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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


रात लगभग पहर भर के जा चुकी होगी। जमानिया में दामोदरसिंह के आलीशान मकान के एक कमरे में प्रभाकरसिंह और इन्दुमति फर्श पर बैठे हुए धीरे-धीरे कुछ बातें कर रहे हैं।

इन्दु० : देखिए किस्मत ने कैसा पलटा खाया है! चारों तरफ मुसीबत ही मुसीबत नजर आती है। दयाराम, जमना और सरस्वती लोहगढ़ी में जा फँसे हैं, दामोदरसिंहजी दारोगा की बदौलत चक्रव्यूह का कष्ट भोग रहे हैं जहाँ से उनका निकलना असम्भव है, बेचारी मालती न जाने किस जगह जा फँसी है कि कई रोज से उसका कुछ भी पता नहीं लग रहा है, उधर सर्यू चाची और इन्दिरा एक बार मिल कर भी पुन: गायब हो गई हैं, इन्द्रदेव पर अलग मुसीबत आ पड़ी है और राजा गोपालसिंह को अपनी ही जान के लाले पड़ गये हैं। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या होने वाला है!

प्रभा० : कुछ पूछो मत, न जाने परमात्मा क्या करना चाहते हैं!

इन्दु० : सो ठीक पर आखिर दु:खों का कुछ अन्त भी तो हो, ऐसी परीक्षा किस काम की जो परीक्षार्थी की जान ही लेकर प्रभा० : नहीं यह बात भी नहीं है, हद हर एक चीज की होती है। परमात्मा भी मनुष्य को उसकी हद के बाहर कष्ट मंी पड़ने नहीं देता, अगर वह ऐसा करे तो उसका दीनबन्धु नाम ही व्यर्थ हो जाय।

इन्दु० : मेरी समझ में तो उसका यह नाम व्यर्थ ही लोगों ने रख दिया है! परमात्मा न तो किसी का शत्रु है न मित्र, वह तो एक कठोर शासक और निष्पक्ष न्यायी है जो हर एक को उसके कर्मों का फल देने के सिवाय और कुछ करता नहीं या कर सकता नहीं! जब हम साफ देखते हैं कि संसार में भले आदमी तो लगातार दु:ख पर दु:ख उठा रहे हैं और दुष्ट तथा पापी आनन्द भोग रहे हैं तो सिवाय इसके और क्या कह सकते हैं कि दोनों अपनी-अपनी करनी अथवा भाग्य का फल भोग रहे हैं।

भले की भलाई उसका कुछ उपकार नहीं करती और बुरे की बुराई उसका कुछ बिगाड़ती नहीं, तब ऐसी अवस्था में सिवाय इसके और क्या कहा जाय कि परमात्मा केवल करनी का फल देना जानता है और कुछ नहीं।

प्रभा० : आज तुम्हारी बातें कुछ अजब बेसिर-पैर की हो रही हैं। अगर मान लिया जाय कि मनुष्य केवल अपनी करनी का फल भोगता है तो अवश्य ही इस जन्म के दु:ख और सुख उसके पिछले किसी जन्म के पुण्य-पाप के कारण ही आते होंगे?

इन्दु : अवश्य।

प्रभा० : ऐसी हालत में इस जन्म की बुराई और भलाई अगले किसी जन्म के सुख और दु:ख का कारण बनेगी।

इन्दु० : हाँ जरूर बनेगी।

प्रभा० : तो वैसी अवस्था में तो यह जीवन-मरण का सिलसिला कभी मिटेगा ही नहीं और न सुख-दु:ख का रगड़ा ही दूर होगा। फिर वैसा मान लेने से परमात्मा की आवश्यकता भी कुछ रह नहीं जाती। जब सुख-दु:ख हमारी ही करनी का फल है तो उसके कर्ताधर्ता भी हम ही हैं, परमात्मा को फिर क्यों दोष दिया जाय?

इन्दु० : परमात्मा को न कहें तो फिर आखिर किसे कहा जाय?

प्रभा० : यह भी ठीक रही! किसी के सिर दोष मढ़ने से मतलब, भेड़ ने पानी नहीं गन्दा किया तो उसके बाप ने किया होगा! पर वास्तव में बात ऐसी नहीं है।

अगर तुम कर्म को सर्वस्व मानती हो तो परमात्मा को निराकार और निर्लेप मानना पड़ेगा और अगर परमात्मा को ही सब कुछ करने वाला मानती हो तो अपने कर्म भी उसे ही सौंपने पड़ेंगे, अपना सुख-दु:ख, हानि-लाभ, जीवन मरण सब उस एक ईश्वर के हाथ में सौंप देने पर कह सकती हो कि जो कुछ करता है परमेश्वर करता है, मैं नहीं।

इन्दु० : अगर आपकी बात मैं मान लूँ तो क्या बुरा आदमी जो कुछ पाप करता है उसे परमात्मा ही उससे कराता है?

प्रभा० : यह उस मनुष्य की अवस्था पर निर्भर है। अगर वह अपने को कर्ता समझ कर ‘मैं’ को महत्त्व देता हुआ पाप कृत्य कर रहा है तो उन कर्मों का वही कर्ता है, और यदि वह अपने को केवल परब्रह्म के हाथ की कठपुतली समझता हुआ जैसा कुछ भला या बुरा उससे बन पड़ता है निर्लिप्त भाव से करता चला जाता है और उसके लिए न अफसोस ही करता है और न सुखी या दु:खी ही होता है तो अवश्य ही उसके फल का भागी भी वह नहीं होगा।

इन्दु० : वाह, यह तो आप खूब कहते हैं! पाप का भागी वह नहीं तो क्या दूसरा कोई होगा? और वह दूसरा भी क्या परमात्मा? परमात्मा जानबूझ कर किसी से पाप करावेगा ही क्यों?

प्रभा० : क्यों नहीं, क्या तुम समझती हो कि उसका खजाना ऐसा अपूर्ण है कि उस में केवल मीठा ही मीठा है नमक नहीं, मधु ही मधु है जहर नहीं, सोना ही सोना है लोहा नहीं, सुख ही सुख है दु:ख नहीं, पुण्य ही पुण्य है पाप नहीं! क्या वैद्य को अपने पास हड्डी जोड़ने की दवा रखनी पड़ती है, काटने का औजार नहीं?

इन्दु० : भला परमात्मा पाप, अत्याचार और दु:ख से अपना खजाना भर के उससे क्या काम लेता है?

प्रभा० : लोहे की तलवार का वार बचाते समय लोहे की ही ढाल सामने करनी पड़ती है। इसी तरह जगत के पाप दूर करने के लिए पाप ही सहायक होता है, दु:ख दूर करने के लिए दु:ख ही का आश्रय लेना पड़ता है। यद्यपि उसमें यह शक्ति है फिर भी परमात्मा इस धरती पर स्वयम् तो आता नहीं, उसे यहाँ ही के जीवों से यहाँ का सब काम कराना पड़ता है।

इन्दु० : तो आपका मतलब यह है कि इस जगह दारोगा, जैपाल, शिवदत्त आदि जो दुष्ट हम लोगों को कष्ट दे रहे हैं वे परमात्मा का ही कार्य सिद्ध कर रहे हैं?

प्रभा० : बेशक!

इन्दु० : सौ कैसे?

प्रभा० : दो तरह से।

इन्दु० : सो क्या-क्या?

प्रभा० : एक तो इन दुष्टों की बदौलत जमानिया, चुनार और आसपास की सभी जगहों के सब शैतान इकट्ठे हो गये कोई छिपा न रह गया, दूसरे आपस ही में एक-दूसरे से लड़-झगड़ कर ये अपनी शक्ति नष्ट कर रहे हैं और करेंगे। तुम देखती रहना, जल्द ही वह समय आने वाला है कि ये सब शैतान कुत्तों की मौत मारे जायेंगे और इनकी हालत पर मक्खियों को भी तरस आएगा।

इतने ही में कमरे के बाहर से आवाज आई, ‘‘बेशक!’’ और इन्द्रदेव ने अन्दर पैर रक्खा। इन्द्रदेव को देख इन्दु हट कर एक बगल हो गई और प्रभाकर सिंह ने कुछ सकुचा कर गर्दन नीचे कर ली। इन्द्रदेव ने यह सब देख कर कहा, ‘‘प्रभाकर, मैं कुछ देर से बाहर खड़ा तुम्हारी बातें सुन रहा था। तुम्हारे विचार बहुत गम्भीर हैं और तुम्हारी विचारशक्ति उत्तम, पर तुम एक बात की भूल कर रहे हो।

प्रभाकरसिंह ने सवाल की निगाह इन्द्रदेव पर डाली, इन्द्रदेव बोले, ‘‘तुमने जो यह कहा कि परमात्मा की आवश्यकता पड़ने पर किसी से पाप कराता है और किसी से पुण्य, सो यह बात सही नहीं। कर्म स्वयमेव न तो अच्छे होते हैं न बुरे, पापमय होते हैं न पुण्यमय, उनका प्रयोग, उनकी स्थिति, समय या मौका, उन्हें भला-बुरा, पापमय या पुण्यमय बना देता है। किसी का हाथ काट देना एक कर्म है। वैद्य किसी रोगी का हाथ काट दे तो वही अच्छा है, राजा किसी चोर का काट दे तो वही न्याय है, और वीर सम्मुख युद्ध में किसी शत्रु का हाथ काट दे तो वही कर्तव्य है, पर वही कर्म अगर कोई दुष्ट किसी भले आदमी के साथ अकारण ही करे तो अन्याय, अत्याचार, पाप, दुष्कृत्य या जो कुछ भी कहो, सो हो जाएगा। तब क्या यह कहना उचित है कि हाथ काट देना बड़ा खराब काम है?

‘‘फिर एक दूसरी बात और भी है।

मनुष्य को हाथ कमाने और मुँह खाने के लिए दिया गया है, पर कोई आदमी यह सोचकर जंगल में जा बैठे कि सब कुछ करने वाला तो परमेश्वर है, उसे अगर इच्छा होगी तो आप से आप मेरे मुँह में खाना पहुँचा देगा, तो क्या यह कहना ठीक होगा? क्या उस व्यक्ति ने अपने हाथ और शरीर से मेहनत न कर सब बोझ परमात्मा ही के ऊपर डाल उसी परमात्मा की दी हुई शक्ति का अपमान नहीं किया? परमात्मा को सब शक्ति है और संभव है कि उसे जंगल में बैठे-बैठे भोजन मिल जाय, पर फिर भी उसे स्वयं कमाना और खाना चाहिए था।’’

प्रभा० : बेशक।

इन्द्र० : इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर ने हमें जो शक्ति दी है उसका पूरा उपयोग करना और उससे काम लेना भी हमारा एक आवश्यक कर्तव्य है।

प्रभा० : जरूर।

इन्द्र० : परमात्मा की दी हुई एक शक्ति है बुद्धि, उससे पूरा काम लेना भी हमारा एक मुख्य कर्त्तव्य है। यदि हम सब कुछ ईश्वर ही पर छोड़ बैठें और बुद्धि का सहारा न लें तो यह केवल परमात्मा पर भार डालना ही नहीं वरन् उसका अपमान करना भी होगा।

प्रभा० : इसके क्या माने?

इन्द्र० : यही कि परमात्मा ने हमें बुद्धि इसीलिए दी है कि हम उससे पूरी तरह काम लें और अपना तथा दूसरों का हित करें। अगर आवश्यकता पड़े तो अपने शत्रुओं का सामना करने और उन्हें दूर करने में भी उसी बुद्धि से हमें काम लेना चाहिए न कि यह सोच चुप बैठे रहना कि परमात्मा आप ही दुष्टों को दण्ड देगा। परमात्मा तो करेगा ही, पर हमारा भी तो कुछ कर्तव्य है, हमारा भी तो कुछ अधिकार है, हमारा भी तो कुछ अंश है, अस्तु सब कुछ परमात्मा के भरोसे छोड़ रखना एक प्रकार की कायरता है जिसे मैं पसन्द नहीं करता और सच तो यह है कि ऐसा करने से दुनिया का काम भी नहीं चल सकता।

प्रभा० : जी हाँ, यह तो आपका कहना ठीक है।

इन्द्र० : तुम्हीं सोचो की अगर परमात्मा यह न चाहता कि हम बुद्धि से काम लें तो हमें बुद्धि देता ही क्यों? हमें आँखें देखने को मिली हैं, कान सुनने को मिले हैं, हाथ काम करने के लिए मिले हैं, तब क्या एक बुद्धि ही व्यर्थ मिली है? हमें तो यह जन्म ही कुछ करने को मिला है, चुपचाप परमात्मा पर भरोसा किए बैठे रहने को नहीं। मेरा मतलब यह नहीं कि उस पर भरोसा करना उचित नहीं, बल्कि यह है कि स्वयं भी कुछ करने का साहस रखना उचित है।

मुझे तो बड़ा ही आनन्द आता है यदि किसी शत्रु को अपनी चाल से मात कर सकता हूँ। यद्यपि मैं जानता हूँ कि वास्तव में सब का कर्ताधर्ता ईश्वर है पर उसने मुझे अपना जरिया बनाया केवल इतनी सी बात ही मुझे बहुत बड़ा सन्तोष देती है। (इन्दु की तरफ देख कर) तुमने कुछ कहना चाहा था पर चुप हो रहीं।

इन्द्र० : धृष्टता क्षमा हो तो कुछ कहूँ?

इन्द्र० : हाँ हाँ, खुशी से कहो, मैं खूब जानता हूँ कि तुम्हारी बात व्यर्थ कभी न होगी।

इन्दु० : अपने विचारों के कारण ही आपने अपने दुश्मन बहुत ज्यादा बना रक्खे हैं।

इन्द्र० : (हँस कर) सो कैसे?

इन्दु० : क्या ये दारोगा, जैपाल, हेलासिंह वगैरह आपके सामने एक पल भी ठहर सकते हैं! आपके बराबर तरह देते चले जाने से ही उनकी तरक्की हो रही है।

इन्द्र० : मैं यही देखना चाहता हूँ कि ये सब कहाँ तक करने की कुदरत रखते हैं, मैं अपनी और इनकी हिम्मतों का मुकाबिला किया चाहता हूँ।

प्रभा० : मगर ऐसा करके क्या आप साँपों से खेल नहीं रहे हैं! आप उन्हें पकड़ लेंगे तो उनका कुछ न बिगड़ेगा और अगर वे काट लेंगे तो काम तमाम कर देंगे।

इन्द्र० : (हँस कर) मुमकिन है, पर तुम देखोगे कि इस बार मैं इन साँपों के दाँत तोड़कर ही दम लूँगा, हाँ अगर तुम लोग...

प्रभा० : हम लोग पूरी तरह से आपके साथ तैयार हैं, आप जो भी हुक्म दीजिए उससे पीछे हटने वाले पर मैं लानत भेजता हूँ। सच पूछिए तो मेरा दिल भी कुछ आप ही के ऐसा है। अगर कोई दूसरा मेरे दुश्मन को जान से भी मार डाले तो मुझे प्रसन्नता न होगी पर अपने हाथ ये यदि मैं जरा-सा घायल भी कर सकूँगा तो मुझे अत्यन्त सन्तोष होगा।

इन्द्र० : (खुश होकर) बस ऐसी ही हिम्मत रखनी चाहिए, ऐसा ही दिल रखना चाहिए! खैर यह सब अब जाने दो, यह बेकारी के समय करने की बातें हैं।

प्रभा० : आज दिन भर आप बाहर ही रहे, क्या कुछ काम हुआ?

इन्द्र० : सिर्फ तीन बातों का पता लगा।

प्रभा० : क्या-क्या।

इन्द्र० : पहिली यह कि मेरी स्त्री दारोगा के कब्जे में है, दूसरी यह कि इन्दिरा भी वहीं कैद थी परन्तु भूतनाथ ने उसे छुड़ा कर बलभद्रसिंह के पास पहुँचा दिया गया, और तीसरी यह कि इस शहर के ये इतने आदमी उस कमेटी में शामिल हैं जिसने जमानिया में तहलका मचा रक्खा है।

इतना कह इन्द्रदेव ने एक लम्बा कागज प्रभाकरसिंह के सामने फेंक दिया जिसमें बहुत-से नाम लिखे हुए थे। प्रभाकरसिंह एक बार गौर के साथ शुरू से आखिरी तक उस कागज को पढ़ गये और तब ताज्जुब के साथ इन्द्रदेव का मुँह देखने लगे।

प्रभा० : मुझे स्वप्न में भी गुमान नहीं हो सकता था कि वे इतने नजदीकी और आपस के आदमी इस कमेटी में शामिल होंगे!

इन्द्र० : इसी से तो यह कमेटी इतनी मजबूत पड़ती थी और बराबर हमारा भण्डा फूटता था। जो हमारे विश्वासी थे और जिनसे हम लोग सलाह लेते थे वे ही उस कमेटी में जाकर हमारा भेद खोलते थे। अब सबसे पहिले इन आदमियों को रास्ते से दूर करूँगा तब कोई और काम देखा जायगा।

प्रभा० : जरूर ही इनके अलावे और भी लोग कमेटी में होंगे!

इन्द्र० : और नहीं तो क्या? फिर ये सब तो मामूली लोग हैं, मुख्य-मुख्य कार्यकर्ताओं का तो अभी पता ही नहीं लगा है, उनके लिए बहुत कोशिश दरकार होगी।

प्रभा० : बेशक, मगर इन आदमियों के ही जरिए उनका भी नाम मालूम हो जाना कुछ कठिन नहीं है। अच्छा चाचीजी (सर्यू) और इन्दिरा का पता कैसे लगा?

इन्द्र० : उनका हाल मेरे एक शागिर्द ने अभी मुझे बताया है। उसने भूतनाथ को इन्दिरा को लिए दारोगा के मकान के बाहर निकलते देखा इसी से उसे शक हुआ और ऐयारी करके उसने पता लगाया कि इन्दिरा की माँ दारोगा ही के कब्जे में है मगर कहाँ या किस हालत में है यह मालूम नहीं हो सका।

प्रभा० : खैर इसका पता लगाना कोई कठिन बात नहीं है, यदि आप आज्ञा दे तो मैं इस खोज में जाऊँ और चाचीजी को छुड़ाऊँ!

इन्द्र० : अगर मुझे यह डर न होता कि तुम्हारे दुश्मन तुम्हें अपने जाल में फँसा लेंगे तो मैं तुम्हें जाने की इजाजत देता पर।।।

प्रभा० : अभी आप ही ने उपदेश दिया है कि दुश्मनों के मुकाबिले से कभी डरना न चाहिए और इसके लिए बुद्धि से काम लेना चाहिए, फिर यह सब सोचना क्या! फँस जाने के डर से क्या घर में चूड़ी पहिन कर बैठे रहना उचित होगा?

इन्द्र० : तुम्हारी हिम्मत देख मुझे बड़ा आनन्द होता है, अच्छा कोई हर्ज नहीं, तुम अगर यही चाहते हो तो जाओ, अपनी हिम्मत से काम लो और हौसला निकालो। तुम्हारे काम में मदद देने के लिए मैं एक-दो अनमोल चीजें दूँगा जिनसे तुम्हें बहुत सहायता मिलेगी। तुम कब जाना चाहते हो?

प्रभा० : अभी इसी समय। यह रात का वक्त मेरी बहुत सहायता करेगा।

इन्द्र० : अच्छी बात है, तो उठो, मैं वे चीजें तुम्हारे हवाले कर दूँ और कई जरूरी बातें भी समझा दूँ।

लगभग आध घण्टे बाद हम प्रभाकरसिंह को सूरत बदले हुए एक चोर दरवाजे की राह मकान के बाहर निकलते देखते हैं। इस समय उनका वेश कुछ अजीब-सा हो रहा है। उनकी छाती तक लहराती हुई सफेद दाढ़ी, सुफेद ही सिर-मोंछ के बाल, और चेहरे पर पड़ी हुई सैकड़ों सिकुड़ने जो देखेगा वह अस्सी बरस से कम का मानने को तैयार न होगा, क्योंकि कमर भी उनकी इस समय बुढ़ापे के बोझ से झुकी-सी मालूम हो रही है और वह हाथ जिसमें काले रंग का एक विचित्र और टेढ़ा मगर मजबूत डण्डा है।

कमजोरी के कारण काँप रहा है। बदन में गेरुआ रंग का एड़ी तक पहुँचता हुआ ढीला-ढाला कुरता जिसमें समूचा बदन इस तरह ढँका हुआ कि बिल्कुल पता नहीं लगता कि भीतर किस तरह की पोशाक या सामान से उन्होंने अपने को लैस किया हुआ है, बाएं हाथ में एक कमंडल है जिस पर मोटे-मोटे रुद्राक्ष के दानों की माला लपेटी हुई है और गले में भी वैसी ही लम्बी माला पड़ी हुई है तथा माले पर सुफेद त्रिपुण्ड लगा हुआ है, गरज की सब तरह से पूरे सिद्ध वृद्ध तपस्वी बाबा बने हुए हैं।

मकान से निकल कर प्रभकारसिंह ने सीधे दारोगा साहब के घर का रास्ता लिया और धीरे-धीरे मस्तानी चाल से चलते हुए कुछ समय में वहाँ जा पहुँचे। मामूल के मुताबिक फाटक पर कई सिपाही पहरा दे रहे थे जिनमें से एक की तरफ देख नकली बाबाजी (प्रभाकरसिंह) ने कुछ हुकूमत भरे स्वर में कहा, ‘‘जाओ अपने मालिक से कहो, मस्तनाथ बाबा आये हैं और फाटक पर खड़े हैं।’’

सिपाही ने एक निगाह सिर से पैर तक हमारे बाबा पर डाली और कोई मामूली साधु समझ कर कहा, ‘‘हमारे मालिक की तबियत ठीक नहीं है, इतनी रात गये अब उनसे मुलाकात नहीं हो सकती।’’

बाबाजी : तुम जाकर खबर तो करो, वह मेरा नाम सुनते ही मेरे दर्शन करने को व्याकुल हो जाएगा।

सिपाही : दारोगाजी का हुक्म है कि संध्या के बाद कोई बाहरी आदमी उनके पास न आने पाए!

बाबाजी : (बिगड़ कर) अबे तू जाकर कहता है कि नहीं!!

सिपाही : अबे-तबे क्या करते हो जी! एक दफे कह तो दिया कि इस वक्त मुलाकात नहीं हो सकती, कल दिन में आना!!

यह बात सुनते ही बाबाजी ने एक कड़ी निगाह उस सिपाही पर डाली और डपट कर कहा, ‘‘तू नहीं जायगा!’’ घमण्ड में भरे सिपाही ने भी तन कर जवाब दिया- ‘‘नहीं!!’’ इतना सुनना था कि बाबाजी ने हाथ वाला डण्डा उस सिपाही के बदन से छुला दिया और मुँह से मानो कोई मंत्र पढ़ा।

डंडे का छूना था कि सिपाही को ऐसा मालूम हुआ कि मानो उसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो। वह जमीन पर गिर पड़ा और बेतहाशा चिल्लाने लगा। बाबाजी ने उसकी तरफ देखकर कहा, ‘‘क्यों, नहीं जायगा! अब बोल!!’’ और दूसरे सिपाही की तरफ मुखातिब होकर बोले, ‘‘तुम जाकर खबर करते हो या तुम्हारी भी यही गत करूँ?’’

एक डरती हुई निगाह उस सिपाही ने उसके साथी पर नजर डाली और तब हाथ जोड़कर कहा, ‘‘महाराज मैं अभी जाकर इत्तिला करता हूँ। तब तक इस चौकी पर विराजें’’, इतना कह वह तुरन्त भीतर चला गया। बाबाजी ने बैठना मंजूर न किया बल्कि वहीं पर इधर से उधर टहलने लगे।

अचानक उन्होंने देखा कि एक रथ जिसमें दो मजबूत बैल जुते हुए थे और जिसके पहियों पर पड़ी धूल बता रही थी कि कहीं बहुत दूर से चला आ रहा है सामने की सड़क से आया और दारोगा साहब के मकान के बगल वाली गली में घूम गया। टहलते हुए ये भी उस गली के मोड़ तक जा पहुँचे और वहाँ से उन्होंने देखा कि मकान का एक दरवाजा खुला और दो व्यक्ति रथ से उतर अन्दर चले गये।

अंधेरे के कारण यद्यपि यह पता न लगा कि ये दोनों मर्द थे या औरत पर रथ दरवाजे ही पर खड़े रहने से यह प्रकट होता था कि ये दोनों (चाहे जो भी हों) शीघ्र ही वापस भी लौटेंगे अस्तु प्रभाकरसिंह ने सोचा कि उस समय पता लगाना चाहिये कि ये दोनों सवार कौन हैं और कहाँ से आ रहे हैं।

एक ही निगाह में यह सब देख नकली बाबाजी लौट पड़े ताकि किसी को किसी तरह का शक न होने न पावे।

वह सिपाही भी जो इत्तिला करने को भीतर चला गया था लौट आया और बाबाजी से बोला, ‘‘चलिए आपकी बुलाहट है।’’ नकली बाबाजी भीतर चलने को तैयार हुए मगर उसी समय दरवाजे के और सिपाहियों ने गिड़गिड़ा कर कहा, ‘‘बाबाजी, दया करके इस हमारे साथी पर से अपना मन्त्र हटा लीजिए, देखिये यह मछली की तरह तड़प रहा है!’’

बाबाजी ने उस तरफ देखा जिधर वह सिपाही अभी तक जमीन पर पड़ा-पड़ा हाय-हाय कर चिल्ला और छटपटा रहा था, और तब बोले, ‘‘यह दुष्ट इसी लायक है!’’ मगर सिपाहियों ने बेतरह गिड़गिड़ाना शुरू किया जिससे उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा उसे मेरे पास लाओ।’’

दो सिपाही पकड़-धकड़ कर उसे बाबाजी के पास लाये। बाबाजी ने मुँह से कुछ मंत्र पढ़ा और कई बार पुन: उसी डण्डे से छूआ। ताज्जुब की बात थी कि उस आदमी की तकलीफ जिस तरह शुरू हुई थी वैसे दूर भी हो गई। दर्द बिल्कुल जाता रहा और भला-चंगा हो बाबाजी के पैरों पर गिर पड़ा। बाबाजी ने उससे कहा, ‘‘खबरदार, आगे फिर कभी किसी सिद्धबाबा की अवज्ञा न करना!!’’ और भीतर चलने को तैयार हुए, एक सिपाही अदब के साथ आगे हो लिया और मस्तानी चाल से चलते और धीरे-धीरे न जाने क्या बुदबुदाते हुए बाबाजी उसके पीछे चल पड़े।

अदब और इज्जत के साथ अनोखे सिद्ध बाबाजी दारोगा साहब के सामने पहुँचाए गये जो उस समय बीमार और सुस्त एक मसहरी पर पड़े हुए थे और नौकर सिरहाने बैठा किसी दवा से तर एक कपड़े से उनके सिर को ठण्डक पहुँचा रहा था। उस बड़े कमरे में सिवाय दारोगा साहब या नौकर के और कोई न था, परन्तु बगल के दरवाजे पर पड़ी चिक के हिलने से बाबाजी को मालूम हो गया कि इसके अन्दर कोई औरत अवश्य है जिसने पर्दे की आड़ में बखूबी उन्हें देखा है।

एक ही निगाह चिक पर डाल बाबाजी ने दारोगा साहब की ओर नजर फेरी और सहानुभूति के साथ कहा, ‘‘हैं बेटा जद्दू! यह तेरा क्या हाल है? बाबाजी की सूरत-शक्ल और स्वर से दारोगा साहब चौंके और कुछ देर तक बड़े गौर से उनकी तरफ देखने के बाद यकायक प्रसन्न होकर बोल उठे, ‘‘अहा हा! आइये सिद्धजी!!’’

दारोगा साहब कोशिश कर उठ बैठे और बाबा मस्तनाथ के दोनों पैर छूकर उन्होंने आँखों से लगाया। मस्तानाथ बाबाजी ने पीठ पर हाथ फेर बहुत कुछ आशीर्वाद दिया और पुन: पूछा, ‘‘बेटा, यह तेरा क्या हाल है? इस तरह बदन में जगह-जगह पट्टियाँ क्यों बंधी हुई हैं, तेरा चेहरा क्यों उतरा हुआ है, आवाज क्यों कमजोर हो रही है?’’

दारोगा : गुरुजी, अब आप आ गये हैं तो सब हाल सुनियेगा ही पर इस समय तो मैं सिर के दर्द से मरा जा रहा हूँ, मालूम होता है सर फट जायेगा, बोलना कठिन हो रहा है।

मस्तनाथ : हैं, यह बात है! ले अभी यह कष्ट दूर करता हूँ!!

इतना कह मस्तनाथ ने अपना डण्डा दारोगा साहब के माथे से छुला दिया और मुँह से कुछ मन्त्र पढ़ा। डण्डे का छूना था कि दारोगा साहब के सर का दर्द काफूर हो गया और बेचैनी तथा घबराहट बिल्कुल दूर हो गई। दारोगा साहब ने ताज्जुब में भर कर मस्तनाथ के पैरों पर सिर रख दिया और कहा, ‘‘गुरुजी, आप धन्य हैं। अब मुझे आशा होती है कि बाकी के कष्टों को भी आप इसी तरह दूर कर देंगे।’’

मस्त० : हाँ हाँ, जो कुछ तकलीफ हो मुझसे कह, गुरु की कृपा से बात की बात में दूर हो जायेगी।

दारोगा : जी हाँ, सब बयान करता हूँ, परन्तु पहिले यह सुन लेना चाहता हूँ कि आज मेरे कौन से पुण्य उदय हो गये जो अचानक आपके चरणों का दर्शन हुआ?

मस्त० : कुछ नहीं, आज सुबह गिरनार के जंगलों में ध्यान लगा रहा था कि अचानक आचार्य श्री के चरणों का दर्शन हुआ, उन्होंने कुछ उपदेश किया और आज्ञा दी कि तुरन्त जमानिया जाओ, वहाँ मेरा शिष्य कष्ट में है उसे देखो और सहायता दो।कुछ और भी सेवा की आज्ञा हुई। तुरन्त तैयार हो गया और श्री जी की कृपा से इस समय अपने को यहाँ पा रहा हूँ।

दारोगा : (हाथ जोड़कर) आचार्य श्री जी की मुझ पर बड़ी दया रहती है। आज सुबह ही कष्ट से अत्यन्त व्याकुल होकर मैंने उनका ध्यान किया था और तुरन्त उन्होंने दास की विनती सुनी, वाह! धन्य हैं!!

मस्त० : सभी पर उनकी ऐसी दया रहती है। अभी उस दिन।।। पर जाने दो, उन सबसे कोई मतलब नहीं। तुम अपने कष्ट कहो ताकि जो कुछ मुझसे हो सके करूँ और जाऊँ, क्योंकि अभी आचार्य चरण की और भी कई आज्ञाएँ पूरी करनी हैं।

दारोगा : यह तो होगा नहीं, अभी तो मैं आपको जाने नहीं दूँगा। इतने वर्षों के बाद दर्शन हुआ है अब इतना शीघ्र क्या छोड़ने वाला हूँ!

मस्त० : (हँस कर) तेरी भक्ति का हाल तो मुझे मालूम है पर गुरु का काम देखना भी तो आवश्यक है।

दारोगा : अब गुरुजी से आप इजाजत ले लें, मेरी तरफ से हाथ जोड़ कर कह दें कि जल्दी न करें, कुछ मेरी सेवा भी तो स्वीकार करें।

मस्त० : अच्छा-अच्छा कोई हर्ज नहीं, वे मुझ पर जितना प्रेम रखते हैं उससे अवश्य तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगे इसमें संदेह नहीं। मैं आज ध्यान में उनसे निवेदन कर दूँगा, मगर अब तू अपने कष्टों को मुझसे बयान कर जा क्योंकि आचार्य चरण की आज्ञा है कि जाते ही पहले जद्दू के दु:ख दूर करके तब कोई दूसरा काम करना। अस्तु तू बिना एक क्षण का विलम्ब किए मुझसे सब हाल कह जा। ये चोटें तेरे शरीर पर कैसी लगी हैं?

दारोगा : (सिद्धजी के पास घसक कर और धीरे से) गुरुजी, क्या बताऊँ, एक गदाधरसिंह नाम का ऐयार मेरी जान का ग्राहक बना हुआ है, उसी ने तीन-चार दिन हुए मुझे सख्त जख्मी किया और मेरी बहुत सी जरूरी चीजें भी चुरा ले गया, उस पर अब।।।

मस्त० : गदाधरसिंह! कौन गदाधरसिंह? यह नाम तो मेरा सुना हुआ है, वही लड़का तो नहीं जिसे मेरे गुरुभाई देवदत्त ब्रह्मचारी ने पाल कर ऐयारी सिखाई थी?

दारोगा : जी हाँ, जी हाँ वही!

मस्त० : अच्छा, उसने तुझसे दुश्मनी पर कमर बाँधी है! मगर वह तो बड़ा सीधा लड़का था!

दारोगा : जी सीधा है! अरे वह तो ऐसा आफत का परकाला है कि मेरे नाक में दम कर रक्खा है! उसे आप बिल्कुल काला नाग समझिए, उसने तो मुझे इतनी तकलीफें दी हैं कि मेरा ही जी जानता है।

मस्त० : हैं ऐसी बात! (क्रोध का भाव कर और डण्डा उठा कर) मैं उसे अभी भस्म कर देता हूँ! उसकी मजाल कि वह मेरे भक्त को कष्ट दे!!

(आँख मूँद और ध्यान लगा कर कुछ मन्त्र पढ़ते हैं।) यह देख दारोगा का कलेजा उछल पड़ा की सिद्ध जी की देह में आग की चिनगारियाँ निकल रही है मानों उसका क्रोध अग्निस्वरूप होकर निकल रहा है और अभी संसार को भस्म कर देगा। दारोगा का दिल यह सोच नाच उठा कि अब मेरा सबसे भारी दुश्मन और बगली कांटा दूर हुआ चाहता है!

सिद्ध० : (आँखें खोल कर और मस्ती के साथ झूम कर) क्या हर्ज है, जा इस बार छोड़ देता हूँ, मगर फिर कभी ऐसा करने की हिम्मत न करना। (दारोगा की तरफ देख और मानों चौक कर) क्या बताऊँ मैं तो उसे अभी भस्म कर रहा था पर ब्रह्मचारीजी के प्रेम ने रोक दिया। खैर कोई हर्ज नहीं, तीन दिन के भीतर तू देखेगा वह तेरे पैरों पर लोटेगा।

दारोगा : (प्रसन्न होकर) गुरुजी, कुछ ऐसा उपाय कर दीजिए कि वह सदा के लिए मेरे अधीन हो जाय।

सिद्ध० : ऐसा ही होगा। मेरा वचन कभी मिथ्या न होगा, तू देखियो, मेरी मन्त्र-शक्ति के प्रभाव से वह तेरा दास हो जायगा। और बता क्या है? बता जल्दी बता?

दारोगा : आपकी इस एक ही दया ने मेरे समूचे कष्ट दूर कर दिए। फिर भी आज्ञा हो तो एक प्रार्थना करूँ।

सिद्ध० : कह जल्दी कह।

दारोगा : बहुत दिनों से मेरी इच्छा है कि लौहगढ़ी का अद्भुत खजाना मेरे कब्जे में आ जाय। आप दया कर कोई ऐसा उपाय कर दें कि मेरी यह इच्छा पूरी हो जाय।

सिद्ध० : लोहगढ़ी! लोहगढ़ी!! (आँख मूँद और ध्यान लगा कर) हाँ अब समझा तिलिस्म का वह हिस्सा जिसकी उम्र समाप्त हो चुकी, जिसकी अद्भुत चीजं  देख सिद्धों का मन भी लालच में आ जाय, वह तिलिस्म जिसका भेद इस समय दुनिया में सिर्फ तीन ही आदमी जानते हैं, यह मेरा शिष्य भी कैसी-कैसी जगह हाथ बढ़ाता है।

(आँखें खोल और मुस्कुरा कर) अच्छा तो तू लोहगढ़ी का खजाना चाहता है?

दारोगा : अगर आपकी दया हो जाय।

सिद्ध० : कार्य तो बड़ा कठिन है पर क्या किया जाय, तेरा प्रेम मुझे बाध्य करता है! अच्छा कोई हर्ज नहीं, गुरु की कृपा से तेरी इच्छा पूरी हो जायेगी।

दारोगा : (प्रसन्न होकर) हाँ?

सिद्ध० : अवश्य, पर मुझे इसमें तीन कण्टक दिखाई पड़ते हैं।

दारोगा : सो क्या?

सिद्ध० : खैर कोई बात नहीं, तुझे कहने से लाभ क्या? मैं सभी कंटक दूर कर लूँगा और परमात्मा की इच्छा हुई तो एक सप्ताह के अन्दर वह तिलिस्म तेरे हाथों से तुड़वा भी दूँगा। तू कल आधी रात को तैयार रहियो, उस समय उसके तोड़ने में हाथ लगाना होगा।

दारोगा : (खुशी से फूल कर) बहुत अच्छा मैं तैयार रहूँगा।

सिद्ध० : अच्छा और कोई बात हो तो कह?

दारोगा : बातें तो बहुत सी थीं पर आपके दर्शन होते ही मेरे कष्ट ऐसे भाग गए मानो कभी थे ही नहीं।

सिद्ध० : (हँस कर) सब गुरु चरणों की कृपा है, मैं क्या चीज हूँ, अच्छा अब मैं चलता हूँ। कल आधी रात को तैयार रहियो।

दारोगा : मगर आप चले कहाँ, कुछ आराम तो कर लें!

सिद्ध० : मुझे अपने भक्त इन्द्रदेव को भी देखना है, उस पर भी सुना है, बड़े कष्ट आ पड़े हैं, उन्हें दूर करना आवश्यक है।

दारोगा : (कुछ चिन्तित होकर) अच्छा कल सुबह चले जाइएगा। इस समय रात के वक्त कहाँ कष्ट कीजिएगा।

सिद्ध० : मेरे लिए रात-दिन सब बराबर हैं। अच्छा वह इस समय है कहाँ? (आँख मूँद कर) अरे, वह तो इसी शहर में है! मगर हैं, यह क्या? (आँख खोलकर) अरे जद्दू, यह तैंने क्या किया!!

दारोगा : (काँप कर) मैंने क्या किया गुरुजी!

सिद्ध० : (क्रोध के मारे लाल आँखें करके) क्या किया! फिर पूछता है क्या किया!! शैतान कहीं का! क्या मुझसे कोई बात छिपी रह सकती है! बता उसकी स्त्री और लड़की को क्यों पकड़ा? (उठ कर) बोल जल्दी!!

दारोगा : (सिद्धजी का क्रोध देख काँपकर) जी गुरुजी, ई, ई, ई, मैं...

दारोगा की घबराहट देख सिद्धजी का क्रोध और भी भभका। उन्होंने लाल आँखें कर ली और बार-बार अपने डण्डे को जमीन पर पटकने लगे। पटकते ही उस डण्डे में से आग की लपटें निकलने लगीं। उन्होंने डण्डे को ऊपर उठाया और गरज कर कहा, ‘‘दुष्ट, अभी बता कि मेरे शिष्य इन्द्रदेव की स्त्री और बेटी कहाँ हैं, नहीं तो मैं तुझे भस्म करता हूँ!’’

सिद्धजी का क्रोध देख दारोगा के तो होश हवास गुम हो गए। वह मन ही मन कहने लगा, ‘‘ऐसे आने से तो इनका नहीं आना ही अच्छा था! कहाँ की मुसीबत में जान पड़ गई, इनका खूनी डंडा तो मुझे भस्म ही किया चाहता है!’’ सिद्ध फिर बोले, ‘‘नालायक, तुझे शर्म नहीं आती! अपने गुरुभाई के साथ यह व्यवहार! क्या तू वह दिन भूल गया जब तू और वह एक साथ पढ़ा करते थे! क्या तू भूल गया कि किस तरह अपनी जान पर खेल कर इन्द्रदेव ने तुझे पागल हाथी के पैरों के नीचे से खींचा था! क्या तू भूल गया कि मैंने चलती समय कह दिया था कि सब कुछ कीजियो पर इन्द्रदेव की तरफ टेढ़ी निगाह से कभी न देखियो!

कम्बख्त तू एकदम नालायाक है! तू मेरी कृपा का पात्र नहीं। अब मुझसे किसी बात की आशा न रख, और न ही यह समझ की लोहगढ़ी का अनमोल खजाना मैं तुझे दिलवाऊँगा। पापी, तू इसके योग्य नहीं है!’’

अब दारोगा की घबराहट का ठिकाना न रहा। उसने सोचा कि यह हाथ आई रकम निकल जाती है। अगर लोहगढ़ी की अद्भुत चीजें उसे मिल गई तो न जाने कितने इन्द्रदेव उसके तलुए चाटा करेंगे। इस समय एक मामूली सी बात के लिए सिद्धजी को नाराज करना बुद्धिमानी नहीं, इन्हें ठंडा करना चाहिए।

दारोगा : (हाथ जोड़कर और सिद्धजी के पैरों पर सिर रख कर) गुरुजी, आप तो व्यर्थ ही दास पर रुष्ट होते हैं। भला मेरी मजाल है जो आपकी आज्ञा का उल्लंघन करूँ? मैंने इन्द्रदेव के साथ कोई बुराई नहीं की बल्कि भलाई की है जो उसकी स्त्री को अपने यहाँ रख छोड़ा है नहीं तो दुश्मन उसे जान से मार डालते।

सिद्ध० : (कुछ शान्त होकर) स्त्री को! केवल स्त्री को! और उसकी बेटी कहाँ है?

दारोगा : गुरुजी, उस लड़की को तो वही दुष्ट गदाधरसिंह चुरा ले गया। न जाने जीता भी रक्खा है या मार डाला है।

सिद्ध० : (दाँत पीस कर) अच्छा कोई हर्ज नहीं। अगर उस पापी ने उस बेचारी लड़की को जरा भी कष्ट पहुँचाया होगा तो मैं उसके कुटुम्ब भर का सत्यानाश कर दूँगा, वह जा कहाँ सकता है? अच्छा तू उसकी स्त्री को ही ला, अभी ला! इसी समय ला!! तुरत ला!!

दारोगा : जी अभी उसे बुलवा देता हूँ। उसके दुश्मनों ने मार डालना चाहा था पर मैंने अपनी जान पर खेल कर उसे बचाया और अभी तक जीता रख छोड़ा है। भला मैं भी इन्द्रदेव की कोई बुराई कर सकता हूँ? मैं तो सोच ही रहा था कि कोई मौका मिले और उसे इन्द्रदेव के पास पहुँचाऊँ।

सिद्ध० : (शान्त होकर) अच्छा तो मैं उसे बुला! मैं अभी उसे लेकर इन्द्रदेव के पास जाऊँगा।

दारोगा ने अपने पास से तालियों का गुच्छा निकाला और उस नौकर के हाथ में देकर, जो वहाँ बैठा ताज्जुब से यह हाल देख रहा था, कान में कुछ समझाया। नौकर गुच्छा लेकर चला गया और दारोगा सिद्धजी की तरफ घूमा।

सिद्ध० : तैने अच्छा किया जो मेरा क्रोध बढ़ने न दिया, नहीं तो आज तुझमें और मृत्यु में बाल भर ही का अन्तर रह गया था। पर अब मेरे इस योगदण्ड को जो क्रोध आ गया है वह मैं किस पर निकालूँ? इसका क्रोध तो व्यर्थ नहीं जा सकता! अच्छा!!

इतना कह सिद्धजी ने अपना विचित्र डंडा जिसमें से अभी आग की लपटें निकल रही थीं, उस पर्दे से लगा दिया जो पास वाले दरवाजे पर पड़ा था। डंडा छूते ही वह भक से जल गया और सिद्धजी ने उसकी आड़ में से भागती हुई मनोरमा और नागर की एक झलक देखकर पहिचान लिया, मगर अपने भाव से कुछ भी प्रकट न होने दिया। दारोगा डर से काँपता हुआ चुपचाप इनके इस भयानक डंडे की अद्भुत् करामात देखने लगा।

थोड़ी ही देर बाद वह नौकर अपने साथ एक औरत के लिए वापस लौटा। सिद्धजी ने पहिली ही निगाह में पहिचान लिया कि वह इन्द्रदेव की स्त्री सर्यू है। इस समय सर्यू की यह हालत हो रही थी मानों वर्षों की बीमार हो। बदन में खून का तो नाम-निशान नहीं था, चेहरा पीला हो गया था, बँदन सूख कर काँटा हो गया था और कमजोरी इतनी अधिक थी कि एक-एक कदम उठाना मुश्किल हो रहा था। प्रभाकरसिंह की आँखों में उसकी हालत देख आँसू आ गये पर बड़ी कोशिश से उन्होंने अपने भावों को छिपाया और दारोगा से कहा, ‘‘क्या यही इन्द्रदेव की स्त्री है?’’

दारोगा : जी हाँ।

सिद्ध० : (सर्यू से) बेटी सर्यू, आ मेरे पास आ! तू तो शायद मुझे न जानती होगी पर यह यदुनाथ और तेरा पति इन्द्रदेव मुझे अच्छी तरह जानते हैं क्योंकि दोनों ने लड़कपन में कुछ समय तक मुझसे विद्याध्ययन किया है। मैं तुझे अभी तेरे पति के पास ले चलता हूँ। (दारोगा से) मैं लड़की को ले चलता हूँ, इस समय सीधा इन्द्रदेव के पास जाऊँगा और उसकी बातें सुनूँगा।

दारोगा : बहुत अच्छा, मैं सवारी मँगा देता हूँ।

सिद्ध० : नहीं इसकी कोई आवश्यकता नहीं।

दारोगा : आपकी शक्ति को तो मैं जानता हूँ, आप पल भर में जहाँ चाहें वहाँ जाने की सामर्थ्य रखते हैं। पर बेचारी यह सर्यू बीमारी के कारण बहुत ही दुखी हो रही है, इसे वहाँ तक जाने में अवश्य कष्ट होगा (नौकर की तरफ देख कर) जाओ जल्दी सवारी का बन्दोबस्त करो।

नौकर चला गया और दारोगा ने पुन: कहा, ‘‘तो गुरुजी, कल रात को पुन: दर्शन होंगे!’’

सिद्ध० : हाँ--यद्यपि तेरी करतूत देख इच्छा तो नहीं होती पर फिर भी वचन दे चुका हूँ इससे आऊँगा और तुझे साथ ले चल कर लोहगढ़ी का भेज समझा दूँगा, तू आप ही उसका तिलिस्म तोड़ लीजियो।

दारोगा : पर गुरुजी, मैंने तो सुना है कि उसका हाल किसी किताब में लिखा है और जिसके पास वह किताब नहीं होगी वह उसे तोड़ नहीं सकता।

सिद्ध० : ऐसी-ऐसी किताबें मेरे नाखूनों में रहती हैं! क्या किताबों के भरोसे मैं सिद्ध हुआ हूँ? कह तो यहाँ बैठे-बैठे केवल इस डंडे के जोर से वहाँ का सारा माल तेरे सामने ला रक्खूँ, तैने मुझे समझा क्या है! सिद्धजी की बातें सुन दारोगा की तबीयत खिल गई। उसने समझ लिया कि अब लोहगढ़ी का अद्भुत खजाना उसका हो गया। वह अपने भाग्य की सराहना करता हुआ कल की रात आने राह देखने लगा।

नौकर ने आकर सवारी तैयार होने की खबर दी और सिद्धजी महाराज सर्यू को लिए उठ खड़े हुए। कमजोर होने पर भी दारोगा इज्जत के साथ उन्हें पहुँचाने दरवाजे तक आया और जब वे रथ पर चढ़ गये और रथ रवाना हो गया तो मन ही मन प्रसन्न होता हुआ भीतर लौटा।

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