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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

बारहवाँ बयान


भूतनाथ इन्द्रदेव से बिदा हो सीधे जमानियाँ की तरफ रवाना हुआ। इस समय वह अपनी असली सूरत में था और सफर भी उसका पैदल ही था। कोस-दो-कोस से ज्यादे न गया होगा कि सामने से एक नकाबपोश सवार आता हुआ दिखाई दिया। चेहरे पर नकाब पड़े रहने के सबब से यद्यपि भूतनाथ उसे पहिचान न सका परन्तु उस नकाबपोश ने भूतनाथ के पास आकर उसे रोका और कहा, ‘‘कहो गदाधरसिंह इस समय कहाँ जा रहे हो?’’ इतना कहने के साथ-ही-साथ उसने जरा-सा नकाब हटा कर अपनी सूरत भी दिखा दी जिससे भूतनाथ पहिचान गया कि यह भैयाराजा हैं। फिर भी भूतनाथ को विश्वास न हुआ और वह सलाम करके बोला- ‘‘केवल चेहरा देख विश्वास कर लेने की हिम्मत नहीं पड़ती अस्तु कोई भेद की बात कह के अपना परिचय दीजिए और आइन्दे के लिए भी कोई परिचय नियत कर लीजिए।’’

भैयाराजा : हाँ-हाँ, इस बात को मैं भी पसन्द करता हूँ और केवल उस दिन की बात याद दिला कर तुम्हें अपना परिचय देता हूँ जिस दिन मैंने तुमको तिलिस्मी बाग में बेहोशी की दवा पिलाई थी और तुमने भविष्य में नेक राह पर चलने के लिए कसम खाई थी। दूसरों को तुम्हारे कसम खाने पर चाहे विश्वास न हो परन्तु मैं तुम्हारी उस दिन की प्रतिज्ञा पर विश्वास करता हूँ।

भूत० :(झुक कर अदब से सलाम करने के बाद) अब मुझे विश्वास हो गया। बेशक आप मुझे जब चाहें आजमा कर देख लीजिए, मुझे अपनी प्रतिज्ञा पर सदैव दृढ़ पायेंगे।

भैयाराजा : अच्छा यह बताओ कि इस समय तुम कहाँ से आ रहे हो और कहाँ जाते हो?

भूत० : मैं इस समय इन्द्रदेव के यहाँ से आ रहा हूँ और दारोगा से मिलने के लिए जमानिया जाने का इरादा है।

भैयाराजा : मैं एक जरूरी काम के लिए तुम्हें कई दिनों से खोज रहा था, इत्तिफाक ही से तुम इस समय मुझे मिल गये।

भूत० : आज्ञा कीजिए, मैं दिलोजान से आपका काम करने के लिए तैयार हूँ। इस शरीर से अगर आपका कुछ काम निकले तो मैं अपने को बड़ा भाग्यवान समझूँगा।

भैयाराजा : अच्छा यहाँ तो बातें करने का मौका नहीं है, चलो किसी जंगल-मैदान में चल कर निश्चिन्ती से बैठें और बातें करें।

भूत० : जो आज्ञा।

घोड़े पर सवार भैयाराजा और रिकाब थामे हुए भूतनाथ दोनों आदमी वहाँ से रवाना हुए और डेढ़ घण्टे के अन्दर एक घने जंगल में पहुँच कर एक सुन्दर पत्थर की चट्टान पर बैठ गए और बातें करने लगे।

भैयाराजा : आज क्या था कि तुम इन्द्रदेव के पास गये थे?

भूत० : इस बात का पता लगा है कि दयाराम जी अभी तक जीते हैं और जमानिया के दारोगा ने उन्हें कैद कर रखा है, अस्तु इस विषय में इन्द्रदेव से मदद माँगने के लिए मैं गया था।

भैयाराजा : तो फिर क्या हुआ?

भूत० : उन्होंने मदद करने से सूखा जवाब दे दिया और कहा कि ‘मुझे दयाराम जी के जीते रहने का विश्वास नहीं होता।’

भैया० : अफसोस, न-मालूम क्या समझकर इन्द्रदेव ने ऐसा किया? अच्छा तो अब तुम क्या करोगे?

भूत० : इन्द्रदेव को चाहे विश्वास न हो परन्तु मुझे दयाराम के जीते रहने का विश्वास है अतएव जहाँ तक बन पड़ेगा मैं इस काम के लिए कोशिश जरूर करूँगा आगे मेरी किस्मत।

भैया० : बेशक कोशिश करनी चाहिए, लेकिन जिस दारोगा को खुश करने के लिए तुम मेरी जान लेने को तैयार हो गये थे उसी दारोगा के साथ तुम क्या करोगे सो मेरी समझ में नहीं आता, क्या उससे दोस्ती का नाता तोड़ दोगे?

भूत० : दारोगा को खुश करने के लिए मैंने आपके साथ दुश्मनी नहीं की थी बल्कि अपना काम पूरा करने के लिए ऐसा किया था क्योंकि उस समय दारोगा मेरा काम कर रहा था और आपने मेरे काम में बाधा डाली थी। अब तो अपना ढंग बदलने के लिए प्रतिज्ञा ही कर चुका हूँ इसलिए आपसे झूठ बोलना या किसी काम को छिपाना भी उचित नहीं अस्तु जो बात है वह साफ कह देता हूँ, मेरी और दारोगा की दोस्ती भला कब निभ सकती है? हाँ, मतलब साधने के लिए मैं दारोगा से कभी मिल जाऊँ तो कोई आश्चर्य नहीं है।

हाँ, यह कहिये आप मुझे क्यों खोज रहे थे और अब अपने लिए क्या कारर्वाई सोची है। जिस तरह आप दो दफे महल में जाकर अपनी स्त्री से मिले हैं वह ढंग भी अच्छा नहीं है, इसमें आपकी स्त्री बदनाम हो जायेगी और दारोगा को उनके साथ बुराई करने का मौका मिल जायगा क्योंकि आपके भाई साहब उस दुष्ट के वश में हो रहे हैं। इसके सिवाय मैं इस बात की इत्तिला भी आपको इसी समय दे देता हूँ कि आपकी स्त्री और कुँवर गोपालसिंह की माँ दोनों ही को मार डालने के लिए दारोगा प्रयत्न कर रहा है, अगर आप इसी तरह पर और कुछ दिन बिता देंगे तो अपनी स्त्री को जिन्दा न पाएँगे।

भैया० : (आश्चर्य और घबराहट से) क्या ऐसी बात है!

भूत० : बेशक ऐसा ही है। मैं आपसे झूठ नहीं बोलूँगा।

भैया० : अगर तुम्हारा कहना ठीक है तो मुझे अपना ढंग जरूर बदल देना पड़ेगा। अच्छा अब तुमसे यह कह लूँ कि तुम्हें क्यों खोज रहा था तब इस मामले में आगे तुमसे राय लूँ।

भूत० : जो आज्ञा।

भैया० : तुम क्या उन शागिर्दों का हाल साफ-साफ मुझसे बयान कर सकते हो जो तुमसे बागी हो गये हैं?

‘‘जी हाँ मैं आपसे सच-सच बयान कर देता हूँ।’’ इतना कह कर भूतनाथ ने उन शागिर्दों का सब ठीक-ठीक हाल भैयाराजा से बयान कर दिया जिसे सुनने के बाद भैयाराजा ने कहा, ‘‘उन शागिर्दों में से कई मुझे तुम्हारा दुश्मन समझ कर मुझसे मिले थे और मदद माँगते थे। मैंने उनसे मदद का वादा किया परन्तु यह खयाल करके कि तुम अपने लिए अच्छा रास्ता अख्तियार कर रहे हो और तुमको बाहरी खतरों से बचाना चाहिए मैं तुम्हें उनकी बाबत इत्तिला दिया चाहता हूँ।’’

भूत० : (खुश होकर) आखिरी मरतबे वे लोग कब आपसे मिले थे?

भैया० : कल शाम को मेरी उनसे मुलाकात हुई थी।

भूत० : क्या आपको उन लोगों का ठिकाना भी मालूम हुआ है कि वे लोग कहाँ रहते हैं?

भैया० : हाँ मालूम हुआ है, एक दफे मैं उनके डेरे पर भी गया था।

इसके बाद घण्टे-भर तक भूतनाथ और भैयाराजा में बातचीत होती रही जिसके लिखने की यहाँ जरूरत नहीं जान पड़ती, पर अभी उन लोगों की बातें समाप्त नहीं हो पाई थीं कि सामने से आठ आदमी नकाबपोश लगाए घोड़ों पर सवार इनकी तरफ आते हुए दिखाई पड़े। दोनों सम्हलकर खड़े हो गए और उन सवारों की तरफ देखने लगे। नजदीक पहुँचने पर उन लोगों ने तलवारें म्याने से निकाल लीं जिससे इन दोनों को विश्वास हो गया कि ये सवार हमारे दुश्मन हैं, अस्तु भूतनाथ और भैयाराजा भी तलवार म्यान से निकालकर मुकाबला करने के लिए तैयार हो गये।

पास पहुँचते ही एक सवार ने भूतनाथ पर तलवार का वार किया। भूतनाथ पैंतरा बदलकर वार खाली दे गया और तब बगल में होकर अपनी तलवार से सवार को घायल किया, भूतनाथ की तलवार दाहिने मोढ़े पर बैठी जिससे उसका दाहिना हाथ बेकार हो गया और तलवार उसके हाथ से छिटक कर जमीन पर गिर पड़ी साथ ही एक दूसरे सवार ने भूतनाथ पर वार किया जिसे भूतनाथ ने अपनी तलवार पर रोका और उसी तलवार से उस सवार पर हमला किया। वह सवार भी उस सवार को बचा गया मगर इस वार से उसका घोड़ा बेकार हो गया। इस समय बाकी के सवारों ने भी भूतनाथ पर हमला कर दिया और चारों तरफ से भूतनाथ को घेर लिया। भैयाराजा अभी तक खड़े थे मगर जब उन्होंने भूतनाथ को घिरा हुआ देखा तो तलवार उठाकर उन सवारों पर टूट पड़े। भूतनाथ यद्यपि कई दुश्मनों से घिर गया था परन्तु उसी फुर्ती, दिलावरी और होशियारी ने किसी को उस पर हावी न होने दिया अर्थात् सभों के वार बचाता हुआ बड़ी बहादुरी के साथ जवाब देता रहा और जब भैयाराजा भी उसकी मदद पर तैयार हो गये तब थोड़ी ही देर में उन सवारों की हिम्मत जाती रही क्योंकि भैयाराजा को भी उन सवारों ने वैसा ही बहादुर पाया जैसा भूतनाथ को।

थोड़ी देर की लड़ाई में दो सवार जान से मारे गये और चार जख्मी होकर जमीन पर सिसकने लगे, बाकी के दो सवारों ने पीठ दिखाकर मैदान का रास्ता लिया। यद्यपि भूतनाथ का इरादा हुआ कि जख्मी दुश्मनों के चेहरे पर से नकाब हटाकर सूरत देखे और पहिचाने के वे कौन हैं मगर इस काम को उसने पीछे के लिए छोड़ दिया और उन्हीं जख्मी दुश्मनों के घोड़े में से एक पर कूद के सवार हो भैयाराजा को यह कहता हुआ कि- ‘आप इसी जगह ठहरिये और इनके चेहरे पर से नकाब हटाकर यह देखिए कि ये लोग कौन हैं—उन भागते हुए सवारों के पीछे घोड़ा दौड़ाया। भैयाराजा को यह बात पसन्द न आई इसलिए उन्होंने भूतनाथ को आवाज देकर रोकना चाहा मगर भूतनाथ ने कुछ भी न सुना और बड़ी तेजी के साथ उन भागने वालों का पीछा किया। इस समय दिन अनुमान पहर-भर से कुछ ज्यादे बाकी था।

भैयाराजा ने जब यह देखा कि भूतनाथ ने उनकी कुछ भी न सुनी और भागने वाले दुश्मनों के पीछे चला ही गया तब वे भी अपने घोड़े पर सवार होकर भूतनाथ के पीछे रवाना हुए और थोड़ी कोशिश में भूतनाथ के पास जा पहुँचे क्योंकि भैयाराजा का घोड़ा बहुत ही तेज और ताकतवर था।

घण्टे-भर तक ये लोग बराबर भागने वालों का पीछा करते गये उन दोनों को छू न सके हाँ, पास जरूर पहुँच गये, यहाँ तक कि भागने वालों के और इनके बीच में चालीस या पचास का फासला रह गया होगा। चारों के घोड़े पसीने से तरबतर और परेशान हो गये और उनकी चाल की तेजी जाती रही।

कुछ देर बाद वे लोग पहाड़ी की तराई में जा पहुँचे। यहाँ पर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों का सिलसिला बहुत दूर तक चला गया था। कुछ दूर आगे बढ़ने पर यह मालूम होने लगा मानों ये लोग चारों तरफ से पहाड़ों के बीच घिर गए हैं। पत्थरों के रोड़ों और ढोकों के कारण घोड़ों की चाल बहुत धीमी पड़ गई थी यद्यपि भूतनाथ और भैयाराजा बराबर पीछा करते ही चले गये। दिन यद्यपि-घण्टे भर से ज्यादे बाकी था परन्तु ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच में पड़ जाने के कारण इन लोगों को यही मालूम होता था कि अब संध्या हो गई है।

पहाड़ों के बीच में चलते दोनों भागने वाले कई घूमघुमौवे रास्तों से चक्कर खाकर एक बहुत बड़े दर्रे के मुहाने पर जा पहुँचे और वहाँ भी न रुककर बराबर के दर्रे के अन्दर जाने लगे। जैसे-जैसे आगे जाते थे ऊपर से दोनों तरफ के पहाड़ आपुस में मिलते जाते थे यहाँ तक कि पहाड़ी दर्रे ने बहुत ऊँचे खोह या गुफा की सूरत पकड़ ली और तब ये लोग मानों एक साधारण अंधकर जा फंसे। उस समय दोनों ने अपने घोड़ों को रोका और भूतनाथ ने भैयाराजा से कहा- ‘‘अब तो हम लोग बहुत अंधकार और भयानक जगह आ पहुँचे हैं, यदि सामने से पाँच-दस दुश्मन आकर हम पर हमला कर दें तो हम लोगों का देखना और उन लोगों के हमले का जवाब देना कठिन हो जायगा।’’

भैया० : बेशक हम लोग बहुत ही बेढब जगह आ पहुँचे। मैंने तो तुम्हें इनका पीछा करने से मना किया था मगर तुमने न-जाने क्या समझ कर मेरी बात न मानी।

भूत० : मुझे विश्वास हो गया कि ये लोग जरूर मेरे बागी शागिर्दों में से ही हैं और पीछा करने से आज ही इन लोगों का पता मालूम हो जाएगा।

भैयाराजा : तुम्हारे बागी शागिर्दों का पता तो मैं खुद ही तुम्हें दिया चाहता था।

भूत० : मैंने खयाल किया कि उस तरह पता लगाने में बहुत दिन लग जायेंगे और ताज्जुब नहीं उन लोगों ने अपना सच्चा ठिकाना न दिखा कर आपको धोखे में डाला हो।

भैया० : मगर अब तो तुम उनका पीछा भी नहीं कर सकते और अगर पीछा करो तो उनका हाथ लगना असम्भव है।

भूत० : बेशक असम्भव है और रात हो जाने के कारण पीछे हट कर अपने ठिकाने पहुँचना और भी कठिन है। अच्छा मैं रोशनी करके एक दफे पुन: आगे बढ़ने की कोशिश करता हूँ।

भैया० : और अगर आगे चलकर अधिक दुश्मनों से मुकाबला हो गया तब क्या होगा?

भूत० : अब जो कुछ प्रारब्ध में लिखा होगा सो होगा। अफसोस, इस समय मेरे पास वह अनूठी तलवार न हुई जो मैंने प्रभाकरसिंह की कमर से पाई थी, कमबख्त दुश्मन ने मुझे बेहोश करके वह तलवार ले ली।

भैया० : यह तो दस्तूर की बात है कि जब आदमी लाचार होता है तो उसे प्रारब्ध या दैव याद पड़ता है। मुझे उस तलवार का हाल अच्छी तरह मालूम है जो तुमने प्रभाकरसिंह से पाई थी। खैर उसके लिए तुम चिन्ता मत करो, मेरी कमर में भी इस समय एक वैसी ही तलवार है।

भूत० : (आश्चर्य से और खुश होकर) जो गुण उस तलवार में था वही आपकी तलवार में भी है? अब तो मेरी हिम्मत किसी तरह टूट नहीं सकती।

भैया० : बेशक इसमें भी वही गुण है, समझ लो कि यह उसी जोड़ की तलवार है, मगर इससे यह न समझना कि यह तुम्हारी ही तलवार है या हमीं ने वह तुमसे छीन ली थी।

भूत० : नहीं-नहीं, भला ऐसा भी क्यों समझूँगा, आप तो नाहक मुझे शर्मिन्दा करते हैं। अच्छा तो अब वह तलवार आप अपने हाथ में ले लीजिए और मैं अपने बटुए में से रोशनी का सामान निकाल कर आगे बढ़ने की कोशिश करता हूँ

भैया० : अच्छा मैं तलवार निकाल लेता हूँ, तुम रोशनी करो। भूतनाथ ने अपने बटुए में से रोशनी का सामान निकाल कर मोमबत्ती जलाई और फिर दोनों आगे की तरफ बढ़े। उस खोह की लम्बाई-चौड़ाई इतनी बड़ी थी कि ये दोनों खुले तौर पर सवार बखूबी आगे बढ़ते चले गए।

आधे घण्टे तक बराबर चले जाने के बाद ये दोनों आदमी खोह खतम करके मैदान में जा निकले और तब मालूम हुआ कि अभी सूर्य भगवान के अस्त होने में कुछ देर है।

ये लोग अब एक बहुत बड़े मैदान में जिसमें बहुत-से जंगली दरख्त भी लगे थे आ पहुँचे जिसके चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और बीच में चौथाई कोस का मैदान था।

जिस तरह जंगली कोल और भील अपने रहने के लिए जंगली पेड़ों को काट कर कुटिया बनाते हैं उसी तरह की कई झोपड़ियाँ मैदान में बनी हुई थीं और इधर-उधर पेड़ों के साथ बँधे सात-आठ घोड़े भी दिखाई दे रहे थे, मगर यहाँ किसी आदमी की सूरत इन दोनों को दिखाई न दी।

भूतनाथ और भैयाराजा घोड़े से नीचे उतर पड़े और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। हम लोगों का यहाँ आना तो बिल्कुल ही बेकार मालूम पड़ता है। अब रात भी हुआ चाहती है और ऐसी अवस्था में ताज्जुब नहीं कि किसी मुश्किल का सामना आ पड़े।

ये दोनों खड़े उन कुटियों की तरफ देखते हुए तरह-तरह की बातें सोच ही रहे थे कि यकायक आठ-दस आदमी झोपड़ियों के अन्दर से निकल कर इन दोनों की तरफ बढ़ते हुए दिखाई पड़े। भैयाराजा ने भूतनाथ से कहा, ‘‘गदाधरसिंह तुमने बहुत ही नादानी का काम किया जो इन लोगों का पीछा किया। सिर्फ हम दो आदमियों को अब न-मालूम कितने दुश्मनों का सामना करना पड़े और क्या हो। देखो ये लोग लड़ने के लिए मुस्तैद होकर हमारी तरफ आ रहे हैं।’’

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