के साथ लगाई, कुछ बेचैनी के साथ प्रभाकरसिंह ने गर्दन घुमाई और उनका एक हाथ हिला मगर फिर अपने स्थान पर गिर गया। गहरी सांसों ने बता दिया कि वे बेहोश हो गए।
ज्यादा इतमीनान के लिये और भी कुछ देर तक वह चीज सुंघाने के बाद उस आदमी ने प्रभाकरसिंह की नब्ज देखी और तब अपने साथी से कहा, ‘‘बेहोश हो गए।’’ वह बोला, ‘तो बस ठीक है, उठा ले चलो, देखो, वह सामान भी काबू में कर लो, कोई चीज छूटने न पावे।’ एक आदमी सिरहाने हुआ, दूसरा पैताने, दोनों ने मिलकर उसको उठा लिया और उस दरवाजे के भीतर चले गये। इनके जाते ही दरवाजा पुन: पहले की तरह बन्द हो गया।
किसी तरह के धमाके की आवाज सुन प्रभाकरसिंह की नींद टूटी और वे चौंक कर उठ बैठे। उन्होंने देखा कि रात की स्याही करीब-करीब समाप्त हो चुकी और सामने का आसमान सफेदी पकड़ रहा है। किस आहट पर उनकी नींद टूटी वे इस पर गौर करने लगे मगर कोई बात समझ में न आई, हाँ चारों तरफ देखते ही इतना वे जान गए कि यह वह स्थान नहीं है जहाँ कल रात सोये थे, बल्कि दूसरी ही जगह है।
यह समझ में आते ही वे चौंक पड़े। उन्होंने फिर गौर के साथ अपने चारों तरफ देखा और आप ही आप कहने लगे, ‘‘हैं, यह कौन-सी जगह है! मैं रात को तो उस बाग वाले दालान में सोया था मगर यह तो दूसरा ही स्थान है। यहाँ सब तरफ इमारतें ही नजर आ रही हैं और किसी बाग का कहीं नाम-निशान तक नहीं यह कैसे हो गया? क्या मैं किसी भ्रम में पड़ गया हूँ? नहीं-नहीं, यह भ्रम नहीं हो सकता! यह जरूर कोई दूसरी ही जगह हैं लेकिन तब मैं यहाँ किस तरह पहुंचा?’’
चौंककर प्रभाकरसिंह ने अपने सामानों की जांच की मगर सब कुछ ठीक पाया और कुछ स्वस्थ हुए, तब उठ खड़े हुए और चारों तरफ घूम-घूमकर गौर करने लगे। थोड़ी ही देर में छानबीन ने उन्हें बता दिया कि यह न-केवल कोई दूसरी जगह ही बल्कि ऐसी है जहाँ आज तक वे कभी आए ही न थे। रात जहाँ वे सोए थे वह एक दालान था जिसके सामने की तरफ मणि-भवन की सुन्दर इमारत नजर आती थी पर इस समय जहाँ वे थे वह स्थान चारों तरफ ऊंची-ऊंची इमारतों से घिरा हुए एक आंगन था जिसके एक हवादार कमरे के बाहर वाले बरामदे में वे इस समय खड़े थे। यह तो हो ही नहीं सकता था कि सोए के सोए ही किसी तिलिस्मी कार्रवाई से वे कल वाली जगह से इस जगह तक पहुंच गए हों। जरूर उस जगह से कोई इस जगह उन्हें लाया और किसी मतलब से लाया, पर वह लाने वाला कौन हो सकता है और किस तरह उन्हें लाया, यही विचार और संदेह की बात थी। प्रभाकरसिंह ने अपनी हालत पर गौर किया तो बदन में थोड़ा दर्द और सिर में हल्के चक्कर मालूम पड़े जिन्होंने बता दिया कि जरूर वे रात को बेहोश करके यहाँ लाये गए लेकिन अगर ऐसा ही है तो यह कार्रवाई किसकी हो सकती है? जरूर किसी दुश्मन की ही होगी, मगर इस जगह इस भयानक तिलिस्म के अन्दर कोई भी, वह उनका दोस्त हो या दुश्मन, कैसे उन तक पहुंच ही सकता है!
इसी तरह उधेड़-बुन में प्रभाकरसिंह पड़े हुए थे तथा उनकी चंचल निगाहें आमने-सामने चारों तरफ किसी आदमी या निशानी की खोज में दौड़ रही थीं और यही सबब था कि उन्होंने अपने सामने की इमारत के ऊपर वाली मंजिल की एक खिड़की को आहिस्ता-आहिस्ता खुलते हुए देख लिया और अपनी निगाहें उसी तरफ जमा दीं। उनके देखते-देखते खिड़की के दोनों पल्ले पूरी तरह खुल गए और कोई कमसिन औरत उसके अन्दर खड़ी दिखाई पड़ी। यद्यपि फासला बहुत था और पूरी तरह से चांदना भी नहीं हुआ था तो भी कद, आकृति और पोशाक से प्रभाकरसिंह को मालती का गुमान हुआ और वे बरामदे के नीचे उतर उसी तरफ को बढ़े।
चौखूंटे पत्थरों से पटे बीच वाले आंगन को पार कर प्रभाकरसिंह बहुत जल्द उस खिड़की के नीचे जा पहुंचे और तब वहाँ खड़े होकर ऊपर की तरफ देखने लगे इसी बीच में उस औरत की निगाह भी उन पर पड़ चुकी थी और वह खिड़की से कुछ आगे को झुक गौर से नीचे की तरफ देख रही थी। यही सबब था कि एक ने दूसरे को तुरन्त पहचान लिया और प्रभाकरसिंह ने खुशी भरी आवाज में पुकार कर कहा, ‘‘मालती, तू यहाँ कहाँ? मैं कल तमाम दिन तुमको ढ़ूंढता हुआ परेशान हो गया!’’
जवाब में मालती ने (क्योंकि ऊपर वाली औरत मालती ही थी) कहा, ‘‘मैं क्या बताऊं कि कैसे आ पहुंची! बस इतना ही कह सकती हूँ कि मेरी बदकिस्मती मुझे इस जगह ले आई जहाँ से जीते-जीते-जी निकलने की कोई उम्मीद नहीं। खैर आखिरी साध एक बार आपका दर्शन कर लेने की थी सो ईश्वर ने पूरी कर दी, अब जो होना हो सो हो।’’
मालती की यह विचित्र बात जो उसने बड़ी उदासी के स्वर में कही थी सुन ताज्जुब से प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘तुम यह क्या कह गई, मेरी समझ में कुछ न आया। तुम्हारी बातों से निराशा का भाव क्यों टपक रहा है और तुम्हारी सूरत से बदहवासी और परेशानी क्यों जाहिर हो रही है? इन कुछ ही पहरों के भीतर कौन-सी ऐसी नई बात हो गई जिसने तुमको परेशान और लाचार कर दिया है?’’
मालती : (उसी लाचारी-भरे स्वर से) अब आप पूछते ही हैं तो सुन लीजिए कि यह मकान जिसमें आप मुझको देख रहे हैं एक कैद खाना है जिसमें वे लोग बन्द किए जाते हैं तो तिलिस्म तोड़ने की कोशिश करते हुए किसी तरह की भारी भूल कर बैठते हैं। यहाँ से लोग किसी तरह जीते-जी निकल नहीं सकते बल्कि तरह-तरह की तकलीफें उठाते हुए इस स्थान में उन्हें अपनी जान दे देनी पड़ी है।
प्रभा० : यह तो तुमने ऐसे ताज्जुब की बात सुनाई जिस पर जल्दी विश्वास होना मुश्किल है! खैर तो कौन-सी ऐसी भूल तुमसे बन आई जिसने तुम्हें इस स्थान में जा पहुँचाया?
मालती : आपसे अलग होकर मैं एक बड़ी ही गहरे चक्कर में पड़ गई और उसी सिलसिले में कुछ ऐसी नादानी कर बैठी जिससे यह नौबत आ पहुंची।
प्रभा० : (कुछ सोचकर) अच्छा, उसका हाल मैं पीछे सुनूंगा पहले तुम यह बताओ कि इस मकान के अन्दर आने की कौन-सी राह है ताकि मैं तुम्हारे पास पहुँच सकूं।
मालती : (अफसोस की मुद्रा से) मुश्किल तो यही है कि यहाँ से बाहर निकल जाना तो एकदम नामुमकिन है ही, अपनी मर्जी से किसी का इस मकान के अन्दर आना भी बहुत कठिन है।
प्रभा० : (ताज्जुब से) आखिर तुम किस रास्ते से इसके अन्दर गई थीं!
मालती : मैं अपनी मर्जी से यहाँ नहीं आई बल्कि लाचार और मजबूर करके लाई गई। इस जगह के कुछ पहरेदार हैं, वे ही इसके अन्दर आ-जा या किसी को निकाल ले जा या ले जा सकते हैं। उनके सिवाय और किसी का स्वतन्त्र रूप से यहाँ आना या यहाँ से जाना असम्भव है।
प्रभा० : तुम्हारी बातें सुन मेरा ताज्जुब बढ़ता जा रहा है और मेरी समझ में नहीं आता कि तुम किस ढंग की बात कर रही हो! आखिर किसी राह ही से तो तुम इस मकान के अन्दर गई या ले जाई गई होगी।
मालती : जहाँ आप खड़े हैं उसके सामने की तरफ दीवार में एक मूरत बनी हुई है जिसके साथ कोई तरकीब करने से इस मकान के अन्दर आने का रास्ता खुलता है। मैं नहीं जान सकी कि वह तरकीब क्या है पर इतना जानती हूँ कि कोई गैर आदमी न तो उस रास्ते को खोल सकता है न इस दीवार के पास ही आ सकता है। अगर किसी तरह दीवार के पास आ भी जाए तो दीवार को हाथ लगाते ही बेहोश हो जायेगा और तब ताज्जुब नहीं कि उसकी भी वही गति हो जो मेरी हुई है! हैं हैं! यह क्या करते हैं! आप इस तरह क्यों बढ़ रहे हैं? नहीं-नहीं, हटे रहिये। आगे मत आइये। आगे मत....!!’’
मालती रोकती ही रही मगर प्रभाकरसिंह किसी तरह न माने और अपनी जगह से कुछ कदम आगे बढ़कर गौर से उसके सामने की तरफ देखने लगे। यह मकान जिसके सामने वे खड़े थे कुछ विचित्र ढंग का बना हुआ था। इसकी निचली मंजिल में कहीं कोई दरवाजा-खिड़की यहाँ तक कि आला या मोखा तक भी न था और दीवार सब तरफ से एकदम साफ और चिकनी बनी हुई थी पर ऊपर की तरफ जो तिमंजिली इमारत बनी हुई थी उसमें जगह-ब-जगह दरवाजे, खिड़कियां और रोशनदान इत्यादि बहुतायत के साथ दिखाई पड़ रहे थे। उन्हीं में से तीसरे मंजिल में बनी एक खिड़की की राह मालती उनसे बातें कर रही थी।नीचे की तरफ की लगभग दो पुरसा दीवार चिकने लाल और काले पत्थरों की बनी हुई थी जिसमें से एक चौखूंटा पत्थर अपनी सतह से कुछ हटा हुआ था और उस जगह संगमरमर की बहुत ही छोटी-सी मूरत किसी साधु की बनी हुई दिखाई पड़ रही थी। शायद इसी मूरत से मालती का अभिप्राय हो और यही मकान के अन्दर जाने वाले दरवाजे को खोलने का भेद छिपाये हो, यही सोचकर प्रभाकर सिंह उसकी तरफ बढ़े थे मगर अफसोस, अपनी जगह से तीन-चार कदम से ज्यादा आगे बढ़ न सके और दीवार से तीन-चार हाथ के फासले पर ही होंगे कि वह पत्थर का टुकड़ा जिस पर इनका पैर था अपनी जगह से पल्ले की तरह इस जोर और झटके के साथ उठा कि वे किसी तरह सम्भाल न सके और पछाड़ खाकर पीछे की तरफ जा गिरे। उनके उठते ही वह पत्थर का टुकड़ा पुन: अपनी जगह पर ज्यों-का-त्यों बैठ गया। प्रभाकरसिंह उठकर खड़े हुए और ताज्जुब तथा क्रोध की निगाह से अपने चारों तरफ देखकर इस बात पर गौर करने लगे कि कैसे इस तिलिस्म से बचकर मालती को छुड़ाया जा सकता है। इसी समय मालती ने ऊपर से पुन: आवाज दी, ‘‘ मैंने आपको मना किया फिर भी आपने वही किया और तकलीफ उठाई! इस इमारत के चारों तरफ लगे हुए सभी पत्थरों में यही करामात है और किसी तरफ से भी चलकर आप इस मकान की दीवार के पास पहुंच नहीं सकते। इसकी असल तरकीब केवल उन्हीं कुछ आदमियों को मालूम है जिनको मैं यहाँ का पहरेदार समझती और कहती हूँ। (चौंककर और आवाज को कुछ तेज करके) देखिए-देखिए, वह उनमें से एक आदमी आ रहा है!’’
प्रभाकरसिंह ने चौंककर पीछे की तरफ देखा और सचमुच ही पीछे से एक दालान से उतरकर उन्हीं की तरफ आते हुए एक विचित्र आदमी पर उनकी निगाह पड़ी। इस आदमी की सूरत-शक्ल, चाल-ढाल और नक्शा कुछ ऐसा था कि वे ताज्जुब के साथ उसकी तरफ देखने लगे।
लम्बे कद का एक दुबला-पतला आदमी इनकी तरफ चला आ रहा था जिसका समूचा बदन सफेद पोशाक से ढंका हुआ था और जिसके चेहरे और हाथ के उस हिस्से पर भी जो खुला हुआ था सफेद चूने के ढंग की कोई चीज मली होने के कारण सूरत बड़ी अजीब-सी हो रही थी। उसके हाथ में चांदी की बनी हुई एक नुकीली बर्छी थी जिसे चलते समय वह एक विचित्र ढंग से अपने दाएं-बाएं, ऊपर और नीचे घुमाता आ रहा था मानो सामने की हवा में कोई मनचाहा नक्शा बनाता आ रहा हो। बात-की-बात में वह आदमी पास आ गया। उस समय प्रभाकरसिंह को यह देख और भी आश्चर्य हुआ कि जिसको वे सफेद रंग या चूना समझ रहे थे उस तरह की कोई चीज उसके चेहरे पर मली हुई न थी बल्कि उसके चमड़े का रंग ही एकदम सफेद कागज की तरह का था। चेहरे पर की छोटी मूछें बल्कि बरौनी और पलक आदि के बाल सब भी बिल्कुल सफेद रंग के थे जिनके बीच में उसकी आँखों की काली पुतली एक अजीब ढंग से चमक रही थी जैसी अभी तक प्रभाकरसिंह ने किसी जीव की देखी न थी।
प्रभाकरसिंह को गुमान था, पास पहुंचने पर वह आदमी उनसे कुछ बोले या रोक-टोक करेगा मगर उसने इनकी तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा, मानो उसे इनके अस्तित्व का भी पता न हो, इस ढंग पर वह बगल से निकल गया और उस मकान की दीवार की तरफ बढ़ा। इस कौतूहल के साथ कि देखें उसकी गति क्या होती है, प्रभाकरसिंह उसके देखने लगे लेकिन इन्होंने अपने दिल में यह सोचा हो कि जो गति उनकी हुई थी वही शायद उसकी भी होगी तो ऐसा कुछ भी न हुआ। उसने अपनी लम्बी बरछी से एक बार खन्न से जमीन पर एक ठोकर मारी और तब बेधड़क आगे बढ़ता हुआ दीवार की उस मूरत के पास तक चला गया। प्रभाकरसिंह के देखते-देखते अपनी बरछी की नोक उस मूरत की नाभी में गड़ाकर किसी खास ढंग से घुमाया जिसके साथ ही उसके पैरों के पास के दो-तीन पत्थर इधर-उधर खिसक गये और नीचे उतरने की सीढ़ियां नज़र आने लगीं। प्रभाकरसिंह ने देखा कि बिना उनकी तरफ एक भी निगाह डाले वह उन सीढ़ियों पर उतरने का उपक्रम कर रहा है, अस्तु वे घूमे और एक कदम उसकी तरफ बढ़कर बोले, ‘‘ठहरो, पहले मेरी बात सुनकर उसका जवाब दे लो तब मकान के अन्दर जाओ!!’’
अब उस आदमी ने पहले-पहल निगाह उठाकर प्रभाकरसिंह की तरफ देखा बल्कि कुछ देर तक इनके चेहरे पर नजर गड़ाए रहा और तब बोला, ‘क्या चाहते हो?’ उसकी आवाज एक अजीब कर्कश ढँग की थी जो बड़ी कर्णकटु मालूम होती थी और जिसे सुनकर प्रभाकरसिंह यकायक यह निश्चय न कर पाए कि यह किसी आदमी की आवाज है या कल-पुर्जे के पुतले में किसी तरकीब से आवाज भर दी गई है फिर उन्होंने जवाब दिया, ‘‘मैं इस मकान के अंदर जाना चाहता हूँ।’’ सिर हिलाकर वह आदमी बोला, ‘‘मुझे अभी तुम्हें गिरफ्तार करने का कोई हुक्म नहीं मिला है इसलिए मैं तुम्हें इसके अन्दर नहीं ले जा सकता।’’ यह जवाब देते ही वह मुड़ा और अन्दर जाने के लिए उसने सीढ़ी पर एक पैर रक्खा मगर प्रभाकरसिंह ने पुन: उसे रोका और कहा, ‘‘अगर तुम बिना मेरी बातें पूरी सुनें और उनका ठीक-ठीक जवाब दिये यहाँ से जाने की कोशिश करोगे तो मैं तुम्हें जबरदस्ती रोकूंगा और जिस तरह भी हो सकेगा अपनी बातों का जवाब लूंगा।’’
उस विचित्र आदमी ने यह सुन पुन: एक अजीब निगाह से प्रभाकरसिंह को देखा और तब कहा, ‘‘मुझे इस वक्त फुर्सत नहीं है, वह मेरा साथी जो आ रहा है तुमसे बातें करेगा।’’ कहते हुए उसने एक तरफ हाथ से इशारा किया और जैसे ही प्रभाकरसिंह ने घूमकर उस तरफ देखा, वह सीढ़ियां उतरकर कहीं गायब हो गया। उसके जाते ही सीढ़ी वाला पत्थर भी पुन: अपनी जगह पर ज्यों-का-त्यों बैठ गया मगर प्रभाकरसिंह को इन बातों की खबर न हुई। वे उस दूसरी शक्ल की तरफ देखने में इतना डूबे हुए थे (जिसकी तरफ उस आदमी ने बताया था) कि इधर की बात ही एकदम भूल गये थे।
यह नवीन शक्ल पहले वाली से भी कुछ विचित्र थी। वह आदमी तो सफेद रंग का और सफेद ही पोशाक पहने हुए था मगर यह एकदम पीले रंग का था। इसका पहरावा यद्यपि ठीक वैसा ही था जैसा उस पहले आदमी का था मगर रंग इसके कपड़ों का एकदम पीला था और इसकी सूरत और बदन का उतना हिस्सा जो दिखाई पड़ रहा था वह भी एक दम पीला था। पीले चेहरे और पीले ही रंग के बालों को देखकर प्रभाकरसिंह सोचने लगे, ‘‘या भगवान्, यह कौन-सी सृष्टि दिखाई पड़ रही है कि जिस आदमी को देखो वही एक नये रंग का दिखाई पड़ता है।’’
प्रभाकरसिंह के देखते-देखते धीरे-धीरे चलता हुआ यह आदमी उनके पास जा पहुंचा मगर जिस समय वह पहले आदमी की तरह उनके पास से होकर जाने लगा तो उन्होंने टोका और कहा, ‘‘ठहरो और आगे बढ़ने के पहले मेरी बातों का जवाब देते जाओ।’’ अभी तक इसने भी सिर उठाकर प्रभाकरसिंह की तरफ देखा न था मगर अब चौंककर इनकी तरफ गर्दन घुमाई और कुछ देर बाद उसी तरह की कर्कश आवाज में कहा, ‘‘क्या है?’’
प्रभाकर० : तुम लोग कौन हो और तुम्हारा मालिक कौन है?
पुतला : हम लोग तिलिस्म के नौकर हैं।
प्रभाकर० : क्या काम तुम लोगों के सुपुर्द है?
पुतला : तिलिस्म के कैदियों की हिफाजत
प्रभाकर० : तुम्हारे कैदी कौन और कहाँ हैं?
पुतला : (हाथ से बताकर) इसी मकान में बन्द हैं।
प्रभाकर० : मेरा भी एक साथी इसमें बन्द हो गया, है मैं उससे मिलना और उसे छुड़ाना चाहता हूँ।
पुतला : (सिर हिलाकर) सो किसी तरह नहीं हो सकता, सिवाय कैदी के और कोई इस मकान के अन्दर नहीं जा सकता और न कोई कैदी इसके बाहर ही आ सकता है।
प्रभाकर० : (कुछ सोचकर) तब तुम अपने साथ मुझे इस मकान के भीतर ले चलो।
पुतला : सो भी नहीं हो सकता, तुमको कैद करने का हुक्म हम लोगों को नहीं मिला है और हम लोग सिवाय कैदी के और किसी को इस मकान के अन्दर जाने नहीं दे सकते।
प्रभाकरसिंह अब झुंझला और बिगड़कर बोले, ‘‘तुम्हारी इजाजत की मुझे परवाह नहीं है, जैसे होगा मैं इस मकान के अन्दर जाऊंगा, अगर तुम मुझे रोक सकते हो तो रोको!’’
प्रभाकरसिंह की बात का कोई जवाब न दे बल्कि लापरवाही की मुद्रा से एक बार अपना कन्धा हिलाकर वह आदमी आगे बढ़ा। जैसा कि उस पहले पुतले ने किया था ठीक उसी तरह और उसी स्थान पर इसने भी ठोकर मारी और तब आगे बढ़कर उस मूर्ति की नाभी में नोंक धंसाकर रास्ता पैदा किया, पहले ही की तरह कई पत्थर हटकर अगल-बगल हो गये और सीढ़ियां निकल आईं जिन पर पैर रखता हुआ वह आदमी नीचे उतरने लगा, बिना कुछ सोचे-विचारे प्रभाकरसिंह ने भी कदम आगे बढ़ाया और सीढ़ी के पास पहुँचा चाहते ही थे कि उसी पुतले के पीछे-पीछे सीढ़ियों के नीचे उतर जायें कि यकायक कहीं से आवाज आई, ‘‘खबरदार! ऐसा कभी न करना, नहीं तो उम्र-भर पछताओगे!’’
चिहुंककर प्रभाकरसिंह रुक गए। पीछे को सिर घुमाकर देखा तो पुनः एक अनूठी शक्ल खड़ी नजर आई, जिस तरह के दो सफेद और पीले पुतले उनके सामने से गुजर चुके थे उसी तरह की एक तीसरी शक्ल पास खड़ी दिखाई दी, फर्क सिर्फ इतना ही था कि यह एकदम लाल रंग की थी। इसका कपड़ा-लत्ता, सूरत-बाल आदि सभी गहरे लाल रंग में डुबाये हुए-से थे जिसे देख प्रभाकरसिंह घबराकर बोल उठे, ‘‘क्या यहाँ की दुनिया रंगीन आदमियों से ही बसी हुई है!!’’
इनकी बात का कोई ख्याल न कर वह पुतला बोला, ‘‘किस हिम्मत पर तुम इस मकान के अन्दर जाने की कोशिश कर रहे हो? क्या तुम नहीं जानते कि एक बार इसके अन्दर चले जाने पर फिर जीते-जी बाहर होने की कोई उम्मीद नहीं रह जाती? क्या तुम्हें अपनी जिन्दगी भारी पड़ी है जो इस तिलिस्मी कैदखाने में अपनी मर्जी से जा रहे हो? ’’ प्रभाकरसिंह ने कुछ झुंझलाए हुए स्वर में जवाब दिया, ‘‘अगर तुम मेरी कुछ मदद कर सकते हो तो करो वरना चुप रहो और मेरे काम में बाधा न डालो,’’
अपने स्वाभाविक कर्कश स्वर में उस पुतले ने कहा, ‘‘कम-से-कम इतना तो बतला दो कि तुम्हारा इरादा क्या है?’’
प्रभा० : मेरा इरादा इस मकान के अन्दर जाने और अपने एक साथी को छुड़ाने का है जो इसमें बन्द है।
पुतला : तब शायद तुमको यह खबर नहीं है कि इस मकान के अन्दर कोई चला भले जाये मगर वापस लौट नहीं सकता?
प्रभा० : हाँ, कहा तो ऐसा ही जाता है मगर मैं इस बात की सच्चाई की जांच करना चाहता हूँ,
पुतला : और अगर यह बात सच निकली तो जन्म-भर के लिए बरबाद होने को भी तैयार हो?
प्रभा० : बेशक, मगर मुझे विश्वास नहीं कि ऐसा होगा।
पुतला : क्या तुम्हें तिलिस्मी ताकत पर विश्वास नहीं है?
प्रभा० : बेशक है, मगर तुम लोगों पर नहीं।
पुतला : (हंसकर) तुम समझते हो कि हम लोग तुमसे झूठ बोल रहे हैं?
प्रभा० : हाँ, ऐसा ही कुछ, कम-से-कम अब तक का मेरा अनुमान तो यही कहता है।
पुतला : मगर तुम विश्वास रखो कि मैं बहुत ठीक कह रहा हूँ और मेरी बात न मानकर तुम इस मकान के अन्दर चले जाओगे तो जन्म-भर के लिए बन्धन में पड़ जाओगे।
प्रभा० : खैर इन बातों से कोई मतलब नहीं, अगर मेरी कुछ मदद कर सकते हो तो करो वरना मुझे अपनी इच्छा पूरी करने दो।
पुतला : और अगर मैं तुम्हें ऐसा करने से रोकूं तो!
प्रभा० : खुशी से रोक सकते हो! तुम्हारे दोनों पहले साथी तो केवल बकवास करके ही चले गए, तुम ही कुछ नई बात करके दिखाओ!
पुतला : उन दोनों को तुम्हारे बारे में कोई हुक्म नहीं मिला था मगर मुझे हुक्म मिला है कि तुम्हें इस मकान के अन्दर जाने से रोकूं और अगर न मानो तो कैद कर लूं!
प्रभा० : यह हुक्म तुम्हें किसने दिया?
पुतला : हमारे मालिक ने।
प्रभा० :तुम्हारा मालिक कौन है?
पुतला। इस तिलिस्म की रानी! क्या यहाँ कोई रानी भी है!!
पुतला : जरूर है।
प्रभा० : वह कहाँ रहती है? क्या तुम मुझे उसके पास ले चल सकते हो?
पुतला : तुम्हारी इत्तिला कर सकता हूँ? अगर इजाजत मिले तो ले भी जा सकता हूँ।
प्रभा० : तो मैं इसी जगह बैठता हूँ, तुम जाओ और अपने मालिक को खबर करो।
मैं बहुत जल्दी आया। कहता हुआ वह पुतला पीछे हटकर एक तरफ को चला गया और प्रभाकरसिंह उसी जगह एक पत्थर पर बैठकर सोचने लगे-‘‘यह क्या मामला है? यह कौन-सा स्थान है?
वे आदमी या पुतले कौन हैं? यह कैदखाना क्या बला है और मालती इसमें क्योंकर फंस गई? यह रानी कौन-सी पैदा हो गई है? इस जगह या इन बातों का कोई जिक्र तिलिस्मी किताब में क्यों नहीं है? यह भी मालूम नहीं होता कि मैं यहाँ आया किस तरह! इसका भी कुछ पता नहीं लगता कि इस मकान के अन्दर जाने या इसके बाहर निकलने की ठीक तरकीब क्या होगी। (ऊपर देखकर) मालती अब दिखाई नहीं पड़ती और वह खिड़की भी बन्द नजर आती है, नहीं तो उसी से पूछता कि वह इस जगह किस तरह से आई। उसकी बातों से तो यही....
यकायक प्रभाकरसिंह के कानों में किसी औरत के चीखने की आवाज पड़ी जो उसी मकान के अन्दर से आती हुई जान पड़ती थी। आवाज पहचानी हुई सी जान पड़ी और प्रभाकरसिंह ताज्जुब के साथ इधर-उधर देख ही रहे थे कि ऊपर की मंजिल वाली वही खिड़की खुली और एक औरत की डरी हुई आवाज उसके अन्दर से आई- ‘‘बचाइए, बचाइए, इन दुष्टों से मेरी जान बचाइए!’’ प्रभाकरसिंह चौंककर खड़े हो गए और उसी समय उन्होंने देखा कि मालती उस खिड़की में से झांक ही नहीं बल्कि उसी राह नीचे कूदने की कोशिश कर रही है मगर दो मजबूत हाथ उसे रोककर भीतर की तरफ खींच रहे हैं। मालती ने एक बार नीचे उनकी तरफ झांक करुणा-भरे स्वर से कहा-‘‘इन दुष्टों से मुझे बचाइए!’’ पर इसके पहले कि प्रभाकर सिंह उससे कुछ पूछ सकें या वही इनसे कुछ और कह सके, उन हाथों ने आगे बढ़कर उसको भीतर खींच लिया और वह खिड़की भी जोर से बन्द हो गई।
प्रभाकरसिंह ने दुःख के साथ हाथ मला और बोले, ‘‘ओफ क्या बेबसी है! मालती बेचारी पर न-जाने क्या बीत रही है! खैर अब चाहे जो भी हो एक बार तो मैं....!’’ उन्होंने अपना तिलिस्मी डंडा सम्भाला और आगे बढ़ने को कदम उठाया मगर उसी समय बगल से आवाज आई, ‘‘चलिए, रानी साहिबा ने आपको दरबार में बुलाया है!’’
प्रभाकरसिंह ने क्रोध भरे स्वर में जवाब दिया, ‘‘देखो जी, तुम चाहे जो भी हो और तुम्हारी रानी साहिबा भी जो चाहें हों, आदमी हों, राक्षस हों, बैताल हों, भूत हो या तिलिस्मी पुतली ही हों, मैं यह जानना चाहता हूँ कि किस हिम्मत पर तुम लोगों ने मेरे साथी से हाथापाही करने की जुर्रत की है!!’’
उस लाल पुतले ने कुछ ताज्जुब के ढंग से कहा, ‘‘सो क्या?’’
प्रभाकरसिंह ने जवाब दिया, ‘‘मेरा साथी, एक औरत, तुम लोगों की शैतानी से इस मकान में बन्द हो गई जिसे मैं छुड़ाना चाहता था पर अभी-अभी मैंने देखा कि तुम्हारे दोनों साथी वह सफेद और पीले पुतले उसके हाथापाई कर रहे थे।’’
लाल पुतला : (ताज्जुब का मुंह बनाकर) नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता।
प्रभा० : (अपनी बात पर जोर देकर) जरूर ऐसा ही है। यद्यपि उनकी सूरत तो यहाँ से नहीं देख सका मगर उनके रंगीन हाथ और सफेद तथा पीली पोशाकें मैंने जरूर देखीं। अवश्य वे ही दोनों थे इसमें कोई शक नहीं।
लाल पुतला : नहीं, नहीं, मेरा, मतलब अपने उन दोनों साथियों से नहीं है बल्कि उस औरत से है जिसे आप ‘अपना साथी’ कहकर पुकार रहे हैं, वह यहाँ क्योंकर हो सकती है? मैं उसे अभी-अभी दरबार में देखता आ रहा हूँ।
प्रभा० : वाह, सो कैसे हो सकता है? भला मैं अपनी आंख और कान को कैसे झूठा समझ सकता हूँ।
लाल पुतला : अब इसके जवाब में मैं सिवाय इसके और क्या कह सकता हूँ कि दरबार में पहुंचते ही आपको मेरी की सच्चाई का पता लग जाएगा।
प्रभाकरसिंह बड़े ताज्जुब में पड़कर कितनी ही तरह की बातें सोचने लगे। आखिरकार उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारी रानी के दरबार में जाने के लिए कितनी दूर चलना पड़ेगा?’’ पुतले ने जवाब दिया, ‘‘बिल्कुल थोड़ी दूर, मुश्किल से दो सौ कदम।’’ एक बार ऊपर सिर कर उस खिड़की को देख प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘खैर चलो, एक बार तुम्हारी बातों की सच्चाई की भी जांच कर देखें!’’
बिना कुछ कहे वह लाल पुतला मुड़ा और प्रभाकरसिंह को पीछे आने का इशारा करने के बाद तेजी से एक तरफ रवाना हुआ। जिस कमरे के बाहर वाले बरामदे से उतरकर वे यहाँ तक आये थे उसी के बगल से होता हुआ यह तिलिस्मी पुतला उन्हें एक बड़े फाटक के अन्दर ले गया जिस पर पहले भी प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ चुकी थी, और उसको पार करने के बाद उन्होंने अपने को एक छोटे मगर खुशनुमा बाग के अन्दर पाया।प्रभाकरसिंह का यह सन्देह अभी दूर न होने पाया था कि इस बाग में वह पहले भी आ चुके हैं या नहीं कि लम्बे-लम्बे डग मारते हुए उस पुतले ने उस बाग को भी तय किया और एक दूसरे आलीशान फाटक पर पहुंचा। इस जगह पहुंचकर प्रभाकरसिंह को कुछ राजदरबारी गंध मिली अर्थात् इस फाटक पर कई आदमी हथियार से सजे पहरा देते नजर पड़े, जिनकी शक्ल-सूरत और पोशाक ठीक उन्हीं पुतलों जैसी थी जिनमें का एक उनके साथ था, फर्क कुछ था तो केवल इतना ही कि ये शक्ल-सूरत और पोशाक में हरे रंग के थे।
एक सरसरी निगाह से ज्यादा प्रभाकरसिंह अपने चारों तरफ डाल न सके क्योंकि उनके साथ वाले आदमी (पुतले) के एक इशारे के साथ ही फाटक जो बन्द था खुल गया और वह इन्हें लिए उसके अन्दर हो गया। जिसके साथ ही भारी फाटक पुनः बन्द हो गया। प्रभाकरसिंह को शायद इस बात पर कुछ आपत्ति होती पर उनकी आंखें किसी ऐसी चीज पर पड़ीं जिसने उन्हें चौका दिया और वे इस बात पर बिना कुछ गौर किए कि पीछे जाने का रास्ता बन्द हो गया है और वे ऐसे स्थान पर आ खड़े हैं जहाँ से बाहर होने की राह शायद उन्हें सहज में न मिले, आश्चर्य और कुछ उत्कण्ठा से आगे की तरफ बढ़े।
वह चीज जिसने उन्हें इस तरह चौंका दिया था एक औरत थी जो प्रभाकरसिंह के सामने फैले हुए खुशनुमा नजरबाग की एक रविश पर इधर-से-उधर चहलकदमी कर रही थी। प्रभाकरसिंह की सरसरी निगाह में वह मालती जान पड़ी और जब कुछ आगे बड़कर गौर से उन्होंने देखा तो वह शक और भी बढ़ गया। यहाँ तक कि वे अपने को रोक न सके और कुछ तेजी के साथ आगे बढ़कर उस औरत के पास जा पहुंचे जो इस समय एक झाड़ी के पीछे खड़ी कुछ फूलों को तोड़ने की कोशिश कर रही थी। बहुत पास से देखने पर भी वह मालती ही जान पड़ी तो प्रभाकरसिंह ने खुशी-खुशी उसके पास जा के पूछा, ‘‘‘मालती, तुम यहाँ कहाँ?''
ताज्जुब की बात थी कि प्रभाकरसिंह को पास आते देख और उनकी बात सुन वह औरत (मालती) एक चीख मारकर पीछे हट गई और तब कुछ क्रोध की निगाह से उस लाल पुतले की तरफ देखने लगी जो प्रभाकरसिंह को आगे बढ़ता पा उन्हें रोकने की मुद्रा से इधर ही बढ़ रहा था।इसके पहले कि ताज्जुब में पड़े हुए प्रभाकरसिंह किसी से कुछ पूछें या कहें उस पुतले ने उनसे कहा, ‘‘आप उधर क्यों जाते हैं, इधर मेरे साथ आइए!!'' उसके लहजे में कुछ हुकूमत और कुछ क्रोध मिला हुआ था जिसने प्रभाकरसिंह में भी क्रोध पैदा कर दिया और वह बिगड़कर बोल उठे, ‘‘ठहरो जी, मैं पहले इनसे कुछ बातें कर लूं तो चलूंगा!!''और तब पुनः उस औरत की तरफ घूमकर बोले, ‘‘यह क्या मालती, तुम्हारा ढंग बदला क्यों नजर आता है! क्या तुम मुझसे कुछ नाराज हो?''
मगर अफसोस, इस बार भी मालती ने उस इज्जत, कद्र और आधीनता मिश्रित प्रेम की निगाह से न देखा जिससे कि बराबर उन्हें देखा करती थी बल्कि और भी क्रोधित होकर कड़ी निगाह से उस पुतले की तरफ देखती हुई वह बोल उठी, ‘‘क्या इसी तरह नौकरी अदा की जाती है? चल महारानी से तेरी शिकायत करके तुझे सजा दिलाती हूँ!'' तब प्रभाकरसिंह की तरफ देखकर बोली, ‘‘तुम कैदी हो, सीधे-सीधे कैदी की तरह अपने पहरेदार के साथ चले जाओ। और तुम बार-बार ‘मालती-मालती’ किसे कहते हो? मैं नहीं जानती कि तुम्हारी मालती कौन है और न मैंने उसको कभी देखा है!’’ इतना कहती वह तेजी के साथ घूमी और रविशों पर से होती हुई देखते-देखते प्रभाकरसिंह की आँखों की ओट हो गई। बेचारे प्रभाकरसिंह सकते की-सी हालत में खड़े उस तरफ देखते ही रह गए। ‘इस समय उस पुतले ने उन्हें सम्बोधन कर कहा, ‘‘कृपा कर अब तो आप आगे बढ़िये! आपने जो कुछ किया अच्छा किया, अब मालूम नहीं ये मेरी कौन कौन-सी शिकायत महारानी से करेंगी और क्या सजा दिलायेंगी, अब और देर करके मुझे एकदम सूली ही तो मत दिलाइये!''
प्रभाकरसिंह ने अप्रतिभ होकर कहा, ‘‘क्या ये कोई दूसरी हैं? जिन्हें मैंने समझा वह मालती देवी नहीं हैं?'' पहरेदार बोला, ‘‘यह महारानी की मुंहबोली सखी सुलोचना हैं। वह मालती कौन है जिसे आप बार-बार पूछ रहे हैं सो मैं तो कुछ भी नहीं जानता। खैर अब आप इधर से आइए, और देर मत कीजिए।'' इतना कहता हुआ पहरेदार घूम पड़ा और चक्करदार रविशों पर से होता हुआ उस बड़े मकान की तरफ बढ़ा जो उस जगह से दिखाई पड़ रहा था।
दस ही बीस कदम गये होंगे कि प्रभाकरसिंह ठमककर फिर रुक गए। उनके बाईं तरफ एक लता-मण्डप के अन्दर दो औरतें खड़ी आपस में कुछ बातें कर रही थीं जिनमें से एक की पीठ इनकी तरफ पड़ती थी मगर दूसरी जिसका मुंह इनकी ओर था ठीक मालती की तरह मालूम पड़ी। इसे देख फिर वे चमके और आगे बढ़ना ही चाहते थे कि पहले धोखे का ख्याल आ गया और इन्होंने उस पहरेदार को रोककर कहा, ‘‘क्यों भाई, क्या इस बार भी मेरी आंखें धोखा खा रही हैं या वह जो उस लता-मण्डप के अन्दर खड़ी हैं, मालती हैं?''
पहरेदार ने एक मामूली निगाह उस तरफ डाली और हंसकर कहा, ‘‘वे महारानी की सखी सुभद्रा हैं। ताज्जुब की बात है कि आपकी आंखों में कुछ शिकायत आ गई है। आइये चलिये, आगे बढ़िये।'' यद्यपि प्रभाकरसिंह इस औरत को भी मालती ही समझ रहे थे पर पहरेदार की बात सुनकर उनकी और कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी और मन-ही-मन यह कहते हुए आगे बढ़े, ‘‘क्या मेरी आंखें मुझे धोखा दे रही हैं या यहाँ की सभी औरतें मालती की-सी सूरत-शक्ल वाली हैं?’’
कुछ ही दूर आगे चलकर ये लोग उस आलीशान मकान के पास पहुंच गये और इस जगह प्रभाकरसिंह ने उसी पहरेदार की सूरत-शक्ल के और भी बहुत-से आदमियों को पहरा देते तथा और भी तरह-तरह के काम करते हुए पाया जो सब के सब हरे रंग के थे, सिर्फ यही नहीं, मकान के अन्दर वाले भीतरी हिस्से में तथा ऊपर के बरामदे में काम करती हुई कई औरतें भी प्रभाकरसिंह को दिखाई पड़ीं और उन्होंने धड़कते हुए कलेजे के साथ देखा कि वे सभी-की-सभी सूरत-शक्ल में मालती ही मालूम पड़ रही है।
पहरेदार ने एक दूसरे आदमी से कहा, ‘‘जाओ महारानी से इत्तिला करो कि वह आदमी आ गया है।’’ और जवाब में यह सुनकर कि हुक्म मिला है कि आते ही दरबार में हाजिर किया जाए इत्तिला की जरूरत नहीं, उसने प्रभाकरसिंह की तरफ देख के कहा, ‘‘आप भीतर जाइए!’’ आप सीधे सामने चले जाइए, ठीक स्थान पर पहुँच जाएंगे।’’
इधर-उधर देखते हुए प्रभाकरसिंह ने मकान के अन्दर पैर रखा और एक छोटा–सा रास्ता तय कर एक बहुत ही बड़े आलीशान और सजे हुए कमरे में पहुँचे जो बड़ा ही खूबसूरत और नायाब चीजों से सजा हुआ था, मगर यहाँ पहुंचते ही जिस बात ने इनका ध्यान अपनी तरफ खींच लिया वह कुछ औरतें थीं जो साफ चमकदार संगमरमर के फर्श पर बनी हुई एक विसात के चारों तरफ बैठी हुई गोटी खेल रही थीं। उनमें से जो औरत इनके ठीक सामने पड़ती थी उस पर निगाह जाते ही इनको मालती का भ्रम हुआ ही क्यों, जरा-सा ठिठककर गौर से देखने पर भी उसे इन्होंने मालती समझा और उनकी तरफ कदम बढ़ाने को मजबूर हुए, मगर अफसोस, उसने इनकी तरफ कुछ भी ध्यान न देकर लापरवाही की मुद्रा से कहा, ‘‘ उधर उस सामने वाले दरवाजे से जाओ, महारानी हरे दालान में हैं।’’ और तब फिर अपने खेल में लग गई।
प्रभाकरसिंह चिहुंककर रुक गए और तब गौर करने पर उन्हें मालूम हुआ कि वहाँ जितनी औरतें बैठी हैं वे सभी देखने में मालती ही जान पड़ती हैं।यह क्या बात है, एक ही सूरत-शक्ल की इतनी औरतें यहाँ पर क्यों इकट्ठी हैं और इसमें क्या भेद है, यही सब सोचते हुए वे आगे बढ़े और दरवाजे के अन्दर घुसे जिसकी तरफ उस औरत ने बताया था। एक छोटा सहन दिखाई पड़ा जिसके चारों तरफ सफेद और काले संगमरमर के दालान बने हुए थे। सामने की तरफ का दालान दोहरा और हरे रंग से रंगा हुआ था और वहीं पर प्रभाकरसिंह को एक छोटे-से दरबार का अनूठा और बहुत ही रोबदार दृश्य दिखाई पड़ा।
सोने और चाँदी की मीनाकारी के काम की कुर्सियों पर लगभग पन्द्रह-सोलह औरतें बड़े ठाठ-बाठ और सज-धज से बैठी थीं जिनके गहनों और कपड़ों की चमक-दमक से वह स्थान रोशन हो रहा था। उनके बीचोबीच में एक जड़ाऊ सिंहासन रखा हुआ था जिस पर कोई बैठा न था मगर उस दरबार की सभी बैठने वालियों की निगाहें उसी तरफ घूमी हुई थीं और उसके पीछे की तरफ खड़ी दो बंदियां जड़ाऊ मोरछल और पंखी इस तरह झल रही थी मानों कोई उस पर बैठा हुआ हो। प्रभाकरसिंह ने उस जगह के साज-सामान और कैफियत से पहली ही निगाह में इतना तो समझ ही लिया कि यहाँ की रानी और चाहे जो भी हो, उसे कम-से-कम धन-दौलत और जवाहरात की कमी नहीं है, क्योंकि एक-से-एक कीमती चीजें चारों तरफ दिखाई पड़ रही थीं।मगर वे उस जगह ज्यादा देर तक खड़े न रह सके। जाने कहाँ से आकर दो लौंडियां उनके दोनों तरफ खड़ी हो गईं जिन्होंने उनसे कहा,‘‘ आगे बढ़िए,’’ सामने का सहन पार करके उन लौंडियों ने प्रभाकरसिंह को उस खाली सिंहासन के सामने लाकर खड़ा कर दिया तब अदब से झुककर यह कहने के बाद कि ‘वह आदमी हाजिर है’ कुछ पीछे हट गईं। प्रभाकरसिंह ताज्जुब के साथ यह सोच ही रहे थे कि वे खाली सिंहासन के सामने क्यों खड़े कर दिए गये हैं कि उस सिंहासन पर से आवाज आई,‘‘कौन है?’’ प्रभाकरसिंह के बगल वाली एक लौंडी बोली’ ‘‘हुजूर, ये वे ही हैं जिनके बारे में पहरेदारों ने इत्तिला की थी कि सरकारी कैदखाने में से किसी कैदी को निकालने कि कोशिश कर रहे थे!’’
सिंहासन पर से आवाज आई, ‘‘इनका नाम क्या है?’’ इस लौंडी ने प्रभाकरसिंह से इशारा किया और इन्होंने जवाब दिया, ‘‘मेरा नाम प्रभाकरसिंह है, मगर इसके पहले कि मैं किसी और सवाल का जवाब दूं, यह जानना चाहता हूँ कि मैं कहाँ और किसके सामने खड़ा हूँ!’’
सिंहासन के बगल वाली कुर्सी पर बैठी एक औरत ने जवाब दिया, ‘‘आप हम लोगों की महारानी के हुजूर में खड़े हैं।’’ प्रभाकरसिंह बोले,‘‘मगर वे कहाँ हैं! मेरे सामने तो सिर्फ एक खाली सिंहासन है।’’ उस औरत ने जवाब दिया, ‘‘वे सिंहासन पर विराज रही हैं पर जब तक उनकी मर्जी न हो मामूली आँखें उन्हें देख नहीं सकतीं। आपको जो कुछ कहना हो अर्ज कीजिए, बराबर जवाब और हुक्म मिलेगा।’’
ताज्जुब के साथ सिंहासन को नीचे-ऊपर से गौर के साथ देखते हुए प्रभाकरसिंह बोले,‘‘ अगर जो कुछ मैं सुन रहा हूँ वह सही है और इस तिलिस्म की कोई रानी हैं जो मेरे सामने अलक्ष्य रूप से इस सिंहासन पर बैठी हैं तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि मेरा एक साथी आपके कैदखाने में बन्द हो गया है जिसे मैं वापस चाहता हूँ।’’
सिंहासन पर से जवाब मिला, ‘‘वह कौन है? उसका क्या नाम है? इस बार प्रभाकरसिंह ने ताज्जुब और गौर के साथ लक्ष्य किया कि आवाज इस ढंग से आ रही है मानों कोई उसी सिंहासन पर बैठा हुआ बोल रहा हो, मगर उस पर दिखाई तो कोई भी नहीं दे रहा था! यह क्या है इस पर आश्चर्य करते हुए वे बोले, ‘‘ वह एक स्त्री है, उसका नाम मालती है,’’
सिंहासन से आवाज आई, ‘‘वह किस कसूर में पकड़ी गई है?’’ आवाज का ऐसा ढंग था मानों बोलने वाले ने बगल की तरफ घूमकर किसी दूसरे से यह सवाल किया हो। प्रभाकरसिंह के कुछ जवाब देने के पहले सिंहासन के बगल वाली उसी औरत ने जिसने पहले उनसे बातें की थी सिंहासन की तरफ घूम और हाथ जोड़ उत्तर दिया महारानी, उस औरत पर बड़े-बड़े इल्जाम लगाए गए हैं, उसका सबसे भारी कसूर यह कहा जाता है कि उसने तिलिस्मी खजाना चुराने की कोशिश की और महारानी की सूरत बन तथा अपने को रानी बतला सरकारी नौकरों को धोखा देना चाहा।’’
सिंहासन से आवाज आई, ‘‘और इन पर भी क्या कोई इल्जाम है?’’ उस औरत ने जवाब दिया, ‘‘ये भी सरकारी तिलिस्म तोड़ और सरकारी नौकरों के काम में रोक टोक कर रहे थे,’’ सिंहासन से फिर सवाल हुआ, ‘‘कहिए इन बातों के जवाब में आपको क्या कहना है!’’ इस बार की आवाज के रुख तथा औरत के इशारे से वह समझ गये कि यह सवाल उन्हीं से किया गया है अस्तु वे बोले, ‘‘मालती देवी के बारे में जो कुछ कहा जाता है उसका तो मैं कोई जवाब नहीं दे सकता मगर अपने बारे में कह सकता हूँ कि जो कुछ यह कह रही हैं वह बहुत ठीक है। मैं आज ही कल से नहीं बल्कि महीनों से इस तिलिस्म में रहकर इसे तोड़ रहा हूँ तथा बहुत जल्द बचा हुआ हिस्सा तोड़कर इसके बाहर भी हो जाने की उम्मीद रखता हूँ।’’
सिंहासन से प्रश्न हुआ ‘‘क्या आप नहीं जानते कि इस तिलिस्म की रानी मैं हूँ और बिना मेरी इजाजत के मेरे घर में घुस आना और तोड़-फोड़ मचाना आपके लिए मुनासिब नहीं था।’’
प्रभा० : अफसोस कि मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि इस तिलिस्म की कोई जीती-जागती रानी भी मौजूद हैं, अगर जानता तो शायद मेरे काम करने का ढंग दूसरा होता।
सिंहासन से : अब तक नहीं जानते थे तो खैर अब तो जान गये, अब आप क्या करना चाहते हैं?
प्रभा० : अफसोस कि मुझे अब तक यह विश्वास नहीं हुआ कि वास्तव में इस तिलिस्म की कोई रानी हैं या नहीं, अथवा यह सब सिर्फ कोई तिलिस्मी तमाशा है अस्तु इस सवाल का जवाब मैं तब तक नहीं दे सकता जब तक कि मुझे आपके अस्तित्व का विश्वास न हो जाए।
कुछ रुककर सिंहासन से जवाब मिला, ‘‘आपके उत्तर में उद्दंडता की बू नहीं है इससे मैं समझती हूँ कि आपके सामने प्रकट हो जाने में कोई हर्ज नहीं है,’’ बात पूरी समाप्त भी न हो पाई थी कि सिंहासन के बीचोबीच में एक छोटी रोशनी इस तरह की दिखाई पड़ी मानों दीये की एक ज्योति जल रही हो, मगर देखते-ही-देखते वह ज्योति बढ़ने लगी, उसकी तेज चमक और डील-डौल बढ़ने लगा और आधी घड़ी के अन्दर ही वहाँ एक भयानक अग्नि-शिखा दिखाई पड़ने लगी जिसकी ऊँचाई कोई सात-आठ हाथ के लगभग और सबसे चौड़े हिस्से का पेटा करीब तीन हाथ के होगा।
अग्नि-शिखा एक दफे खूब ही तेज हुई मगर आंखों में चकाचौंध डालने वाली उसकी चमक धीरे-धीरे कम होने लगी और साथ ही उसका कद भी छोटा होने लगा। अब उसके अन्दर किसी स्त्री की अस्पष्ट आभा प्रभाकरसिंह को दिखाई पड़ने लगी। ताज्जुब के साथ उन्होंने देखा कि ज्यों-ज्यों वह अग्नि-शिखा छोटी होती जा रही है, भीतर वाली मूर्ति स्पष्ट होती जा रही है यहाँ तक कि धीरे-धीरे वह ज्योति एकदम ही गायब हो गई और उसके स्थान पर एक सुन्दर कमसिन औरत जड़ाऊ गहनों और कीमती पोशाक से सजी बैठी दिखाई पड़ने लगी।
और भी ताज्जुब की बात यह कि सिंहासन पर की यह औरत जिसने अपने को तिलिस्म की रानी कहा था और जिसके प्रकट होते ही उस दरबार में बैठी सब औरतें अदब से उठकर खड़ी हो गई थीं। शक्ल-सूरत में ठीक मालती ही जान पड़ी यहाँ तक की इस जगह की तेज रोशनी में दो हाथ के फासले से देखकर भी प्रभाकरसिंह को किसी तरह का यह शक न हुआ कि वह मालती के अलावा और भी कोई हो सकती है। मगर वे पहले दफे धोखा खा चुके थे अस्तु इस बार उन्होंने पुनः अच्छी तरह उस औरत की तरफ देखा और तब यकायक बरबस बोल उठे, ‘‘ हैं मालती! तुम यहाँ? यह क्या बात है?’’
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