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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

।। उन्नीसवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

भूतनाथ की बदौलत श्यामा बड़े ठाट-बाट के साथ अपनी जिन्दगी बिता रही है। अवश्य ही उसके आलीशान मकान से भूतनाथ को काफी दौलत मिली है पर उसने अपनी तरफ से स्वयं भी वहाँ कई तरह की तरक्की कर डाली है, जिनमें से एक यह है कि उस (श्यामा के) मकान के बगल में एक खंडहर को खरीदकर उसके मकान के साथ मिला उसमें एक खुशनुमा बाग बना डाला है जिससे उस आलीशान मकान की और भी जी़नत बढ़ गई है। श्यामा के शौक की बदौलत यह बाग देखते-देखते बन-संवरकर बड़ा ही सुन्दर हो गया है और शौकीनों की तबीयत को खुश करने के लिए अब इसमें सब तरह का सामान मौजूद है।

शाम का वक्त है। अपने इसी नये बाग में श्यामा रविशों पर टहल रही है। शाम की गुदगुदी पैदा करने वाली ठण्डी हवा खुशबूदार फूलों की महक से मतवाली हो उसकी रेशमी साड़ी के बारीक आंचल के साथ किलोल कर रही है मगर न-जाने क्यों इस समय श्यामा का दिल उस तरफ नहीं है।उसकी स्वाभाविक मस्ती उससे कोसों दूर है और उसके चाल की ठुमुक उसकी कटीली आंखों की मचलती हुई चितवनों के साथ कहीं दूर निकल गई है। न-जाने किस सोच में डूबी हुई वह उदासी के साथ सिर नीचा किए इधर से उधर टहल रही है और केवल कभी-कभी उसके सिर उठाकर फाटक की तरफ देखने से ही इस बात का पता लगता है कि वह किसी आने वाले की राह देख रही है, नहीं तो और कोई भी बात इस बात को छिपाने में समर्थ नहीं है कि वह आज बहुत ही सुस्त और उदास हो रही है।

फाटक खुलने की आवाज श्यामा के कानों में पड़ी और साथ ही उसने चौंककर देखा। एक रथ, जिसमें मजबूत बैलों की जोड़ी जोती हुई थी और जिसके ऊपर पर्दा रहने से प्रकट होता था कि कोई जनानी सवारी इसके अन्दर है, बाग में आया और साथ ही पर्दा हटाकर एक औरत रथ के नीचे उतरी। पहली ही निगाह में श्यामा ने पहचान लिया कि यह भूतनाथ की स्त्री रामदेई है और पहचानते ही वह उसकी तरफ लपकी। रामदेई भी उसे देखते ही उसकी तरफ बढ़ी और दोनों एक-दूसरे के गले से चिमट गईं। बहलवान रथ को बढ़ाकर अस्तबल की तरफ ले गया और श्यामा का इशारा पा दो-एक नौकर-चाकर जो आस-पास में मौजूद थे, दूर हट गए जिससे वहाँ एकदम निराला हो गया।

दूर इसी बीच न-जाने क्यों रामदेई की आंखें डबडबा आईं और श्यामा की आंख में भी जल भर आया। बहुत देर तक ये दोनों एक-दूसरे से चिमटी रहीं और आखिर मुश्किल से अलग होकर रामदेई ने कहा, ‘‘बहिन, मैं तो उजड़ गई।’’ श्यामा ने प्यार से उसके आंसू पोंछे मगर साथ ही अपनी आँखों से बूंदें टपकाते हुए कहा, ‘‘बेशक! हम दोनों की सब मेहनत व्यर्थ हो गई और कम-से-कम मेरे वास्ते तो सदा के लिए दुनिया का एक चटपटा मजा जाता रहा!!’’

रामदेई ने कहा, ‘‘यही बात है। हम लोग भले ही भूतनाथ से दुश्मनी करती रहें या उसको नाच नचाती रहें, मगर इसमें कोई शक नहीं कि वह आदमी मर्दाना और परले सिरे का बहादुर था। बहिन, मैं सच कहती हूँ, उसके साथ दुश्मनी करती हुई भी मैं उसको प्यार करती थी!!’’

श्यामा : वही हाल मेरा भी है। यद्यपि दारोगा साहब के हुक्म से मैं उसे बड़ा गहरा धोखा देने का बांधनू बांध रही थी मगर जब यकायक यह खबर सुनी कि लोहगढ़ी उड़ गई और उसके साथ-साथ भूतनाथ भी जल मरा तो मेरा कलेजा बैठ गया। उस समय से अभी तक लाख दिल को समझाती और दारोगा साहब की मुहब्बत का भरोसा दिलाती हूँ मगर यह कम्बख्त मानता ही नहीं। भूतनाथ ऐसा दुश्मन था कि उसकी दुश्मनी भी कलेजे को अपनी तरफ खींचती थी।

राम : मगर यह तो कहो कि आखिर हुआ क्या? भूतनाथ ने क्या कर दिया कि लोहगढ़ी की समूची इमारत ही नष्ट नहीं हो गई बल्कि साथ-साथ उसको खुद भी जान से हाथ धोना पड़ा? तुम्हारे पुर्जे से इस बात का कोई पता न लगा और मैं उसको पढ़ते ही घबराई हुई दौड़ी चली आई।

श्यामा : मैं सब हाल तुमसे कहती हूँ, मगर यहाँ खड़े-खड़े बात करने की बनिस्बत बेहतर होगा कि हम लोग कहीं बैठ जायें।

थोड़ी ही दूर पर एक लताकुंज था जिसके अन्दर बैठने की मुनासिब जगह भी बनी हुई थी। दोनों औरतें वहीं चली गईं और एक तरफ बैठ बातें करने लगीं। श्यामा ने कहा—

श्यामा : बहिन नागर सुन, दारोगा साहब के आदमी ने जो कुछ हाल मुझसे कहा सो मैं तुझसे कहती हूँ। बात यह है कि नन्हों ने रोहतासगढ़ के राजा दिग्विजयसिंह से वादा कर दिया था कि जैसे बनेगा वैसे भूतनाथ के कब्जे से लोहगढ़ी की ताली निकालकर उसे देगी। भूतनाथ को कब्जे में करने के लिए उसने गौहर से दोस्ती पैदा की और दोनों ने मिलकर यह मनसूबा बांधा कि भूतनाथ के कई पुराने पापों का भेद खोल देने की धमकी उसे दें और उससे लोहगढ़ी की ताली ले लें। गौहर से नन्हों को यह पता लगा कि उसका पुराना प्रेमी कामेश्वर मरा नहीं, बल्कि राजा शिवदत्त की कैद में पड़ा हुआ है। उसको कैद से छुड़ा गौहर ने बेगम के मकान पर भिजवा दिया मगर उसी रात भूतनाथ के आदमी बेगम के मकान में घुसे और उस कैदी अर्थात् कामेश्वर को छुड़ा ले गये, मगर उसकी किस्मत खराब थी और वह कुछ ही समय बाद बेगम और भूतनाथ के आदमियों की लड़ाई में मारा गया। इस बात पर नन्हों भूतनाथ से और भी जल उठी और उसे एकदम तहस-नहस करने की कसम खा बैठी। उसने रोहतासगढ़ से कई ऐयार बुलाए और भूतनाथ के पापों के बारे में जो कुछ वह जानती थी उसके तरह-तरह के सबूत इकट्ठे करवाए मगर न-जाने किस तरह भूतनाथ को इस बात का पता लग गया। ऐन मौके पर वह लोहगढ़ी में पहुंचा जहाँ सब लोग इकट्ठे होकर सलाह-मशविरा कर रहे थे और उसी जगह उन लोगों को मारने के लिए उसने कोई कार्रवाई की जिससे न-केवल समूची लोहगढ़ी ही तहस-नहस हो गई बल्कि खुद वह भी उसके अन्दर ही जल मरा। कई लाशें उस इमारत के साफ होने पर अन्दर से निकलीं जिनमें से एक उसकी भी थी ऐसा गुमान किया जाता है।

राम : मगर बहिन मनोरमा, तुमने यह सब हाल बहुत संक्षेप में कहा। जरा खुलासा कहो तो कुछ मेरी समझ में आये। लोहगढ़ी कहाँ है? कामेश्वर कौन था? नन्हों से उसका क्या सम्बन्ध था? भूतनाथ का कौन-सा पिछला पाप नन्हों और गौहर प्रकट करना चाहती थीं। यह सब कुछ जरा खुलासा कहो तो मेरी समझ में आवे।

श्यामा : अच्छा मैं खुलासा कहती हूँ तू सुन। मैंने तो इसलिए संक्षेप में कहा कि शायद तुझे भूतनाथ की मौत का हाल सुनने से तकलीफ हो, क्योंकि यह मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि उसके साथ दुश्मनी करती हुई भी तू उससे मुहब्बत करती थी। इन दोनों—श्यामा बनी हुई मनोरमा, और रामदेई बनी हुई नागर में—बहुत देर तक न-जाने क्या बातें होती रहीं, यहाँ तक कि दिन बिल्कुल डूब गया और संध्या का अंधकार घिरने लगा। फिर भी इनकी बातें न-जाने कब तक चलती रहतीं अगर एक लौंडी ने सामने पहुंचकर इन दोनों के एकान्त में बाधा न पहुंचाई होती। मनोरमा ने कुछ कुरुखी के साथ उसकी तरफ देखा और पूछा, ‘‘क्या तुम लोग थोड़ी देर के लिए भी मुझे निश्चिन्त छोड़ नहीं सकतीं?’’

लौंडी ने डरकर कांपते हुए कहा, ‘‘महारानी, एक आदमी अभी-अभी दौड़ता-दौड़ता आया है और आपसे मिलना चाहता है। हम लोगों के बहुत रोकने पर भी नहीं मानता और यही कहता है कि चाहे जो भी हो इसी दम उनसे मुलाकात करूंगा, मुलाकात न होगी तो भारी आफत आ जायेगी बल्कि जान पर भी आ बने तो ताज्जुब नहीं। उसकी बातें सुन लाचार आपको खबर देनी पड़ी!’’

मनोरमा ने ताज्जुब से पूछा, ‘‘वह कौन आदमी है? अपना क्या नाम उसने बताया?’’

लौंडी ने जवाब दिया, ‘‘जी नाम तो कुछ भी नहीं बताया मगर कहता था कि नाम जानने का अगर ऐसा ही शौक हो तो कह देना पहाड़ी भेड़िया आया है!’’

‘पहाड़ी भेड़िया’ इस नाम में न-जाने क्या भेद था कि सुनते ही मनोरमा कांप गई और उसका चेहरा पीला पड़ गया, मगर तुरन्त ही उसने अपने को सम्हाला और लौंडी से बोली, ‘‘उसको बहुत जल्दी इज्जत के साथ मेरे पास ला और किसी से कह एक कुर्सी यहाँ पर रख जाये!’’ लौंडी ‘बहुत खूब’ कहकर चली गई और जरा ही देर बाद एक कुर्सी वहाँ पर लाकर रख दी गई। नागर ने मनोरमा से पूछा, ‘‘यह कौन आदमी है और तुम इसका नाम सुनकर चौंक क्यों गईं!’’

मनोरमा ने जवाब दिया, ‘‘यह बड़ा भयानक आदमी है। इसका पूरा-पूरा हाल सिर्फ दारोगा साहब को मालूम है वे इससे बहुत ही घबराते हैं। भूतनाथ से इसका गहरा सम्बन्ध है और यह उससे बड़ी दुश्मनी रखता है मगर इस बारे में....लो वह आ पहुंचा!’’

नागर ने देखा कि लम्बे कद का एक दुबला-पतला आदमी जिसके बदन पर कफनी के तरह का लाल रंग का एक बहुत ही लम्बा कुरता पड़ा हुआ था और हाथ में एक टेढ़ी-मेढ़ी काले रंग की लाठी थी, एक पहरेदार के साथ उस तरफ आ रहा है। उसके सिर पर बहुत बड़ी-बड़ी भूरे रंग की जटा थी और उसने अपने चेहरे इतनी ज्यादा राख मल रखी थी कि शक्ल का ठीक-ठीक पता ही नहीं लग सकता था। जिस समय मस्तानी चाल से झूमता हुआ वह उस तरफ आ रहा था उसकी आंखें इस तरह बंद थीं मानो नशे की झोंक में हो। एक तो शाम के वक्त का अंधेरा, दूसरे फासला और तीसरे चेहरे पर राख मली रहने के कारण नागर बहुत कोशिश करने पर भी उसकी ठीक-ठीक सूरत देख न सकी मगर इतना जान गई कि यह उसके देखे-भाले आदमियों में से कोई नहीं है।

देखते-देखते वह विचित्र आदमी पास आकर इन लोगों से कुछ दूर ही रुक गया। मनोरमा ने उठकर इज्जत के साथ कहा, ‘‘आइये विराजिये!’’ मगर उसने सिर हिलाकर कहा, ‘‘बस-बस-बस, खतरे को ज्यादा पास आने देना उचित नहीं! दूर ही से जो कुछ कहता हूँ उसे सुन लो और फिर जो जी में आवे सो करो!’’

मनोरमा बोली, ‘‘बहुत अच्छा, जैसी आपकी मर्जी! कहिए क्या कहते हैं!’’ मगर यह बात खत्म होने के पहले ही वह बोल उठा, ‘‘तो क्या तुम लोग चाहते हो कि तुम्हारे नौकर-चाकरों के सामने ही सब हाल कह डालूं? खैर मेरा क्या, यह तो तुम्हारे खयाल करने की बात है! लो सुनो कि तुम्हारा आशिक भू....’’

उसको आगे कहने से रोक मनोरमा ने पहरेदार को वहाँ से चले जाने का इशारा किया और जब वह दूर निकल गये तो बोली, ‘‘बेशक मेरी गलती थी जो मैं सभी के सामने आपसे कुछ पूछना चाहती थी! अब कहिए क्या आज्ञा है?’’

वह विचित्र आदमी बोला, ‘‘आज्ञा क्या है! बस यही कहने आया हूँ कि तुम्हारा काम बन गया और अब तुम लोगों को खुशी का जलसा करना चाहिए! जिसके लिए इतने दिनों से परेशान थीं वह काम होना ही चाहता है!!’’

मनोरमा : (ताज्जुब से) सो क्या?

विचित्र आदमी : (गौर से नागर की तरफ देखकर) तुम्हारे साथ यह कौन औरत है? जब इसको तुमने नहीं हटाया तो जरूर यह कोई ऐसी होगी जो तुम्हारे भेदों में शामिल है और अगर मैं गलती नहीं करता तो जरूर यह नागर होगी!

मनोरमा : जी हाँ, यह मेरी प्यारी सखी नागर ही है और इससे मेरा किसी तरह का पर्दा नहीं है। आपको अगर मुझसे कुछ पूछना है तो बेधड़क इसके सामने कह सकते हो मगर मैं फिर भी आपसे विनती करूंगी कि आप इस जगह आकर विराज जायें और शान्ति के साथ जो कुछ कहना हो सो कहें या नहीं तो आज्ञा करें कि मैं ही आपके पास आ जाऊं....

वि० आ० : (हाथ आगे बढ़ाकर) नहीं-नहीं! न तो मैं ही नजदीक आना चाहता हूँ और न तुमको ही पास बुलाना चाहूँगा। उन नागिनों से दूर ही रहना अच्छा जिनको देखने से जहर चढ़ता है! मुझे जो कुछ कहना है उसको यहीं से कहूँगा, तुम्हें सुनना हो तो सुनो नहीं तो अपने रास्ते लगता हूँ, यह लो मैं चला।

विचित्र आदमी पीछे को मुड़ा मगर मनोरमा ने रोककर कहा, ‘‘अच्छा-अच्छा जो कुछ आपको कहना हो वहीं से कहिए, मैंने तो सिर्फ इसलिए कहा था कि जोर से बातें करने से शायद कोई गैर आदमी सुन ले तो मुश्किल हो जायेगी! अगर आप....’’

वि० आ० : तो मुझे कहना ही क्या है, सिर्फ इतना ही सुन लो कि हवा चल पड़ी और बादल फट गया, काई वाले तालाब में केला पड़ गया, धतूरे के बीज लग गये और कनेर के फूल को गन्धक का धुआं मिल गया। बस इतना ही तो मुझे कहना था, सो मैंने कह दिया और अब यह लो चला।

मनोरमा : (नम्रता से) बेशक आप तो अपनी बात कह गए मगर मैं निर्बोध कुछ भी समझ न सकी! कृपा कर जरा साफ-साफ समझा दीजिए तो जान जाऊं कि आपने क्या कहा?

वि० आ० : राम-राम, कैसे मूर्खों से पाला पड़ा है! इसी से बड़े लोग कहते हैं कि बेवकूफ की संगत नहीं अच्छी! खैर फिर से साफ-साफ कह देता हूँ। जिस चीज की बरसों से तलाश थी वह मिल गई। गदहे को कूड़े का ढेर मिल गया, और सूअर गड़हिया पा गया। अब तुम लोगों की पौ बारह है, मौज करो, तुम्हारी मनशा पूरी हुई!!

मनोरमा : मेरी कौन-सी मनशा पूरी हुई!

वि० आ० : अजी वही जिसके लिए तुमने श्यामा का और बीबी नागर ने रामदेई का स्वाँग लिया हुआ है!

मनोरमा : मगर हम लोगों की मेहनत तो मिट्टी में मिल गई। आपको शायद नहीं मालूम है कि भूतनाथ....

वि० आ० : मालूम है, तुम लोगों से हजार गुना ज्यादा मालूम है! भूतनाथ लोहगढ़ी में मरा नहीं बल्कि लोगों की आंखों में धूल झोंककर साफ निकल गया और अब लोहगढ़ी की तालियां पाकर हंसी-खुशी उसके खजाने को हथियाने की कोशिश कर रहा है। बस लो अब तो मैंने सभी कुछ साफ-साफ यानी बेवकूफों की भाषा में कह सुनाया, अब तो जाऊं न?

मनोरमा : (हाथ जोड़कर) कृपा कर जरा और ठहर जाइये तथा दो-एक बातें और बताते जाइये।

वि० आ० : (घूमता-घूमता रुककर) खैर पूछ लो कि क्या पूछती हो, मगर इतना समझ लो कि मैं आधे पल से ज्यादा नहीं रुक सकता क्योंकि भूतनाथ की सवारी पहर-भर के भीतर ही पहुंचना चाहती है और उसके आने के बाद तुम लोग सड़े हुए मांस को खाकर खुश हुए भए गिद्ध की तरह डैने फड़फड़ाकर यहाँ से उड़ जाना चाहोगी। नहीं-नहीं, अब मैं यहाँ बिल्कुल नहीं ठहरूंगा, न जाने क्या से क्या हो जाये, जो कुछ मैंने कहा उसी से जो मतलब निकाल सको निकाल लो, मैं चला।

वह आदमी पुनः घूमा मगर मनोरमा ने लपककर उसका पैर पकड़ लिया और बोली, ‘‘नहीं-नहीं, मेरी एक बात का जवाब देकर ही तब आपको जाना होगा!’’ लाचार वह रुक गया और बोला, ‘‘खैर तो तब सिर्फ एक बात और पूछ लो, मगर याद रक्खो कि उससे ज्यादा मैं और कुछ न बताऊंगा!’’ मनोरमा बोली, ‘‘बहुत अच्छा, मैं सिर्फ एक ही बात पूछूंगी! आप सिर्फ यह बता दीजिए कि क्या भूतनाथ जीता-जागता है?’’

विचित्र आदमी ने मुंह बनाकर कहा, ‘‘कह तो दिया कि हाँ-हाँ-हाँ, अब कै दफे कहूँ? तुम लोगों की भी क्या अक्ल है? इसी अक्ल को ले के भूतनाथ का मुकाबला करने चली हो! झाड़ू लेकर पहाड़ बुहारना चाहती हो और सुई से शेर मारना चाहती हो! लो सुनो और फिर से सुन लो कि भूतनाथ बच गया और राजा बीरेन्द्रसिंह के कब्जे से ‘रिक्तगंथ’ लेकर अब पहुंचा ही चाहता है।’’

इतना कहते-कहते वह आदमी पलट पड़ा और तब मनोरमा के ‘‘ठहरिए, ठहरिए, जरा-सा सुनते जाइए’’ की जरा भी परवाह न कर सीधा ही चला गया। फाटक वालों को भी उसे रोकने की हिम्मत न पड़ी और वह बाहर निकल कर न-जाने किधर चला गया। मगर उसकी जुबानी जो बात सुनने में आई थी उसने मनोरमा और नागर दोनों को ही हद से ज्यादा ताज्जुब में डाल दिया था। ये दोनों ही सकते की-सी हालत में खड़ी एक-दूसरे की तरफ देख रही थीं।

आखिर कुछ देर के बाद नागर ने कहा, ‘‘सखी, यह क्या कह गया? क्या इसकी बात सही हो सकती है?’’ मनोरमा ने जवाब दिया, ‘‘इसकी कही हुई कोई खबर आज तक गलत न निकली! यही तो सबब है कि दारोगा साहब तक इसकी बेहूदगियों पर कोई ध्यान न देते हुए इसके कहने में चला करते हैं और साथ ही इससे डरते भी हैं क्योंकि जिस बात का पता उनके जासूस और ऐयार लाख सिर मारने पर भी नहीं लगा पाते उसका सच्चा-सच्चा हाल यह जान जाता है और होने वाली घटनाओं की खबर पहरों और महीनों पहले दे देता है। तुम इसकी दी हुई इस खबर की सच्चाई में जरा भी सन्देह न समझो और अब आगे क्या करना है इसे पूरी तरह से सोच डालो।’’

नागर : सोचना क्या है? अगर सचमुच भूतनाथ जीता-जागता है, रिक्तगन्थ उसके हाथ लग गया है, और वह यहाँ आ रहा है, तो बस जैसे हो वैसे उसके कब्जे से वह किताब निकाल लेनी पड़ेगी, देर होने से न-जाने क्या हो जाये, वह किताब को कहीं छिपा दे या खुद ही तिलिस्म तोड़....

मनो० : बेशक यही बात है। तो तुम अब तुरन्त अपने मकान पर चली जाओ और इधर मैं भी यहाँ का सब बन्दोबस्त करे डालती हूँ, क्या जाने वह कहाँ पहुंचे!

नागर : बेशक बेशक, तो बस मैं जाती हूँ। अगर वह उस किताब को लेकर मेरे पास आया तो जिस तरह भी होगा उससे रिक्तगन्थ लेने की कोशिश करूंगी, मगर जरा मुश्किल यही दिखाई पड़ती है कि अगर उसने वह किताब मुझे देना मंजूर न किया तो....

मनो० : जैसे हो वैसे रिक्तगन्थ तो उससे लेना ही होगा, राजी से हो या जबर्दस्ती से हो, उसे बेहोश करके हो या जान से मारकर ही हो, वह काम तो पूरा उतारना ही पड़ेगा जिसके लिए बरसों से हम लोग कोशिश कर रहे हैं? क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि रिक्तगन्थ को महाराज बीरेन्द्रसिंह के काबू से निकालने की कोशिश में दारोगा साहब के ग्यारह होशियार ऐयार और जासूस नौगढ़ का जेलखाना आबाद कर रहे हैं और न-जाने कितने ही जान से हाथ धो चुके। यह भूतनाथ का ही कलेजा है कि वह उनके यहाँ से रिक्तगन्थ ले के निकल आया और फिर भी जीता बच गया!!

नागर : अब क्या जाने बहिन, यह खबर सच भी निकलती है या नहीं!!

मनो० : इस खबर की सचाई में तुम तनिक भी सन्देह न करो और यह बताओ कि क्या तुमको किसी तरह की मदद की जरूरत है या तुम सब काम बना लोगी?

नागर : मुझे कुछ होशियार आदमियों की जरूरत पड़ सकती है। जैसा कि मैंने कहा—अगर उसने सहज में वह किताब मुझे देना मंजूर न किया....

मनो० : तो जबर्दस्ती वह किताब उससे लेनी होगी—ठीक है, और इसके लिए मैं एक बहुत ही होशियार आदमी तुमको देती हूँ।

इतना कह मनोरमा ने जोर से ताली बजाई जिसके साथ ही एक लौंडी दौड़ती हुई उस जगह आ मौजूद हुई। मनोरमा ने उसके कान में कुछ कहा और वह फिर पिछले पांव उसी तरह दौड़ती हुई चली गई। मनोरमा नागर की तरफ देखकर बोली, ‘‘मैं अपने बहुत ही विश्वासी ऐयार साधोराम को तुम्हें देती हूँ जिसको तुम बखूबी जानती हो। वह सब काम बहुत अच्छी तरह कर सकेगा और उसके साथ कई मजबूत दिलावर आदमी भी रहेंगे जो तुम्हारी मदद करेंगे। बस अब तुम चल पड़ो, ज्यादा देरी करना खतरनाक होगा!!’’

दोनों औरतें उठ खड़ी हुईं।

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