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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


रामेश्वरचन्द्र की दूकान की तरफ जाते-जाते रास्ते में भूतनाथ ने सोचा, ‘‘मैं रामेश्वरचन्द्र से मिलने के लिए जाता तो हूँ परन्तु यदि मैं अपना परिचय न दूँ और जैपाल ही बना हुआ उससे मिलूँ तो क्या वह मुझसे सीधा-सादा और रूखा बर्ताव करेगा या दारोगा का दोस्त समझ कर डरेगा और खातिरदारी से मिलेगा? अथवा मुझे फँसाने की फिक्र करेगा? वह क्या करेगा इस बात को देखना चाहिए और कुछ देर तक जैपाल ही बने रह कर और जैपाल ही के ढंग पर बातचीत करके जाँचना चाहिए कि वह कैसा बर्ताव करता है।’’

इन्हीं सब बातों को सोचता हुआ भूतनाथ रामेश्वरचन्द्र की दुकान पर जा पहुँचा और जब उससे मुलाकात हुई तो जिस तरह पढ़े-लिखे दूकानदार लोग ग्राहकों की खातिरदारी करते हैं उसी तरह खातिरदारी के साथ वह नकली जैपाल को दूकान के अन्दर ले गया और अपने एकान्त वाले बैठने के कमरे में ले जाकर कुर्सी पर बैठा के बातचीत करने लगा।

रामेश्वर० : कहिए, मिजाज तो अच्छे हैं?

जैपाल० : ईश्वर की कृपा से मैं बहुत अच्छा हूँ। (मुस्कुरा कर) आप अपनी दूकान का हाल कहिए, दिनोंदिन तरक्की तो हो रही है न?

रामेश्वर० : आप लोगों की कृपा रहेगी तो तरक्की में सन्देह ही क्या है? अभी तो यहाँ मुझे आठ पहर भी नहीं बीते हैं मगर फिर भी मैं यह जरूर कहूँगा कि आप और दारोगा साहब किस्मतवर हैं क्योंकि यहाँ आने के साथ ही एक अनूठा शिकार हाथ लगा।

जैपाल० : (ताज्जुब और प्रसन्नता की सूरत बना कर) हाँ! किसको फाँसा सो तो कहो?

रामेश्वर० : यहाँ आकर हम लोगों ने असली रामेश्वर को खूब ही धोखा दिया और उसे फँसा लेने के बाद खुद रामेश्वरचन्द्र बन कर इस दूकान पर कब्जा कर लिया उसके नौकरों को अभी तक इस बात की कुछ खबर नहीं लगी। इसके बाद रात को तीन बजे भैयाराजा यहाँ आये। मालूम होता है कि उन्होंने गदाधरसिंह और रामेश्वरचन्द्र से यहाँ आकर मिलने का वायदा किया था। खैर, वे तो-हमारी तरफ से बेफिक्र ही थे इसलिए सहज ही में फँस गये। कुछ खिला-पिला कर हमने उन्हें बेहोश कर दिया और गिरफ्तार कर लिया।

जैपाल० : शाबाश-शाबाश, यह बड़ा ही काम हुआ। इस समय वे दोनों कहाँ हैं?

रामे० : इसी मकान में हैं, नीचे के तहखाने में मैंने उन्हें बन्द कर रक्खा है, अब इस फिक्र में हूँ कि किसी तरह मौका देख कर उन्हें दारोगा साहब के घर पहुँचाया जाये और यहाँ के आदिमयों को किसी तरह का गुमान न होने पावे।

जैपाल० : ठीक है, तो इस काम को मैं अपने हाथ से करूँगा। रात को मैं कुछ आदमियों को साथ लेकर सौदा खरीदने के बहाने यहाँ आऊँगा और यह काम बड़ी खूबसूरती के साथ कर दूँगा, तब तक उनकी हिफाजत करो।

नकली जैपाल अर्थात भूतनाथ का तो यहाँ की अवस्था जान कर कलेजा हिल गया, यह तो सिर्फ इत्तिफाक की बात थी कि नकली रामेश्वरचन्द्र ने भूतनाथ को असली जैपाल समझकर सब हाल कह दिया नहीं तो बड़ा बुरा होता और धोखे में पड़ कर स्वयं भूतनाथ भी शायद गिरफ्तार हो जाता मगर खैरियत गुजरी कि ऐसा नहीं होने पाया। असली रामेश्वरचन्द्र वास्तव में भूतनाथ का शागिर्द है और जितने आदमी दूकान के मुखिया हैं सभी भूतनाथ और भैयाराजा के शागिर्द और नौकर हैं।

भैयाराजा ने इन्द्रदेव की मदद से और भूतनाथ के भरोसे पर यह ऐयारी की दूकान कायम की थी और निःसन्देह इस दूकान के जरिये ये लोग बड़े-बड़े अनूठे काम कर गुजरते मगर दारोगा के ऐयारों ने इनके काम में बाधा डाल दी जिससे भूतनाथ को बड़ा ही कष्ट हुआ और वह सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए, बहूरानी को छुड़ाने की फिक्र करते-करते भैयाराजा से भी हाथ धो बैठे।

अब किस तरकीब से इन सभों को छुड़ाया जाये? अगर खुल्लम खुल्ला नकली रामेश्वर से भिड़ जायें तो यह दूकानदारी चौपट हो ही जायेगी बल्कि चौपट हो गई क्योंकि दारोगा के ऐयारों को मालूम हो ही गया कि यह जाल वास्तव में गदाधरसिंह का फैलाया हुआ है परन्तु फिर भी जब तक मैं जैपाल बना हुआ दारोगा को अपने कब्जे में रक्खूँगा तब तक इस दूकान से कुछ न कुछ काम निकलता रहेगा, या जब तक दारोगा को यह विश्वास रहेगा कि हमारा ही ऐयार रामेश्वरचन्द्र बना हुआ इस दूकान पर है तब तक यह दूकान कायम रहेगी, अगर कोई ऐसी तरकीब निकल आवे कि हम इस ऐयार को गिरफ्तार करके पुनः अपने रामेश्वरचन्द्र को यहाँ कायम कर दें तो बड़ा ही काम हो।

वह दारोगा के आदमियों के सामने दारोगा ही का एक ऐयार बना रहेगा और उन्हीं के ढब की बातें किया करेगा। ऐसी अवस्था में काम भी ज्यादे निकलेगा। मगर समस्या जरा कठिन है। मेरे ज्यादे देर तक यहाँ ठहरने से या विशेष बातचीत करने से कहीं इस ऐयार को मुझी पर शक न हो जाए। हाँ, ।।यह भी मालूम होना चाहिए कि असल में यह ऐयार कौन है? क्या बिहारीसिंह और हरनामसिंह में से यह कोई है?

चलती समय दारोगा ने मुझसे कहा था कि मैंने अपने दोनों ऐयारों को इस काम पर मुकर्रर किया है। जरूर यह उन्हीं दोनों में से कोई होगा। इस समय दारोगा के मकान पर मेरा जाना भी बहुत जरूरी है अगर ऐसा न करूँगा तो बड़ा हर्ज होगा। मगर अब इसका पीछा छोड़ देना भी मुझे अच्छा नहीं मालूम होता। यद्यपि मैंने इससे यह कह दिया है कि रात को आकर दोनों कैदियों को ले जाऊँगा, मगर यह बात ठीक नहीं है, खैर मैं कोई-न-कोई तरकीब ऐसी जरूर करूँगा कि इसे फँसा लूँ।

इसी तरह की बातें भूतनाथ ने थोड़ी देर में सोची सो भी ऐसे ढंग से कि नकली रामेश्वरचन्द्र को किसी तरह का शक नहीं हुआ और न उसने यह समझा कि जैपाल कुछ सोच रहा है।

नकली रामेश्वर० : अच्छा तो अब आपका इरादा क्या है सो कहिए।

भूत० : इरादा तो यही था कि इस समय यहाँ से जाकर दारोगा साहब का जरूरी काम करूँ और रात को यहाँ आकर दोनों कैदियों को ले जाऊँ मगर फिर सोचता हूँ कि रात को मेरा यहाँ आना शायद कठिन हो जाये तो ताज्जुब नहीं क्योंकि एक ऐयार ने दारोगा सहब को बेढब धोखे में डालकर उन्हें नागर के मकान में फँसा दिया और वे इस समय दिन होने के कारण अपने घर जा नहीं सकते, मैं उनके घर जाकर उनके बिगड़े हुए कामों को सुधारने की फिक्र करूँगा और उनके गायब होने से जो घबराहट फैली हुई होगी उसे शान्त करने के बाद राजा साहब से मिलूँगा क्योंकि उन्होंने दारोगा साहब को जरूर याद किया होगा।

नकली रामेश्वर० : (आश्चर्य से) किसी ऐयार ने दारोगा साहब को धोखे में डाला! क्या मामला हुआ सो तो कहिए?

भूत० : अजी ऐसी दिल्लगी हुई कि अगर सुनोगे तो हँसते-हँसते लोट जाओगे।

नकली रामेश्वर० : क्या-क्या, कुछ कहिए भी?

भूत० : एक बड़े महात्मा बाबाजी आये थे। नागर के सामने वाले मकान के नीचे जो चबूतरा है उसी पर बैठ कर गाने लगे, गाना बेशक मजेदार था, सुनने के साथ ही नागर का जी बेचैन हो गया। उसने बाबाजी को अपने यहाँ बुलवाया, बड़े नखरे-तिल्ले के साथ बाबाजी आये और सभों को उल्लू बना गये।

इतना कहकर नकली जैपाल अर्थात् भूतनाथ ने मसखरेपन के साथ यह सब हाल बयान किया जो उसकी बदौलत नागर के मकान पर हुआ था। उसे सुन कर नकली रामेश्वर पहिले तो बहुत हँसा और तब अफसोस करने लगा।

इसके बाद दोनों आदमियों में देर तक बातचीत होती रही। अन्त में भूतनाथ ने रामेश्वरचन्द्र से कहा कि ‘अच्छा होता अगर इस समय मैं असली रामेश्वरचन्द्र और भैयाराजा से मुलाकात कर लेता, सम्भव है कि उनकी मुलाकात से कोई काम निकल जाये। फिर क्या जाने रात को आना हो या न हो’।

नकली रामेश्वरचन्द्र ने इस बात को खुशी से मंजूर कर लिया और कमरे का दरवाजा बन्द करके (जिससे किसी को कुछ मालूम न हो) भूतनाथ को उस कोठरी में ले गया जिसमें तहखाने का रास्ता दीवार में बहुत ही गुप्त ढंग से बना हुआ था और जिसका हाल न-मालूम किस ढंग से नकली रामेश्वरचन्द्र को मालूम हो गया था, यद्यपि उस तहखाने में भी एक रास्ता तहखाने और मकान से बाहर निकल जाने के लिए था, अगर मालूम होता तो शायद उस तहखाने में कैदियों को बन्द न करता यद्यपि उन दोनों के हाथ-पैर बँधे हुए थे और वे अपनी रिहाई के लिए कुछ उद्योग नहीं कर सकते थे।

नकली रामेश्वरचन्द्र भूतनाथ को साथ लिए तहखाने के अन्दर चला गया और वहाँ पहुँच कर भूतनाथ ने अपने शागिर्द रामेश्वरचन्द्र और भैयाराजा को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूत बैठे हुए देखा। एक मद्धिम चिराग की रोशनी तहखाने में हो रही थी और गर्मी के सबब से दोनों कैदी परेशान मालूम पड़ते थे।

भैयाराजा को ऐसी अवस्था में देख कर भूतनाथ का जी बेचैन हो गया और क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गईं।

पहिले तो भैयाराजा के पास जाकर भूतनाथ ने कोई ऐसा बँधा हुआ इशारा किया जिससे भैयाराजा को मालूम हो गया कि वह जैपाल नहीं बल्कि भूतनाथ है, इसके बाद भूतनाथ ने नकली रामेश्वरचन्द्र की तरफ देख के कहा, ‘‘क्यों बे नमक हराम, तुझे अपने हाथों से भैयाराजा को हथकड़ी और बेड़ी पहिनाते शर्म नहीं आई?

जिसके नमक से तेरा शरीर पला हुआ है उसके साथ ऐसी कार्रवाई करते कलेजा हिल नहीं गया और अब इनके सामने आते तुझे शर्म नहीं मालूम हुई!’’

भूतनाथ की ऐसी बातें सुन कर नकली रामेश्वर को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वह गौर से नकली जैपाल अर्थात् भूतनाथ की सूरत देखने लगा, इसके बाद बोला, ‘‘मालूम होता है कि तुम कोई ऐयार हो, जैपालसिंह नहीं!’’

भूत० : बेशक यही बात है, अगर अभी तक तू नहीं समझा तो अब समझ जा कि मेरा नाम गदाधरसिंह है, बस-बस, भागने का उद्योग मत कर, मैं इसी जगह तेरा मुकाबला करने को तैयार हूँ।

रामे० : खैर अब सिवाय मुकाबले के और कुछ हो भी नहीं सकता।

इतना कह कर नकली रामेश्वरचन्द्र ने फुर्ती के साथ खंजर निकाल कर भूतनाथ पर वार किया मगर कुछ न कर सका। भूतनाथ ने उसका वार खाली कर दिया और पीछे पहुँच कर इस जोर से उसकी कमर में लात जमाई कि वह सम्हल न सका और मुँह के बल जमीन पर गिर पडा। तुरन्त भूतनाथ ने उस पर कब्जा कर लिया और कमन्द से हाथ-पैर बाँधने के बाद एक किनारे रख दिया। इसके बाद वह भैयाराजा के पास पहुँचा और उनके हाथ-पैर खोल देने के बाद असली रामेश्वरचन्द्र को भी हथकड़ी-बेड़ी से रिहाई दी।

इतना करके भूतनाथ ने शागिर्द की मदद से जब नकली रामेश्वरचन्द्र की जाँच की तो मालूम हुआ कि वह वास्तव में हरनामसिंह है।१ कमन्द खोल कर उसे हथकड़ी और बैड़ी पहिरा दी गई और उसी तहखाने में उसे छोड़ कर तीनों आदमी बाहर निकल आये। ऊपर की कोठरी में पहुँच कर भूतनाथ ने भैयाराजा की सूरत बदली और थोड़ी ही देर में वे तीनों आदमी दूकानदारी के कमरे में खुले आम बैठ कर बातचीत करते हुए दिखाई देने लगे। उस समय भूतनाथ ने अपना सब हाल भैयाराजा और रामेश्वरचन्द्र से बयान किया और कहा, ‘‘अब हमें बहुत जल्द कुछ काम करना चाहिए । समय बीतता चला जा रहा है।’’ (१. चन्द्रकान्ता सन्तति में मायारानी के दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह का नाम आया है।)

थोड़ी ही देर में तीनों आदमियों ने यह निश्चय कर लिया कि अब क्या करना चाहिए और इसके बाद रामेश्वरचन्द्र को उसी दूकान में छोड़ अपने साथी शागिर्दों को कुछ समझा कर भूतनाथ और भैयाराजा वहाँ से रवाना हुए। भूतनाथ जैपाल की सूरत में था और भैयाराजा हरनामसिंह बने हुए थे।

सबके पहिले इन दोनों ने दारोगा के मकान में जाने का इरादा किया क्योंकि वहाँ से भैयाराजा की स्त्री को छुड़ाना बहुत जरूरी था। केवल इतना ही नहीं भूतनाथ यद्यपि इसके पहिले दारोगा के मकान में से सूखा लौट आया था तथापि अभी तक उसे इस बात का निश्चय था कि दयाराम जरूर दारोगा के मकान ही में कैद है अतएव उसको दयाराम की भी धुन लगी हुई थी।

भूतनाथ और भैयाराजा, रामेश्वरचन्द्र की दूकान से बाहर निकल कर थोड़ी दूर आगे गये थे कि यकायक भूतनाथ की निगाह मेघराज पर पड़ी जिसे वह आज के कई दिन पहिले एक तिलिस्मी पहाड़ी में विचित्र ढंग से देख चुका था और भैयाराजा के साथ ही वह भी जिसका मेहमान बन चुका था।

इस समय मेघराज अकेला नहीं था। उसके साथ सिपाहियाना ठाठ का एक आदमी और था जिसे भूतनाथ ने नहीं पहिचाना मगर उसे इस बात का विश्वास जरूर हो गया कि मेघराज की तरह यह भी अपनी सूरत बदले हुए है। मेघराज को देखते ही भूतनाथ का कलेजा हिल गया और एक दफे रोमाँच हो जाने के बाद ही कुछ देर के लिए उसके दिल में धड़कन पैदा हो गई। ऐसा क्यों हुआ सो तो हम कह नहीं सकते हाँ इतना कह देना जरूरी है कि इस समय भी मेघराज की सूरत-शक्ल तथा पोशाक वैसी ही थी जैसी कि उस दिन भूतनाथ देख चुका था।

जिस तरह भूतनाथ और भैयाराजा ने मेघराज और उसके साथी को देखा उसी तरह मेघराज ने भी इन दोनों को देखा परन्तु ये दोनों जैपाल और हरनामसिंह की सूरत में थे इसलिए मेघराज ने इन दोनों की तरफ कुछ ध्यान नहीं दिया मगर भैयाराजा अपने को रोक न सके। उन्होंने आगे बढ़ कर मेघराज का एक हाथ पकड़ लिया और धीरे-से कहा जिसे भूतनाथ ने भी सुना, ‘‘मेघराज, वाह-वाह खूब पहुँचे। आज तुम हम लोगों के साथ ही मिल कर गरजों। अपना परिचय दो तो और भी कुछ कहूँ। मैं हूँ इन्द्र भैया।’’

मेघराज० : पावस में ‘तड़ित’ की कमी नहीं है, आपने धोखा नहीं खाया। मेरे साथ वैद्य है।

भैया० : बस तो ठीक है। जिस तरह मैं हरनामसिंह की सूरत में हूँ उसी तरह यह मेरा साथी भूतनाथ भी जैपाल की सूरत में है। बस अब जो कुछ कहना है वह निराले में कहूँगा। मौका अच्छा है। तुम भी मेरे साथ बन जाओ।

इतना कह कर भैयाराजा आगे की तरफ बढ़े और उस तरफ चले जिधर कुछ सन्नाटा मिलने की उम्मीद थी और उनके पीछे-पीछे भूतनाथ तथा मेघराज और उसका साथी ये तीनों रवाना हुए।

भैयाराजा ने इस समय मेघराज से जिस तरह की बातचीत की और अपना तथा भूतनाथ का भेद खोल दिया यह भूतनाथ को पसन्द न आया बल्कि बहुत बुरा मालूम हुआ मगर मौका मुनासिब न समझ वह कुछ न बोला और चुपचाप उनके पीछे चला गया।

थोड़ी देर में वे चारों आदमी एक छोटे-से बगीचे में जा पहुँचे जहाँ इन लोगों के लायक अच्छा सन्नाटा था। भैयराजा ने भूतनाथ को एक पेड़ के नीचे बैठ जाने के लिए कहा और स्वयं वहाँ से कुछ दूर पर दूसरे पेड़ के नीचे मेघराज और उसके साथी को लेकर जा बैठे और बातचीत करने लगे।

भैयाराजा की पहली कार्रवाई से भूतनाथ को रंज हो चुका था। अब यह दूसरी कार्रवाई भूतनाथ के लिए और भी दुःखदायी हुई। भूतनाथ को अलग छोड़ कर तीनों आदमियों का एकान्त में बातचीत करना भूतनाथ को सहन न हुआ और उसके अन्दर क्रोधाग्नि एकदम भभक उठी, आँखों के साथ ही उसके चेहरे ने भी सुर्खी पकड़ ली। कुछ देर तक तो वह टेढ़ी निगाह से उन तीनों की तरफ देखता रहा और फिर दाँत पीस कर धीरे-से बोल उठा, ‘‘क्या मैं भैयाराजा के हाथ बिक गया हूँ! वे मुझसे भेद रक्खे और मैं उनके लिए जान दूँ! गदाधरसिंह ऐसा उल्लू नहीं है।’’ इतना कह कर चुप हो गया और न-मालूम क्या सोचने लगा।

भैयाराजा, मेघराज और उसके साथी के बीच आधे घंटे तक बातचीत होती रही, इसके बाद वे तीनों उठ खड़े हुए और भूतनाथ के पास आकर राजाभैया ने कहा, ‘‘चलो साहब, अब उठो और अपने काम की फिक्र करो।’’

भूत० : (उठ कर मेघराज की तरफ बता कर) ये दोनों साहब अब किधर जायेंगे?

भैया० : ये दोनों भी हमारे साथ ही रहेंगे।

भूत० : तो क्या हम लोगों का भेद इनसे जाहिर कर दिया गया?

भैया० : हाँ, इनसे हम लोगों का कोई भेद छिपा नहीं रह सकता।

भूत० : मगर इनका भेद हमसे छिपा ही रहेगा?

भैया० : हाँ, कुछ दिनों के लिए तो ऐसा ही रहेगा।

भूत० : तो ऐसी हालत में हम लोगों का मिल-जुलकर काम करना बहुत कठिन है।

भैया० : कुछ भी कठिन नहीं है।

भूत० : जरूर कठिन है बल्कि असम्भव है!

भैया० : सो क्यों?

भूत० : जबकि इनका भेद मुझसे छिपा रहेगा तो अपने भेद की बातें मैं इनसे क्यों कहूँगा? ऐसी अवस्था में ठीक काम भी न हो सकता।

भैया० : तुम इन्हें अपना दोस्त समझो और विश्वास रक्खो कि इनसे सिवाय नफे के नुकसान कभी न पहुँचेगा।

भूत० : आप तो सब कुछ समझाते हैं मगर मेरा दिल भी कुछ समझे तब तो।

भैया० : दिल को समझाओगे और दिलासा दोगे तो सब कुछ समझ लेगा।

भूत० : मेरा दिल ऐसा कच्चा और नादान नहीं है।

भैया० : तब कैसे काम चलेगा?

भूत० : काम चले या अटका रहे अथवा जहन्नुम में जाय। मैं उस आदमी के साथ क्षण-भर भी रहना पसन्द नहीं करता जिसका कुछ भी हाल अपने को मालूम न हो। पहिले दफे जब इनसे मुलाकात हुई थी तब आपने इनका परिचय मुझे नहीं दिया और आज भी वही हाल हो रहा है। केवल इतना ही नहीं, मुझे अलग छाँट कर आप इन लोगों से बात करते हैं और ऐसे काम में मुझे इनका साथी बनाते हैं जिसमें कदम-कदम पर जान जोखिम का सामान है, नहीं-नहीं, गदाधरसिंह ऐसा बेवकूफ नहीं है। हजारों दुश्मनों से अपने को बचाये रहने वाला गदाधरसिंह ऐसी बेवकूफी करके गन्दी नादानी के साथ अपने गले पर अपने हाथ से छुरी नहीं चलावेगा।

भैया० : फिर तुम क्या चाहते हो?

भूत० : बस इनका परिचय चाहते हैं!

भैया० : इनका परिचय तो अभी तुम्हें नहीं मिल सकता क्योंकि ये अपना भेद अभी प्रकट नहीं किया चाहते।

भूत० : फिर आपको क्या हक था कि मेरी इच्छा के विरुद्ध आप मेरा भेद इनसे प्रकट कर दें?

भैया० : इसलिए कि मैं इन्हें खूब जानता हूँ और मेरा इन पर विश्वास है।

भूत० : आप इन पर भले ही विश्वास रक्खे मगर मैं इन पर भरोसा नहीं रखता, अस्तु मेरे भेद के मालिक ये कैसे हो सकते हैं? यह आपकी जबर्दस्ती है कि मेरा भेद मेरी मर्जी के बिना इनसे कहते हैं और इनका परिचय तक भी मुझे नहीं देते।

मेघ० : गदाधरसिंह, मेरा भेद बहुत दिनों तक तुमसे छिपा न रहेगा और जब तुम मुझे जानोगे तो इतने दिनों तक भेद छिपाये रखने की शिकायत न करोगे।

भूत० : चाहे ऐसा ही हो मगर जबकि मैं तुमको जानता ही नहीं तो तुम्हारी बातों पर क्योंकर विश्वास कर सकता हूँ।

मेघ० : (कुछ तीखेपन से) तुम्हारी इन बातों से रंज होकर मैं चला जाता और तुम्हारा साथी नहीं बनता मगर इसलिए जाना पसन्द नहीं करता कि दारोगा तथा दारोगा के कमान से जितना तुमको और भैयाराजा को सम्बन्ध है उससे कहीं ज्यादा मुझको सम्बन्ध है, इसलिए मैं दारोगा के मकान में जरूर जाऊँगा और अपना काम करूँगा।

भूत० : हाँ-हाँ तुम भले ही दारोगा के मकान में जाओ मगर मेरे बताये हुए रास्ते से क्यों जाओगे? अपने लिए खुद अपना रास्ता बनाओ! मैंने जो कुछ मेहनत की है वह तुम जैसे एक अनजान आदमी के फायदा उठाने के लिए नहीं की है।

भैया० : सुनो गदाधरसिंह, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो और मेरी बात मान कर कुछ दिनों के लिए सब्र नहीं करते। जबकि हम इन्हें और तुम्हें अपना समझते हैं तब हमारी-तुम्हारी कार्रवाई से अगर बिना नुकसान के हो सके तो ये भी फायदा उठा सकते हैं, इसके लिए तुम्हें रंज न होगा..।

भूत० :(बात काट कर) मैं यह सब दिलासे की बातें नहीं सुनना चाहता, बात साफ कहिये कि इनका परिचय मुझे देंगे या नहीं?

भैया० : इस समय नहीं क्योंकि इनकी मरजी नहीं है।

भूत० : तो बस मुझे भी इनके साथ रहना मंजूर नहीं, आपने बहुत ही बुरा किया कि मेरी आज की कार्रवाई का हाल इनसे कह दिया। इस समय बातचीत करते हुए आपने जरूर कह दिया होगा, यह मुझे अन्दाज से मालूम हो गया।

भैया० : हाँ कह तो दिया है।

भूत० : तब बेशक आपने बुरा किया। अच्छा अब जो आपके जी में आवे कीजिए मैं जाता हूँ।

भैया० : कहाँ जाओगे?

भूत० : जहाँ मेरे जी में आवेगा।

भैया० : मतलब यह है कि इस समय तुम मेरा साथ छोड़ते हो?

भूत० : हाँ, साथ छोड़ता हूँ।

भैया० : अच्छा तो एक ठिकाने बैठ कर हम लोगों का इन्तजाम करो और देखो कि हम लोग क्या करते हैं।

भूत० : मैं इस बात का वादा नहीं कर सकता।

भैया० : तो तुम बना-बनाया काम बिगाड़ना चाहते हो!

भूत० : मेरी नीयत तो यह नहीं थी मगर आप खुद अपने हाथ से सब काम चौपट किया चाहते हैं! मैं आपसे जो कुछ प्रतिज्ञा कर चुका था उसे निबाहता रहा परन्तु आप अपनी प्रतिज्ञा भंग कर रहे हैं। जो हो। अब मैं स्वतन्त्र होता हूँ और अपने मालिक के पास जाता हूँ तथा इन सब झंझटों को सदैव के लिए तिलांजुली देता हूँ।

भैया० :(चलते भूतनाथ को रोककर) सुनो-सुनों, जरा ठहरो तो! मैं एकान्त में इन्हें समझाता हूँ। और इनका भेद प्रकट करने के लिए इनसे सलाह लेता हूँ तब तक कुछ देर के लिए तुम इसी जगह खड़े रहो।

भूतनाथ को उसी जगह छोड़ कर और मेघराज तथा उनके साथी को लेकर भैयाराजा कुछ दूर पेड़ों की आड़ में चले गए और मेघराज से बातें करने लगे-

भैया० : गदाधरसिंह तो बेतरह हठ कर रहा है।

मेध० : वह लड़कपन का हठी है, मगर आप खुद सोच सकते हैं कि इस समय मेरा भेद खोलना कहाँ तक उचित होगा।

भैया० : नहीं-नहीं, आपका भेद तो कभी खुलना ही नहीं चाहिए, परन्तु मालूम होता है कि भूतनाथ अब हम लोगों का साथ नहीं देगा।

मेघ० : केवल हम लोगों का साथ न देकर ही वह सब्र कर जाये तो कोई चिन्ता नहीं, मगर वह जरूर हम लोगों का दुश्मन बन जाएगा और दारोगा से जा मिलेगा, उससे अपने रुपये वसूल करेगा और हम लोगों का भेद खोल देगा, रामेश्वरचन्द्र वाला मामला भी छिपा न रहने देगा।

भैया० : अजी वह सब काम ही चौपट करेगा! ऐसी अवस्था में हम लोगों का दारोगा के घर में घुसना खतरे से खाली नहीं है और साथ ही इसके मेरी स्त्री को भी उसके पंजे से छुटकारा मिलना असम्भव है,

मेघराज का साथी० : और मेरी उम्मीदों पर भी बिल्कुल ही पाला पड़ जाएगा। गदाधरसिंह बड़ा ही बेईमान है, चुप होकर बैठे रहना उससे कदापि न होगा, अस्तु बेहतर तो यह होगा कि उसे इसी जगह गिरफ्तार कर लिया जाये।

भैया० : (मेघराज से) आपकी क्या राय है?

मेघ० : इसके सिवाय दूसरी तरकीब ही कौन है? अगर वह दारोगा के पास जाकर सब भेद कह देगा तो अनर्थ हो जाएगा।

कुछ देर तक उन तीनों में इसी तरह की बातें होती रहीं। अन्त में यह निश्चय करके कि भूतनाथ को गिरफ्तार कर लिया जाय वे तीनों आदमी वहा पहुँचे जहाँ भूतनाथ को छोड़ गए थे। मगर अफसोस, भूतनाथ वहाँ से भाग गया था और उस जगह सिवाय पेड़-पत्तों के और कुछ भी दिखाई नहीं देता था।

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