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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

सत्रहवाँ बयान


वास्तव में वे दोनों सवार जिन्हें भूतनाथ ने देखा था वे ही हैं जिन्हें उसने गिरफ्तार किया था और उनके आगे-आगे जाने वाली औरत भी पाठकों की जानी-पहिचानी वह निरंजनी है जिसका जिक्र चौथे भाग के अन्तिम बयान में आ चुका है।

निरंजनी अपने दोनों साथियों के साथ घोड़ा फेंकती बराबर काशी की तरफ चली गई और जब तक शहर के पास पहुँच न गई उसने अपने घोड़े की चाल कम न की। जब वह सारनाथ के पास पहुँची तो उसने घोड़े की तेजी कम की और पीछे आने वाले सवारों की तरफ घूमकर बोली, ‘‘क्यों अब क्या इरादा है? सीधे घर चले चलना है या यहाँ पर रुकना है?’’

निरंजनी का साथी सवार : नहीं, यहाँ रुकना ठीक नहीं, यहाँ वाले पहिले आपको तंग कर चुके हैं, अब फिर कदाचित् कुछ दिक करें, चलिये सीधे घर ही चलें।

‘‘हाँ यही ठीक है!’’ कहकर निरंजनी ने घोड़ा बढ़ाया और फिर तेजी के साथ काशी की तरफ रवाना हुई।

त्रिलोचन महादेव के पास पहुँचकर निरंजनी ने घोड़ा रोका और उतर पड़ी उसके साथी दोनों सवार भी उतर पड़े और तब निरंजनी ने अपने घोड़े की लगाम एक सवार के हाथ में देकर कहा। ‘‘लो तुम चलो, घर चल कर कुछ सुस्ताओ मैं अभी आती हूँ तो तुमसे बातें करती हूँ।’’

दोनों सवार ‘बहुत अच्छा’ कहकर निरंजनी के मकान की तरफ बढ़ गए जो वहाँ से दिखाई पड़ता था। जब वे मकान के अन्दर चले गये तो निरंजनी भी हटी और बगल की एक गली में घुस गई। यह गली जो बहुत संकरी तथा अँधेरी थी, ज्यादा दूर तक नहीं गई थी। लगभग पचास कदम के जाने बाद सामने ही एक मकान पड़ता था और वहाँ पहुँचकर यह गली बन्द हो जाती थी। निरंजनी इसी मकान के पास आकर रुक गई और कुछ देर चुप खड़े रहकर इदर-उधर की आहट लेने के बाद उसने दरवाजे का कुण्डा धीरे-धीरे खटखटाया। दरवाजा तुरंत खुल गया और निरंजनी ने अन्दर जाकर उसे बन्द कर लिया।

सामने ही सहन पड़ता था और बगल में से ऊपर वाली मंजिल में जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं निरंजनी इन सीढ़ियों की राह चढ़ कर ऊपर वाले खण्ड में पहुँची जहाँ नीचे की बनिस्बत ज्यादा सफाई तथा चाँदना था, सामने के एक दालान में साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था जिस पर दो औरतें बैठी हुई आपुस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं।

इन दोनों औरतों में से एक जो सूरत-शक्ल तथा पोशाक से सरदार मालूम होती थी बहुत हसीना और खूबसूरत थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों ने उसके चेहरे पर एक प्रकार का रोआब-सा डाल रक्खा था मगर फिर भी उसका चेहरा भोलेपन से बिल्कुल खाली था और कभी-कभी उस पर एक प्रकार की ऐसी झलक आ जाती थी जिससे क्रूरता की गन्ध निकलती थी, तो भी उसके खूबसूरत होने में कोई सन्देह नहीं था और वह सौ-दो सौ सुन्दर औरतों में सुन्दर कही जा सकती थी।

उसके साथ वाली औरत जो कपड़े-लत्ते के खयाल से उसकी मातहत या सहेली कही जा सकती थी यद्यपि खूबसूरती में उसका मुकाबला नहीं कर सकती थी तथापि बदसूरत भी नहीं थी। वह इस ढंग पर पहिली औरत की तरफ झुकी हुई थी मानों उसकी बातों को बड़े ध्यान और दिलचस्पी के साथ सुन रही है।

हमारे पाठक इन दोनों ही औरतों को जानते हैं। इनमें वह जो सरदार मालूम होती है बेगम के नाम से पुकारी जाती है और दूसरी का नाम जमालो है। चन्द्रकान्ता सन्तति में इनका कुछ हाल

लिखा जा चुका है तथा यह भी दर्शाया गया है कि गदाधरसिंह (भूतनाथ) और जैपाल इत्यादि से इसका कुछ घना सम्बन्ध है। (१. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति पन्द्रहवाँ भाग, दसवाँ बयान।)

निरंजनी को देखते ही बेगम और जमालो उठ खड़ी हुईं और बेगम ने कुछ आगे बढ़कर कहा, ‘‘वाह सखी, अबकी दफे तो बहुत दिन बाद आईं। कहो कुशल तो है? कोई नई खबर है क्या? निरंजनी बेगम के पास पहुँची और बोली, ‘‘मैं तो स्वयं तुमसे खबर लेने आई हूँ, भला तुम्हें क्या खबर सुनाऊँगी!

क्या कहूँ, इधर बहुत दिनों से कुछ ऐसी झंझटों में पड़ी हूँ कि मिल नहीं सकी।’’

‘‘क्यों, झंझटें कैसी?’’ कहती हुई बेगम ने निरंजनी को अपने ठिकाने ले जाकर बैठाया और आप उसके सामने बैठकर बोली, ‘‘तुम्हारे लिये और झंझट! यह तो असम्भव बात मालूम होती है। मामला क्या है?’’

निरंजनी ने जमालो को भी बैठने का इशारा किया और तब बेगम से कहा, ‘‘ठहरो जरा सुस्ता लेने दो तो सब हाल तुमको सुनाऊँ। (चारों तरफ देखकर) नौरतन नहीं दिखाई देती, कहाँ है?’’

बेगम : वह एक काम से गई है, अभी आती होगी। मगर तुम्हारी सूरत देखने से जान पड़ता है कि तुम कहीं दूर से आ रही हो?

निरंजनी : मैं इस समय जमानिया से आ रही हूँ।

बेगम : (आश्चर्य से) जमानिया से! क्या जमानिया गई थीं? दारोगा साहब से मिलने?

निरंजनीः हाँ।

बेगम : कोई जरूरी काम था?

निरंजनी : हाँ, मगर वह सब पीछे बताऊँगी। यह कहो जैपालसिंह का कुछ पता लगा?

बेगम : नहीं, कुछ भी नहीं, बड़ी-बड़ी कोशिशें कीं पर अभी तक कोई कामयाबी न हुई, क्या तुम्हें कोई पता लगा है?

निरंजनी इस बात का कुछ जवाब दिया ही चाहती थी कि नीचे दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। बेगम ने जमालो की तरफ देखकर कहा, ‘‘देख कौन है, मालूम होता है नौरतन आई है।’’

जमालो यह सुनकर बाहर चली गई और बेगम तथा निरंजनी आपुस में धीरे-धीरे कुछ बातें करने लगीं। थोड़ी देर बाद नीचे का दरवाजा खुलने और फिर बन्द होने की आवाज आई और साथ ही यह भी मालूम हुआ कि कोई आदमी सीढ़ी चढ़कर ऊपर आ रहा है।

बेगम और निरंजनी यह जानने की नियत से सीढ़ी की तरफ देखने लगीं कि यह आने वाला कौन है और जब वह ऊपर आ पहुँचा तो यह देख उनके ताज्जुब और प्रसन्नता की कोई हद न रह गई कि यह आने वाला और कोई नहीं स्वयम् जैपालसिंह ही है।

जैपाल को देखते ही बेगम लपककर उसकी तरफ बढ़ीं मगर निरंजनी अपने ठिकाने ही पर बैठी रही। जब जैपाल बेगम के साथ उस दालान में पहुंचा तो निरंजनी को भी वहाँ बैठा देख बोला, ‘‘अक्खाह! बीबी मनोरमा भी यहाँ बैठी हुई हैं!’’

पाठकों को अब इस जगह यह बता देना उचित है कि निरंजनी वास्तव में मनोरमा ही है और अपना कोई गुप्त काम साधने के लिए ही इसने निरंजनी का रूप रचा हुआ है। अब यहाँ से हम इसके असली और मशहूर नाम मनोरमा ही से पुकारेंगे। जैपाल की बात सुन मनोरमा ने कहा, ‘‘आओ जी जैपालसिंह, कहो इतने दिनों तक कहाँ गयाब थे? यहाँ बैठो और अपना हाल कहो।’’

जैपाल मनोरमा के पास बैठ गया और उसके बगल में ही बेगम भी बैठ गई। दो-चार सायत तक चुपचाप रहने के बाद जैपाल ने कहा—

जैपाल : मैं कैद में पड़ गया था पर यह अभी तक न जान पाया कि किस जगह था या मुझे किसने कैद किया था।

मनो० : (आश्चर्य से) क्या इतने दिनों तक कैद ही में थे! और फिर भी यह पता नहीं लगा कि तुम्हें किसने कैद किया था।

जैपाल : नहीं, कुछ भी नहीं!

मनो० : फिर छूटे कैसे?

जैपाल : वह सब हाल पीछे सुनाऊँगा मगर तुम पहिले यह बताओ कि यह मर्दानी पोशाक और मुड़ासा वगैरह तुमने क्यों पहिर रक्खा है? क्या कहीं से सफर करती आ रही हो? (१. मनोरमा इस समय भी उसी सूरत और पोशाक में है जिसमें भूतनाथ ने उसे देखा था।)

मनो० : हाँ, मैं इस समय दारोगा साहब के पास से आ रही हूँ, वे आजकल बड़े फेर में पड़े हुए हैं।

जैपाल : सो क्या?

मनो० : तुम्हें कैद से छूटे कितनी देर हुई?

जैपाल : बस अभी थोड़ी ही देर हुई है, छूट कर मैं सीधा इसी तरफ आ रहा हूँ।

मनो० : तो फिर ठीक है, बेशक दारोगा साहब का सोचना सही है और किसी ऐयार ने तुम्हारी सूरत बन उन्हें धोखा दिया है।

जैपाल : (ताज्जुब के साथ) क्या कोई मेरी सूरत बना उनके पास पहुँचा था? जरा कुछ खुलासा कहो तो पता लगे।

मनो० : खुलासा हाल तो तुम दारोगा साहब से जा कर पूछना, मुख्तसर में मैं बताए देती हूँ कि अजायबघर में उनके कैदी थे वे छूट गए या यों कहना चाहिए कि उनके दोस्त लोग छुड़ा ले गए।

जैपाल : क्या सचमुच! मगर अजायबघर में किसी साधारण आदमी का पहुँचना या वहाँ से निकल जाना तो बहुत कठिन है। बिना ताली की मदद के यह काम कभी हो ही नहीं सकता और वहाँ की ताली दारोगा साहब बड़ी हिफाजत से अपने पास रखते हैं।

मनो० : ठीक है, मगर जब उस दगाबाज साधू ने तुम लोगों को बेहोश किया था उस समय तुम्हें कहीं ठिकाने करने के बाद वह या उसका कोई साथी तुम्हारी सूरत बन दारोगा साहब से मिला और कैदियों के भोजन इत्यादि का इन्तजाम करने के बहाने उनसे तालियों का झब्बा ले लिया, ले क्या लिया उन्होंने स्वयम् दे दिया क्योंकि दिन का समय हो जाने के कारण वे उस समय नागर के मकान से निकल नहीं सकते थे। उसी गुच्छे में अजायबघर की ताली भी थी और इसमें कोई शक नहीं कि उसी ताली की मदद से कैदी लोग छु़ड़ाए गए हैं क्योंकि वह नकली जैपाल फिर लौट कर नहीं आया। (१. देखिए भूतनाथ छठवां भाग, बीसवां बयान।)

जैपाल : ओफ, यहाँ तक नौबत आ गई! खैर तब क्या हुआ?

मनो० : दारोगा साहब को इस बात का पता लगा कि वह जैपाल जिसे उन्होंने तालियाँ दी थीं नकली था तो वे बहुत घबराये और अपने कैदियों के छूट जाने का उन्हें बहुत डर पैदा हुआ, उन्होंने किसी तरह महाराज से अजायबघर की दूसरी ताली ली और कैदियों को हटा देने की नीयत से वहाँ पहुँचे पर कैदी लोग पहिले अजायबघर के बाहर हो चुके थे और उनके साथी लोग ऐसे जबर्दस्त थे कि दारोगासाहब उनका कुछ न कर सके।वे लोग निकल ही गये मगर दो औरतें उनके हाथ लगीं जिन्हें उन्होंने अपने मकान में कैद किया। उन औरतों को छुड़ाने के लिए भैयाराजा और भूतनाथ दारोगा साहब के मकान पर पहुँचे और इधर दारोगा साहब के पास कोई दूसरा ऐयार पहुँचा जो तुम्हारी सूरत बना हुआ था। दारोगा साहब ने इसे भी जैपाल ही समझा और साथ लिए हुए हरनाम तथा बिहारी सहित वहाँ जा पहुँचे जहाँ वे दोनों औरतें कैद थीं और भूतनाथ तथा भैयाराजा भी जा पहुँचे थे। इन दोनों को उन्होंने बेहोश कर लिया मगर उस नकली जैपाल ने बातचीत कर उस समय उन्हें वहाँ से बिदा कर दिया और फिर न-जाने किस ढंग से उन दोनों औरतों और भैयाराजा तथा भूतनाथ को भी छुड़ा ले गया। जाते-जाते मालूम हुआ कि बिहारी और हरनाम पर भी हाथ साफ करता गया है, क्योंकि वे दोनों भी तभी से दिखाई नहीं पड़े हैं। सुबह को जब दारोगा साहब उस मकान में पहुँचे तो उन्हें मालूम हुआ कि वह दूसरा जैपाल भी नकली था और इस तरह उन्हें धोखा दे अपने साथियों को निकाल ले गया है। बस तब से उनकी बुरी हालत हो रही है। खैर अब तुम आ ही गये हो, जहाँ तक शीघ्र हो सके उनके पास पहुँचो और उनकी सहायता करो।

जैपाल : (अफसोस का मुँह बना कर) यह तो तुमने बहुत बुरी खबर सुनाई, न–जाने उनका दुश्मन ऐसा कौन निकल आया! अब मैं यहाँ बिल्कुल न रुकूँगा सीधे उन्हीं के पास जाऊँगा और अपने सामर्थ्य-भर उनकी मदद करूँगा।

मनोरमा : बेशक तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए।

मनोरमा, जैपाल तथा बेगम में थोड़ी देर और भी बातें होती रहीं। इसके बाद मनोरमा बेगम और जैपाल से विदा हुई और मकान के बाहर निकल आईं। उसे दरवाजे तक पहँचाने की नीयत से बेगम नीचे तक आई जब वह बाहर चली गई तो दरवाजा बन्द कर फिर ऊपर चली आई। जैपाल और बेगम में थोड़ी देर तक कुछ बातें होती रहीं और इसके बाद जैपाल भी उठ खड़ा हुआ।

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