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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

।। सातवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

प्रभाकरसिंह के लखलखा सुँघाने पर जब भैयाराजा और मेघराज को होश आया और उन दोनों ने प्रभाकरसिंह और भूतनाथ को अपने सामने खड़ा पाया तो दोनों ही को बड़ा आश्चर्य हुआ और तरह-तरह के ख्यालों ने उन्हें आ घेरा। अपनी दुर्दशा की तरफ ध्यान देने से एक बार तो उनका चेहरा क्रोध से लाल हो गया तथापि अपने को सम्हाल कर सबसे पहिले उन्होंने हर्बों को टटोला और तब उधर से निश्चिन्त हो भूतनाथ की तरफ देखकर बोले—

मेघराज : क्यों जी भूतनाथ, तुम तो अभी मेरे सामने कोई जहरीली चीज खाकर बेहोश हो गये बल्कि मर चुके थे लेकिन अब भले-चंगे नजर आते हो, यह क्या बात है?

भूत० : निःसंदेह मैं आप लोगों ने कुछ-कुछ वैसी ही हालत देखी थी मगर सच बात यह है कि वह मेरी ऐयारी थी और वास्तव में मैंने कोई ऐसी चीज नहीं खाई थी जिससे जान जाने का डर होता।

मेघराज : तो क्या तुम मेरे सामने तरह-तरह की बातें करते हुए जो बेहोश हो गये थे वह केवल बनावटी कार्रवाई थी?

भूत० : जी हाँ।

भैयाराजा० : (आश्चर्य से) मगर तुमने इसमें क्या फायदा सोचा था? तुम तो हमारे साथ अपनी मित्रता सिद्ध करने को उद्यत थे न?

भूत० : निःसन्देह मैं आप लोगों को अपना मित्र समझता था और अब भी समझता हूँ पर मेरी वास्तविक इच्छा यह थी कि (मेघराज की तरफ इशारा करके) आपका परिचय जानूं। यही एक बात थी जिसने मुझे वैसा करने पर मजबूर किया

मेघराज : तो क्या तुमने मुझे पहिचाना?

भूत० : (लज्जित होकर) नहीं बिल्कुल नहीं।

मेघराज : (मुस्कुरा कर) अच्छा तो बताओ कि अब क्या इच्छा है?

भूतनाथ जवाब देने ही को था कि उसे सामने की तरफ से कुछ आदमी आते हुए दिखाई पड़े। हाथ के इशारे से थोड़ी देर के लिए बात बन्द करने की इच्छा प्रकट कर वह चुपचाप उधर ही देखने लगा। मेघराज उसका मतलब समझ गये और शीघ्र ही उनकी चंचल और तेज निगाहों ने भी उन आदमियों को खोज निकाला जिन्हें देख भूतनाथ खटका था। कुछ देर में वे सब पास आ गये और तब सभों ही ने पहिचान लिया कि वे लोग कौन हैं।

भूत० : (मेघराज से) लीजिए मेरे साथी लोग आ गये, मैं केवल इन्हीं लोगों का इन्तजार कर रहा था, अब जैसी आप लोगों की इच्छा हो उसके अनुसार काम करने को उद्यत हूँ। रहा अपना इरादा, सो तो नष्ट हो ही गया। (अपने साथियों को हाथ का इशारा करके) आओ चले आओ, कोई हर्ज की बात नहीं है।

प्रभा० :(भूतनाथ से) ये तो तुम्हारे वे ही साथी हैं जो मेरे हाथ से जख्मी हुए थे।

भूत० : जी हाँ।

यह कहता हुआ भूतनाथ अपने साथियों को बैठने का इशारा कर खुद भी जमीन पर बैठ गया और तब मेघराज की तरफ देखकर बोला, ‘‘हाँ अब आप पूछिये क्या पूछते थे?’’

मेघराज : उस समय तो मैं कुछ नहीं पूछता था परन्तु अब जरूर यह जानना चाहता हूँ कि क्या अभी तुम्हारे दिल में भैयाराजा की स्त्री को छुड़ाने की इच्छा बनी है?

भूत० : हाँ-हाँ, क्यों नहीं? ईश्वर ने चाहा तो मैं भैयाराजा के काम से कदापि मुँह न मोड़ूँगा और उनके लिए सदैव तन-मन से उद्यत रहूँगा।

मेघराज : खैर शुक्र है कि अभी तक तुम इस राह पर हो! अच्छा तो फिर उसका प्रबन्ध करो। दारोगा ने इनकी स्त्री को तुम्हारे हवाले कर देने का वादा तो किया ही था और वह दिन भी आज ही है!

भूत० : बेशक ऐसा ही है, परन्तु सोचने की बात यह है कि केवल अकेले मेरा ही जाना उचित होगा या आप लोगों को भी साथ ले जाना?

मेघराज : अब इसको तो तुम ही जानो!

भूत० : (कुछ सोचकर) मेरी समझ में तो आप लोग भी यदि रहते तो उत्तम होता, क्योंकि यदि दारोगा किसी वजह से इन्कार भी कर देगा तो मैं उन तालियों की मदद से जिन्हें उसने जैपाल के धोखे में मुझे दे दिया है एक बार स्वयम् अजायबघर में जाने का उद्योग करूँ, मगर ऐसी अवस्था में ज्यादा आदमियों का साथ रहना आवश्यक है क्योंकि पहरा जरूर होगा, अकेले काम न निकलेगा।

मेघ० : निःसन्देह तुम्हारा खयाल ठीक है। तो हम लोग साथ चलने को तैयार हैं, उठो, क्योंकि संध्या होने में ज्यादा विलम्ब नहीं है।

इतना कह कर मेघराज अपनी जगह से उठे और सब को साथ ले भूतनाथ के पीछे-पीछे जमानिया की तरफ रवाना हुए। भैयाराजा इत्यादि घोड़ों पर सवार थे और भूतनाथ तथा उसके साथी पैदल ही घोड़ों के साथ-साथ जा रहे थे। अभी ये लोग ज्यादा दूर न गये थे कि सामने से दो सवार आते दिखाई पड़े जिन्हें देख सब रुक गये और उसी तरफ देखने लगे।पहिले तो गर्द के सबब से कुछ जान न पड़ा परन्तु करीब आ जाने पर मालूम हुआ कि ये लोग भी अपने ही साथी अर्थात् इन्द्रदेव के भेजे हुए ही शागिर्द हैं जिनको उन्होंने मेघराज आदि की मदद पर भेजा था। जब प्रभाकरसिंह ने पारस इत्यादि भूतनाथ के शागिर्दों को जैपाल की गठरी लिए जाते देखा था उस समय भी ये दोनों सवार उनके साथ ही थे। उनको अलग छोड़ कर प्रभाकरसिंह आगे बढ़ आए थे तथा भूतनाथ के शागिर्दों को बेकाम करने के बाद जैपाल को अपने साथ ले जा कर इन्हीं दोनों सवारों के सुपुर्द कर स्वयं भूतनाथ के पास लौट गए थे और वे दोनों उसे ठिकाने पहुँचा अब लौट रहे थे।

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