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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


काशी की जिन तंग और बदबूदार गलियों के अन्दर बेगम का मकान है उन्हीं में एक बार फिर हम पाठकों को लेकर चलते हैं।

रात के करीब दस बजे होंगे। शहर के उन कुछ खास-खास हिस्सों को छोड़ जिनकी रौनक रात के साथ-साथ बढ़ती है, बाकी हिस्से धीरे-धीरे अंधेरे की ओट में जा नींद में गाफिल हो रहे हैं और कुछ गलियां तो ऐसी सूनसान हो गई हैं कि मालूम पड़ता है मानों इसमें कोई मकान ही नहीं है या अगर है भी तो उनमें कोई रहता नहीं क्योंकि एक चिराग तक कहीं नजर नहीं आता।

ऐसे समय में दो आदमी काले लबादों से अपने को छिपाये दबे पांव उधर को जा रहे हैं जिधर बेगम रहती है। अंधेरा इनके काम में कुछ भी विघ्न नहीं डाल रहा है और बेखटके एक से निकलकर दूसरी गली में जाते, सीढ़ियों और ठोकरों से बचते, अंधेरे में फैल पड़े पागुर करते हुए बड़े-बड़े सांड़ों के पैने सींघों से बचाते-बचाते चले जा रहे हैं जिससे मालूम होता है कि अगर इन हिस्सों के रहने वाले नहीं हैं तो कम-से-कम इधर से इनका आना-जाना तो बराबर ही होता रहता है।

एक औरों की बनिस्बत कुछ और भी गंदी गली में घुसते हुए आगे वाले आदमी ने दबी जबान में पूछा, ‘‘क्यों यही गली है न?’’ जिसके जवाब में दूसरे ने उसी तरह धीरे से जवाब दिया, ‘‘हाँ, इसके अन्दर बाईं तरफ का तीसरा दरवाजा है।’’

पन्द्रह-बीस कदम गली के अन्दर जा दोनों खड़े हो गए, आपस में धीरे-धीरे कुछ बातें कीं और एक ने कमर से कमन्द निकाल ऊपर की तरफ फेंकी। एक ही दफे की कोशिश में वह कहीं अटक गई और तब उसके सहारे दोनों आदमी उस मकान के ऊपर चढ़ गए जो बहुत ऊंचा तो न था मगर संगीन और मजबूत बना हुआ था।

मालूम होता है कि इस मकान में कोई रहता न था क्योंकि इसकी छतों पर से बेखटके चढ़ते-उतरते वे दोनों इसके पिछवाड़े वाले उस हिस्से में पहुंच गए जिधर एक दूसरे मकान की ऊपर वाली मंजिल अंधेरे में अपना काला सिर उठाए खड़ी थी। एक ने दूसरे से कहा, ‘‘यही मकान बेगम का है। यद्यपि यह उसका पिछवाड़ा है और इधर कोई रहता नहीं फिर भी अब हमें होशियारी से काम लेना चाहिए क्योंकि वह कम्बख्त एक चांगली है!’’

दोनों ने धीरे-धीरे कुछ सलाह की और तब पुन: कमन्द फेंकी गई जिसके सहारे एक आदमी बेगम के मकान पर चढ़ गया। कुछ देर तक तो वह ऊपर इधर-उधर घूम-फिरकर देखभाल करता रहा तब उसने अपनी कमन्द को हिलाया जिसके साथ ही वह दूसरा आदमी भी ऊपर चढ़कर उसके पास पहुंच गया। पहले आदमी ने एक तरफ की मुंडेर के नीचे झांककर कहा, ‘‘वह देखो, दूसरी मंजिल के उस दालान में रोशनी हो रही है। मालूम होता है आज इधर कुछ आदमी हैं।’’ दूसरा कुछ देर तक गौर से नीचे देखता रहा, इसके बाद बोला, ‘‘जो कुछ भी हो हमें अपना काम तो पूरा करना ही पड़ेगा!’’

अब थोड़ी देर के लिए हम इन दोनों का साथ छोड़ देते और नीचे चलकर देखते हैं कि वहाँ क्या हो रहा है। यह एक बहुत बड़ा दोहरा दालान है जिसके दोनों तरफ छोटी-छोटी कई कोठरियां हैं। दालान में फर्श बिछा हुआ और कई तकिए रखे हैं जिनके सामने दो रोशनदान जल रहे हैं मगर वहाँ बैठा हुआ कोई नहीं है। हाँ, उस दाहिनी बगल वाली कोठरी में से कुछ आवाज जरूर आ रही है जिसका दरवाजा मामूली तरह पर भिड़काया हुआ है। आइए उसके अन्दर चल कर देखें कि क्या हो रहा है।

इस कोठरी में एक बड़ी चौकी है जिस पर मामूली फर्श बिछा हुआ है। इसके पीछे की तरफ एक बड़ा-सा कद्दे आदम शीशा खड़ा हुआ है जिसके दोनों तरफ छोटे-बड़े तरह-तरह के बक्स जिनमें कुछ खुले हुए भी हैं, रखे हैं। तीन तरफ दीवारों में कई बड़ी-बड़ी अलमारियां बनी हुई हैं जिनमें से कुछ बन्द और कुछ इस वक्त खुली हुई हैं। जो बक्स और अलमारियां खुली हुई दिखाई पड़ रही हैं उनमें तरह-तरह के औजार, दवाइयां, कपड़े, हथियार, दाढ़ी-मूंछ, बाल, चेहरे और नकाब इत्यादि भेष बदलने की चीजें दिखाई पड़ रही हैं और उन्हीं में से सामान निकालकर अपने दोनों तरफ रखे वह औरत जो शीशे के सामने बैठी है तरह-तरह के रंग, कूचियां, प्याले और दवा आदि की मदद से अपने चेहरे और बदन को रंग और सजा रही है। इस समय इसका चेहरा बदला हुआ और पल-पल में बदलता जा रहा है जिससे शायद हमारे पाठक यकायक इसे पहचान न सकें मगर हम बखूबी जानते हैं कि यह बेगम है जो शैतानी का कोई जाल फैलाने की नीयत से अपने को रंग-रंगाकर एक नौजवान लड़के के भेष में सजाने की कोशिश कर रही है।

बेगम से कुछ हटकर उसकी सहेली जमालो बैठी हुई है जो दवा और सामान इत्यादि निकालने, मिलाने और तैयार करने आदि के काम में उसकी मदद करने के साथ ही रंग भरने में राय देती हुई उससे बातें भी करती जाती है।

जमालो : मैं नहीं जानती थी कि तुम सूरत में इतनी उस्ताद हो!

बेगम : बहुत दिनों से यह काम करने की जरूरत नहीं पड़ी इसी से तुझे देखने का भी मौका न मिला। अब तो हाथ खराब हो गया है मगर किसी जमाने में मैं इस काम में यकता समझी जाती थी।

जमालो : मगर तुम्हें यह सब सीखने की जरूरत कब और क्यों पड़ी?

बेगम : उस वक्त मैं मिर्जापुर में रहा करती थी और गदाधरसिंह मेरे आशिकों में से था। अपने मालिक रणधीरसिंह के डर से वह बहुत छिप-लुककर मेरे पास आया करता था और जब कभी मुझे कहीं ले जाना होता था तो बराबर सूरत बदलकर ले जाया करता था। उसी की बदौलत मुझे भेष बदलना आ गया। अगर कुछ दिन मेरा-उसका साथ और रहता तो मैं ऐयारी के फन में भी उस्ताद हो जाती क्योंकि भूतनाथ अक्सर तरह-तरह के अनूठे-अनूठे नुस्खे मेरे सामने बनाता और उनसे तरह-तरह के काम लिया करता था, मगर अफसोस!

जमालो : अफसोस क्या?

बेगम : रघुबरसिंह१ की बदौलत मेरी और भूतनाथ की खटक गई और तभी से वह फिरन्ट हो गया और तो खैर जो कुछ था सो था ही वह हाथ का बड़ा शाहखर्च था, उससे दौलत खूब मिला करती थी। (१. रघुबरसिंह से बेगम का मतलब जैपालसिंह से है।)

जमालो : रघुबरसिंह से भी तो तुम्हें कुछ कम माल नहीं मिला!

बेगम : हाँ, सो तो है मगर (एक लम्बी सांस लेकर) गदाधरसिंह की बात दूसरी ही थी, वह आदमी बड़ा मर्दाना था।

जमालो : लेकिन अगर ऐसा ही था जो तुम्हें उसको भी बनाए रखना चाहिए था, उससे बिगाड़ क्यों कर लिया?

बेगम : तुमसे कहा न कि वही रघुबरसिंह की बदौलत। जब इनका साथ हुआ तो उससे खटक गई।

जमालो : तुम्हें दोनों को बनाकर रखना चाहिए था। वह रण्डी ही क्या जो एक साथ ही दो-तीन या चार आशिकों को अपने ऊपर दीवाना न बनाए रहे और सभी को यह जताती रहे कि वह मरती है तो एक उसी पर!

बेगम : (मुस्कुराकर) तू मुझे निरी बौड़म समझती है क्या? मैंने क्या ऐसा करने की कोशिश नहीं की?

जमालो : कोशिश क्या खाक की? होशियारी से काम लिया होता तो यह नौबत ही क्यों आती?

बेगम : अरी कम्बख्त, बरसों तक मैं उन दोनों ही को उल्लू बनाए रही और दोनों ही मुझे पर मरते रहे, मगर आखिर एक मामला ऐसा आन पड़ा कि मुझे किसी एक से बिगाड़ करना जरूरी हो गया। तब गदाधरसिंह छूटा कि यों ही सहज में! तू अपने ऐसा सबको समझती है?

जमालो : (झुंझलाकर) अपने ऐसा न सही। बहुत होशियार ही सही मगर आखिर वह बात कौन-सी आ पड़ी? मैं तो बराबर यही देखती हूँ कि अक्सर गदाधरसिंह का नाम लेकर लम्बी सांसें लिया करती हो जिससे मालूम होता है कि दिल से उसका ख्याल अभी तक नहीं उतरा है, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि अगर ऐसा ही था तो उससे बिगाड़ ही करने क्यों गई?

बेगम : अच्छा तो सुन, तुझे बता ही दूं मगर किसी से कहियो नहीं, हम दोनों में बिगाड़ का सबब बनी यही रामदेई कम्बख्त!

जमालो : रामदेई! कौन रामदेई! वही जो भूतनाथ के पास थी और आजकल....

बेगम : हाँ, वही।

जमालो : इसने क्या किया?

बेगम : यह कैसी खूबसूरत है वह तो तुमने देख ही लिया है। आज कल बढ़ी उम्र में, जब यह हाल है तो लड़कपन में क्या रही होगी सो सोच भी सकती हो। ऊपर से यह शैतान रही भी चुलबुली। इसका एक भाई था जो नागर के आशिकों में था और उसी के यहाँ अक्सर मेरी उसकी देखाभाली भी हुआ करती थी। वही से जान-पहचान बढ़ी और तब मेरे यहाँ भी वह आने-जाने लगा बल्कि एकाध दफे मुझे घर भी ले गया जहाँ उसकी इस रामदेई को मैंने देखा। दो ही चार दफे की देखाभाली के बाद मैं समझ गई कि यह रामदेई भी हमीं लोगों का मुहल्ला आबाद करने वालों में से है। उससे घर-गृहस्थन बन के रहना न सपरेगा।

जमालो : अच्छा, क्या वह मनचली भी थी?

बेगम : हाँ, खूब! जैसी खूबसूरत, वैसी चंचल और वैसी ही मनचली। सब जोड़ लिए हुए थे। ऊपर से हुआ यह कि इसके भाई ने जहाँ इसकी शादी पक्की की वह घर और वर इसको पसन्द न आया। सोने की सुगन्ध मिली। मैं ऐसी चेलिन की तलाश में थी ही, उसे झांसा पट्टी दे उसके घर से उड़ा लाई और सोचा यह कि अपनी छोटी बहिन बनाकर मशहूर करूंगी और उसकी कमाई से अपना घर भरूंगी।

जमालो : मगर उसके भाई ने कुछ कहा नहीं? तुमने कहा न कि वह भी तुम्हारे यहाँ आता-जाता था?

बेगम : उस बेवकूफ को पता ही कौन लगने देता था। स्वयं उसकी बहिन यह रामदेई ही जब उसे उल्लू बनाने और दुनिया की मौज लेने पर तुली हुई थी तब उसे अन्धा बना रखना कौन मुश्किल काम था?

जमालो : ठीक है, अच्छा तब? रामदेई को तुमने कहाँ रखा?

बेगम : मुझसे गलती यही हुई कि उसे रखा अपने ही साथ और उसके भाई की नजरों से तो छिपा रखा मगर इन गदाधरसिंह और रघुबरसिंह से उसका पर्दा न किया।

जमालो : उन्हें भी नई चिड़िया का शिकार चखाना चाहती होगी।

बेगम : (हाथ की कूंची का रंग जमालों के गाल लगाकर) शैतान कहीं की!

जमालो : (बेगम की साड़ी से गाल का रंग पोंछती हुई) अच्छा, अच्छा, जाने दो तब क्या हुआ? ये दोनों ही उस पर लट्टू हो गए, तब?

बेगम : दोनों ही उस पर जान देने लगे और उसे अपनी बनाने की फिक्र में पड़े। इसमें कोई शक नहीं कि कुछ दिन तक उसकी बदौलत मुझे गहरी रकम मिलती रही मगर अन्त में नतीजा वही हुआ जो तुम देखती हो अर्थात् गदाधरसिंह से खटक गई। बात यह हुई कि यह कम्बख्त रघुबरसिंह पर आशिक हो गई। भूतनाथ इस बात को ताड़ गया और बड़ी चालाकी कर गया। रघुबरसिंह का भेष बनाकर एक दिन उसे वह मेरे घर से उड़ा ही तो ले गया। पहले तो उसे पटना ले जाकर रखा, फिर वहाँ से अपनी न-जाने किस गुप्त घाटी में ले जाकर बहुत दिन तक छिपाए रहा, तब अन्त में काशी ले गया और इतने दिनों तक बराबर खूब अपने को रघुबरसिंह जाहिर करता रहा और उसे इसी धोखे में रखा कि वह रघुबरसिंह के ही पास है, यहाँ तक कि उसे एक लड़का भी हो गया पर वह जान न पाई कि वह गदाधरसिंह से है। मगर आखिर वह भंडा फूटा ही। शेरअलीखां की लड़की गौहर ने गदाधरसिंह की कार्रवाइयों को मटियामेट कर दिया। न-जाने उसे किस तरह इस भेद का पता लग गया और उसने रामदेई को असली मामले की खबर कर दी। एक दिन जब भूतनाथ ने किसी सबब से रघुबरसिंह को गिरफ्तार किया और गलती से उसके शागिर्दों ने उसको वहीं पहुंचा दिया जहाँ रामदेई थी (शायद रामदेई की भी इसमें कुछ करस्तानी रही हो) तब दोनों की भेंट हुई! पुराने-आशिकों ने एक-दूसरे को पहचाना और खुल खेले। रामदेई रघुबरसिंह के साथ निकल भागी और साथ-साथ गदाधरसिंह की बहुत कुछ दौलत और कितने ही गुप्त कागज-पत्र और चीजें भी लेती गई। इसके बाद किस तरह नागर उसकी सूरत बना गदाधरसिंह के मत्थे मढ़ी गई और फिर क्या-क्या हुआ, यह सब तुम जानती ही हो।

जमालो : हाँ-हाँ, यह सब तो इधर का हाल है और इसे मैं बाखूबी जानती हूँ मगर तुम यह बताओ कि तुम्हारी और गदाधरसिंह की क्यों बिगड़ गई?

बेगम : हाँ, वह किस्सा तो कहना मैं भूल ही गई। जब रामदेई मेरे घर से निकल गई तो पहले मुझे यह पता ही न लग पाया कि यह किसकी कार्रवाई है। कम्बख्त गदाधरसिंह पहले ही की तरह मेरे पास बराबर आता-जाता रहा और इस भेद को ऐसी खूबी से छिपाये रहा कि मुझे जरा भी शक उस पर न हुआ और मैं यही समझती रही कि वह शैतान अपने मन से ही किसी तीसरे के साथ निकल गई मगर धीरे-धीरे मुझे इस शैतान का पता लगा, खासकर तब जब कि भूतनाथ ने मेरे यहाँ आना-जाना कम कर दिया। उस समय किसी तरह मुझे यह हाल मालूम हुआ और मैंने गुस्से में आ रघुबरसिंह से इस बात का जिक्र कर दिया जो खुद रामदेई के गायब हो जाने के सबब से सख्त फिक्र में पड़ गया था और मुझ पर भी तरह-तरह के शक करने लगा था। उसने गदाधरसिंह का पीछा किया, उसके कई छिपे भेदों का पता लगाकर उसे दबाना और डराना चाहा, और दो-एक काम ऐसे कर डाले जिससे गदाधरसिंह को सख्त मुसीबत में पड़ना पड़ा। किसी तरह उसे मालूम हो गया कि मेरे ही होशियार करने से रघुबरसिंह को रामदेई वाले मामले की खबर लगी है। बस तभी से उसने मुझसे दुश्मनी अख्तियार कर ली और बहुत कुछ तकलीफ भी पहुंचाई।

बेगम यह सब किस्सा सुनाती जाती थी और फुर्ती-फुर्ती अपना काम भी करती जाती थी अर्थात् इसी बीच में उसने अपनी सूरत एक कम-उम्र नौजवान की–सी बना डाली जिसकी मसें भी न भीगी थीं। तरह-तरह की पोशाकों की उस जगह कमी न थी जिसमें चुन-चुनकर उसने कुछ कीमती कपड़ों और सूफियाने जेवर-अंगूठी आदि से अपने को सजाया और तब एक रेशमी साफा सिर पर रख अपने बड़े-बड़े बालों को उसके अन्दर छिपाती हुई शीशी के सामने खड़ी होकर बोली, ‘‘क्यों, कैसी लगती हूँ?’’ जमालो देखकर बोली, ‘‘क्या बताऊं, कुछ दिन पहले की उम्र होती तो अपने बगल से तुम्हें उठने न देती!’’ जिसे सुन उसने मुस्कराकर एक चिकोटी उसे काटी और तब जल्दबाजी दिखलाती हुई बोली, ‘‘अच्छा, अब चलना चाहिए, बहुत देर हो गई!’’

दोनों ने जल्दी-जल्दी वहाँ चौकी पर फैले हुए सामानों को ठिकाने किया और तब अलमारियों और संदूकों को बन्द करती हुई कोठरी के बाहर निकल गई एक बड़ा ताला जो उसी जगह ड्योढ़ी पर रखा हुआ था कुण्डे में लगाया और तब नीचे की मंजिल में उतरी जहाँ से इस मकान के अगले चौक में जाने का रास्ता था।

हमारे वे दोनों ऐयार भी, जिनके साथ-साथ हम यहाँ आए हैं, उसी जगह कहीं छिपे खड़े बेगम और जमालो की बातों को बड़े गौर से सुन रहे थे। अब उन दोनों के नीचे चले जाने पर इनमें धीरे-धीरे आपस में बातें होने लगीं–

एक : इनकी बातचीत से तो नई बात मालूम हुई!

दूसरा : हाँ, अफसोस कि हम लोग कुछ और पहले न पहुंचे नहीं तो और भी कुछ सुनते। अब भी अगर इनका पीछा किया जाए तो जरूर और कुछ मालूम होगा।

पहला : नहीं, अब उसका वक्त नहीं रहा। तुम जानते हो कि अब यह यहाँ से सीधी जमानिया जाएगी और वहाँ....

बात कहते-कहते यह रुक गया। क्योंकि नीचे की तरफ कुछ आहट मालूम पड़ी। दोनों आदमी दबे पांव छज्जे की तरफ आए और वहाँ से आड़ लेकर देखने लगे। नीचे के दालान में, जहाँ से अलग चौक में जाने का रास्ता था, दरवाजे के सामने ही दोनों खड़ी दरवाजे के दूसरी तरफ वाले किसी आदमी से कुछ बातें कर रही थीं। बहुत कोशिश करने पर भी उस तीसरे की सूरत उस जगह से दिखाई न पड़ी मगर बातें कुछ-कुछ जरूर सुनाई पड़ीं।

बेगम : (फिक्र की आवाज में) यह तेरा क्या हाल है? तू इस तरह घबराई और परेशान दौड़ती क्यों आ रही है? क्या कोई नई बात हुई है?

वह : हाँ, नई ही नहीं, एक बड़ी भयानक बात हो गई!!

बेगम : सो क्या?

वह : अपनी बैठक में चलो वहीं सब कहूँगी। अब तुम्हें जमानिया जाने की जरूरत नहीं जैपालसिंह खुद यहीं आए हैं और तुम्हारी राह बेचैनी के साथ देख रहे हैं।

बेगम : हैं! कहाँ हैं वे?

वह : तुम्हारी बैठक में।

बेगम जमालो को लिए घबराई हुई आगे की तरफ बढ़ गई और लपकती हुई अपनी बैठक में पहुंची जो अगले चौक (मकान) की बिचली मंजिल में थी, मगर जाने की जल्दी में वह बीच का दरवाजा खुला ही छोड़ती गई जिसका नतीजा यह हुआ कि ये दोनों ऐयार भी ऊपर से उसकी बातें सुन रहे थे उस अगले चौक तक सहज ही में पहुंच गए। वहाँ के गहरे सन्नाटे और अंधकार ने उनकी मदद की और वे दोनों शीघ्र ही उस जगह तक आ पहुंचे जहाँ बेगम अभी-अभी पहुंची थी और जहाँ जैपाल एक गावतकिए के साथ चिन्ता-निमग्न बैठा हुआ कुछ-कुछ सोच रहा था।

बेगम के आने की आहट पा जैपाल ने सिर उठाकर उसकी तरफ ताज्जुब के साथ देखा (क्योंकि वह इस समय एक लड़के की शक्ल में थी) मगर उसका एक खास इशारा देखते ही उसे पहचान गया और उसका हाथ पकड़कर अपनी तरफ खींचता हुआ बोला, ‘‘मालूम होता है तुम जमानिया जाने को तैयार हो चुकी थीं।’’

बेगम उसकी बगल में बैठकर बोली, ‘‘हाँ, दारोगा साहब के हुक्म के मुताबिक तैयार होकर बाहर निकल ही रही थी जब तुम्हारे आने की खबर मिली। मगर मेरे प्यारे मजनूं, तुम इतने गमगीन क्यों नजर आ रहे हो?’’

जैपाल० : कुछ पूछो मत, बड़ी बुरी खबर है।

बेगम : आखिर क्या?

जैपाल० : (बेगम के कान की तरफ झुककर) रिक्तगंथ हम लोगों के हाथ में आकर निकल गया।

बेगम : (चौंककर) सो कैसे?

जैपाल० : अब आया हूँ तो तुम्हें सब किस्सा सुनाऊंगा ही।

बेगम : मनोरमा और नागर कहाँ हैं? कुशल से तो हैं!

जैपाल० : हाँ, है तो कुशल से मगर इसी गम से परेशान वे भी इस समय दारोगा साहब के साथ जमानिया में ही हैं।

बेगम : मगर उन लोगों ने कार्रवाई तो बहुत पक्की की थी! आखिर हुआ क्या?

जैपाल० : कार्रवाई बेशक बहुत पक्की थी, रिक्तगन्थ को भूतनाथ राजा बीरेन्द्रसिंह के महल में से ले आया और जाकर रामदेई बनी हुई नागर को दिया। वह उसे लेकर दारोगा साहब को देने चली, मगर रास्ते ही में किसी शैतान ने दारोगा साहब की सूरत बन उससे वह किताब उड़ा ली।

बेगम : हैं, दरोगा साहब की शक्ल बनकर किताब ले ली!! जरा खुलासा कहो, मेरी तबीयत उलझन में पड़ रही है।

इसके जवाब में जैपाल का पूरा किस्सा जो हम ऊपर के ब्यानों में लिख आए हैं जैसाकि उसने दारोगा साहब से सुना था बयान कर डाला। बेगम ताज्जुब के साथ चुपचाप सुनती रही और तब अफसोस से बोली, ‘‘यह किसकी कार्रवाई हो सकती है?’’

जैपाल० : कुछ कहाँ नहीं जा सकता। दारोगा साहब बहुत बड़ी चिन्ता में पड़ गए हैं और इसीलिए मुझे यहाँ भेजा है कि तुम्हारी मदद लेकर इस बात का पता लगाऊं कि किस शैतान की यह कार्रवाई है।

बेगम : यो तो मैं हमेशा ही जो कुछ कर सकती हूँ करने के लिए तैयार रहती हूँ और इस वक्त भी मौजूद हूँ मगर मेरी समझ में नहीं आता कि इस मामले में क्या मदद पहुंचा सकती हूँ।

जैपाल० : दारोगा साहब का ख्याल है कि इस वक्त तुम्हारी ही मदद की जरूरत है और तुमसे बहुत कुछ काम निकल सकता है।

बेगम : तब मालूम होता है कि उनके मन में किसी ऐसी कार्रवाई की बात उठी है जिसमें मैं कुछ मदद कर सकती हूँ। अगर ऐसा हो तो मुझे बताओ, मैं सब तरह से तैयार हूँ।

जैपाल० : बेशक ऐसा ही है। दारोगा साहब को किसी आदमी पर शक है और उस आदमी की जांच करने और अगर उसी ने रिक्तगंथ लिया है तो उसके कब्जे से निकालने का काम जैसा अच्छा तुम कर सकती हो वैसा कोई और नहीं कर सकता क्योंकि तुम उसके भेदों से अच्छी तरह वाकिफ हो!

बेगम : तो जल्दी बताओ कि वह कौन आदमी है?

जैपाल० : (बेगम के कान की तरफ झुककर बहुत धीरे से) दारोगा साहब को पता लगा है कि यह काम दलीपशाह का है और गुलाबसिंह ने इस काम में उसकी मदद की है।

बेगम : (चौंककर) दलीपशाह का यह काम है और गुलाबसिंह उसका साथी है! कौन गुलाबसिंह?

जैपाल० : वही भानुमति वाला।

बेगम : मगर वह तो मर गया! मैंने तो सुना था कि भूतनाथ से उसका झगड़ा हो गया और उसी के हाथों उसकी जान गई।

जैपाल० : हाँ, सुनने में तो ऐसा ही आया था मगर वास्तव में वह मरा नहीं और अभी तक जीता-जागता मौजूद है। इसका पता दारोगा साहब को बहुत पक्की तरह से लग चुका है।

बेगम इस बात को सुन किसी चिन्ता में पड़ गई और सिर झुकाकर कुछ देर तक न-जाने क्या सोचती रही। बड़ी देर के बाद एक लम्बी सांस लेकर उसने सिर उठाया और बोली, ‘‘बड़ा मुश्किल काम दारोगा साहब मुझ पर डाल रहे हैं।

इसमें शक नहीं कि किसी जमाने में इन दोनों ही आदमियों से मेरा गहरा ताल्लुक था पर वह कैसे टूट गया और फिर कैसी गहरी दुश्मनी मुझमें और दलीपशाह में हो गई इसको दारोगा साहब बखूबी जानते होंगे, वे ही नहीं, तुम भी जानते ही हो।

जैपाल० : हाँ, मैं जानता हूँ और दारोगा साहब से भी यह बात छिपी नहीं है, मगर इस वक्त मौका ही ऐसा पड़ा है कि सिवाय तुम्हारे और किसी के सुपुर्द यह काम किया नहीं जा सकता।

बेगम : (कुछ चिन्ता के साथ) क्या मनोरमा या नागर इस काम को....?

जैपाल० : वे इस काम को खूबसूरती के साथ नहीं कर सकतीं जैसाकि तुम कर सकती हो और यह भी बात है कि वे दोनों अब जमानिया से हट नहीं सकतीं?

बेगम : सो क्यों?

जैपाल० : क्या तुम्हें मालूम नहीं कि राजा गोपालसिंह की शादी की सब बातें पक्की हो गई हैं और बहुत जल्दी ही वह काम हो जाना चाहता है!

बेगम० : मुझे मालूम है, मगर इससे क्या?

जैपाल० : इससे क्या? आज तुम्हारी अक्ल को क्या हो गया है? गोपालसिंह की शादी के बारे में दारोगा साहब के क्या-क्या ख्यालात हैं और वे उसके लिए हेलासिंह से किस तरह की बातें तय कर चुके हैं यह सब क्या तुम भूल गईं?

बेगम : भूली बिल्कुल नहीं, मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि दारोगा साहब चाहते थे कि उनके दोस्त हेलासिंह की लड़की मुन्दर बलभद्रसिंह की लड़की लक्ष्मीदेवी की जगह राजरानी बना दी जाए, मगर अब जबकि वह मुन्दर ही नहीं रही, जबकि लोहगढ़ी के साथ वह भी उड़ गई और केवल वही क्यों, उसके साथ-साथ मेरी प्यारी नन्हों और गौहर भी इस दुनिया से उठ गई, तो फिर अब उस कार्रवाई का जिक्र ही क्या उठ सकता है?

नन्हों का जिक्र करते हुए बेगम का गला भर आया और उसकी आँखें डबडबा आई मगर जैपाल ने उसे अपनी तरफ खींच रूमाल से उसके आंसू पोंछें और दिलासा देते हुए कहा, ‘‘ठीक है, मगर तुम यह भी तो समझ सकती हो कि दारोगा साहब अपनी धुन के कितने पक्के आदमी हैं और गोपालसिंह के राजमहल में अपनी कस के किसी को बैठाने का कितना पक्का निश्चय किया हुआ है।

मुन्दर की मौत से उनके काम को जबरदस्त धक्का लगा मगर वे अपने विचार से एक पल के लिए भी नहीं टले। अब उन्होंने यह निश्चय किया है कि मुन्दर की जगह कोई और राजरानी बनाई जाए और इस काम के लिए जल्दी ही वे किसी दूसरे को चुन लेना चाहते हैं।

बेगम : (चौंककर) हैं, यह तुम क्या कह रहे हो?

जैपाल० : मैं बहुत ठीक कह रहा हूँ, दारोगा साहब अब इसी फिक्र में पड़े हुए हैं कि वे मुझे भी एक पल के लिए अपनी निगाहों से ओट होने दिया नहीं चाहते, मगर तुम्हें सब मामला समझाकर इस काम में लगा देना जरूरी था इसीलिए मुझे भेजा है। अब तुमको इस बारे में कुछ समझना हो समझ लो और मुझे रुखसत दो ताकि मैं मारामार पुन: जमानिया लौट जाऊं। शादी का दिन बहुत नजदीक आ गया और वहाँ हजार तरह के तरद्दुद हैं।

बेगम जैपाल की बात सुन किसी तरह के गौर में पड़ गई थी। अब बोली, ‘‘मैं तो सब तरह से तैयार हूँ, तुम बताओ कि दारोगा साहब ने इसके लिए क्या सोचा है और मुझे किस तरह की कार्रवाई करनी चाहिए? मगर एक बात तो बताओ, मुन्दर और लक्ष्मीदेवी की जगह कोई और औरत भला कैसे बैठाई जा सकती है? इस काम में बहुत ही बड़ी....’’

जैपाल० : दारोगा साहब की सूझ कितनी तेज है इसको तो तुम बखूबी जानती हो, मगर इन बातों के कहने का वक्त मौका....(कुछ रुक और सोच कर) अच्छा। सुनो मैं तुम्हें संक्षेप में बता ही दूं कि दारोगा साहब ने क्या सोचा है।

जैपाल और बेगम में बहुत धीरे-धीरे बातें होने लगीं।

रात करीब-करीब बीत चुकी थी और पूरब की तरफ का आसमान अपनी कालिमा को खो बैठा था जब जैपाल और बेगम की बातें समाप्त हुईं और दोनों एक साथ ही उस मकान के बाहर हुए। गलियों में से ही घूमते-फिरते ये लोग शहर के बाहर निकल आए जहाँ एक खास जगह पर बेगम के कई घोड़े बराबर मौजूद रहा करते थे। इनमें से दो तेज घोड़े कसवाए गये और उनकी पीठ पर सवार हो ये दोनों किसी तरफ को रवाना हो गए।

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