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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान


इन्द्रदेव के कैलाश-भवन में आज भूतनाथ को बड़ी बेचैनी-बेताबी और उदासी के साथ बैठे हुए देखते हैं। इन्द्रदेव इस समय अपने पूजा के कमरे में बैठे पार्थिव पूजन कर रहे हैं और बीच-बीच में जब मौका मिलता है तो भूतनाथ से दो-चार बातें भी कर लेते हैं। सिवाय इन्द्रदेव और भूतनाथ के तीसरा कोई आदमी इस कमरे में दिखाई नहीं देता। हम नहीं कह सकते कि भूतनाथ को यहाँ आये हुए कितनी देर हुई है तथा इन दोनों में क्या-क्या बातें हो चुकी हैं परन्तु अब जो कुछ बातें होने वाली हैं वे जरूर सुनने के योग्य हैं।

भूत० : मेरी जिन्दगी तो मुफ्त में ही बरबाद हो रही है, दिन-रात दुश्मनों ही के खयाल में बीतता है। अपनी सफेद चादर में पड़े हुए एकमात्र धब्बे को ज्यों-ज्यों धोकर साफ करने की कोशिश करता हूँ त्यों-त्यों वह चादर गंदली ही होती जाती है और इसलिए मेरी अन्तरात्मा को सिवाय कष्ट के कुछ सुख का दर्शन भी नहीं होता।

इन्द्रदेव : तुम्हारे प्रारब्ध में जो कुछ बदा है उसे तुम भोग रहे हो, इसके सिवाय और मैं क्या कहूँ। केवल तुम ही दु:ख नहीं भोगते बल्कि अपनी बेवकूफी से अपने साथ-ही-साथ अपने दोस्तों और साथियों को भी दु:खी करते हो। न-मालूम कै दफे मैं तुमको समझा चुका हूँ कि तुम इन बखेड़ों को छोड़ो और इस बात की धुन में न पड़ो कि दयाराम के मारने का कलंक जो तुम पर लगा है उसे मिटा कर साफ करोगे, मगर तुम्हारे दिल में मेरी कोई बात बैठती ही नहीं। दयाराम वाली जिस बात को केवल चार आदमी जानते थे उसे अब तुम्हारी बेवकूफी से बीस आदमी जानने लग गये हैं। तुम इस मामले को तूल न देते तो हम लोगों के मुँह से कोई गैर आदमी कभी न सुनने पाता।

भूत० : बेशक मुझसे भूल हो गई।

इन्द्न : अभी तक क्या हुआ है, अभी तो तुम दिनों-दिन भूलें करते ही जाओगे। दयाराम के मारने का कलंक कोई सच्चा कलंक नहीं था, वह काम वास्तव में तुमसे धोखे से हो गया, मगर उस संबंध में अब जो कुछ तुम कर रहे हो वह जान-बूझ कर रहे हो और इन सब पातकों का फल तुम्हें अवश्य भोगना ही पड़ेगा। इस समय जो तुम अपने लड़के के गम में विकल हो रहे हो यह भी इन्हीं सब पापों का फल है। ऐसा कर्म करके भी तुम अपने वंश की वृद्धि चाहते हो!

भूत० : (अपनी आँखों से आँसू पोंछ कर) अफसोस, मैं कहीं का न रहा।

इन्द्रदेव : बेशक ऐसा ही है, अब नहीं तो आगे चल कर तुम वास्तव में कहीं के भी न रहोगे। मैं तुमसे पूछता हूँ कि जमना और सरस्वती के साथ क्या तुम्हें ऐसा ही बर्ताव उचित था जो तुमने किया?

भूत० : उन्होंने खुद मेरे साथ दुश्मनी की नींव डाली। मैं नहीं चाहता था कि उनके साथ किसी तरह का बुरा बर्ताब करूँ।

इन्द्रदेव : मगर थोड़ी देर के लिए मान लिया जाये कि वे दोनों तुम्हारे साथ दुश्मनी करने के लिए उतारू हुईं मगर क्या कोई कह सकता है कि तुम्हारे ऐसे ऐयार का वे मुकाबिला कर सकती थीं? कदापि नहीं, अगर तुम चाहते हो नेक-नीयती के साथ उन्हें मालिक समझकर उनके प्रहारों को बचाते हुए नेक और खिदमती कामों से उन्हें खुश कर लेते। मगर नहीं, तुम्हें तो ऐयारी का घमण्ड चढ़ा हुआ था, तुम्हारे अदृष्ट ने तुम्हारा दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया था, फिर ऐसा काम होता ही क्यों? उनकी नेकनीयती और उनके पतिव्रत धर्म ने उनकी रक्षा की और अन्त में तुम उनका कुछ न बिगाड़ सके।

भूत० : जिसकी मदद आप करेंगे उसका भला मैं क्या बिगाड़ सकता हूँ?

इन्द्रदेव : (कुछ बिगड़े हुए ढंग से) तुम्हारे पास क्या सबूत है कि मैं उनका मददगार बना था।

भूत० :सबूत तो कुछ भी नहीं है परन्तु..।

इन्द्रदेव : सिवाय मेरे कोई दूसरा उन्हें तुम्हारे दोस्त दारोगा के फन्दे से छुड़ा नहीं सकता था, बस यही तो कहोगे या कुछ और?

भूत० :विचार तो मेरा ऐसा ही है, आज मैं आप से साफ-साफ कहता हूँ कि बेशक मैं इस मामले में अपराधी हूँ और इसके लिए पश्चात्ताप करता हूँ।

इन्द्रदेव : जब तुम्हारे किये कुछ हो ही नहीं सका तो अब जरूर ही पश्चात्ताप करोगे परन्तु इन्दुमति और प्रभाकरसिंह के बारे में शायद तुम पश्चात्ताप भी न करो।

भूत० : आज आप मुझसे बहुत ही जली-कटी बातें कर रहे हैं, ऐसा, तो कभी नहीं करते थे।

पूजा-विसर्जन करके इन्द्रदेव ने जवाब दिया–

इन्द्रदेव : तुम्हारा कहना ठीक है। तुम्हारे दुष्ट कर्मों को देखते-देखते अब मेरा चित्त बहुत ही दु:खी हो चुका है। मैं अपनी जुबान से तुम्हें दोस्त कह चुका हूँ उसी का निर्वाह करता चला आया हूँ, नहीं तो..।

भूत० : नि:संदेह आपने आज तक उस शब्द का ऐसा निर्वाह किया कि जैसा कोई नहीं कर सकता। आपका हौसला आपकी हिम्मत और आपकी मर्दानगी सराहने योग्य है। अब मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। आप मेरे अपराधों को क्षमा करें, आज मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब से कदापि किसी पाप-कर्म में हाथ न डालूँगा।

इन्द्रदेव : तुम्हारी प्रतिज्ञा पर तो मैं विश्वास नहीं कर सकता परन्तु यह तुम स्वयं जानते हो कि मैं अपनी तरफ से तुम्हें दु:ख देने की इच्छा कदापि नहीं रखता और इस हिसाब से कहना चाहिए कि मैं हमेशा ही तुम्हारा कसूर माफ करता चला आता हूँ।

भूत० : नि:सन्देह मुझे यह बात माननी पड़ेगी। मेरा दिल इस बात की गवाही देता है, मैं खुद समझता हूँ कि मेरे ऐसे को तबाह कर देने के लिए आपका इशारा काफी है।

मगर नहीं, आप हमेशा ही मुझे समझाते और मेरे अपराधों को क्षमा करते चले आये हैं और इसी से आज मुझे पुन: आपके पास आने की हिम्मत हुई है नहीं तो वास्तव में मैं मुँह दिखाने लायक नहीं हूँ, पर आज मुझे एक ऐसी बात मालूम हुई जिसके प्रकट होने से मैं सदा के लिए बेगुनाह साबित हो सकता हूँ साथ ही इसके मेरा और मेरे दोस्तों का उपकार भी हो सकता है।

इन्द्रदेव : वह क्या?

भूत० : मुझे इस बात का ठीक-ठीक पता लग चुका है कि दयाराम जी अभी तक जीते हैं और जमानिया के कम्बख्त दारोगा ने उन्हें कैद कर रक्खा है। आप जानते हैं कि तिलिस्म से संबंध रखने के कारण दारोगा की ताकत कितनी बढ़ी-चढ़ी है, अस्तु यदि आप मेरी मदद करें तो मैं दयाराम को उसके कब्जे से छुड़ा लूँ। दयारामजी के छूट जाने पर हम लोगों में एक अजीब तरह की खुशी पैदा होगी और मेरे माथे से भी सदैव के लिए कलंक का टीका मिट जाएगा।

इन्द्रदेव : (सिर हिला कर) इस असम्भव बात को भला कौन मान सकता है? भला दयाराम से दारोगा का क्या संबंध है? मैं इस बात को कदापि नहीं मान सकता न इस आकाश-कुसुम के फेर में पड़ता हूँ। इसके अतिरिक्त तुम जानते ही हो कि दारोगा मेरा गुरुभाई है, अतएव तुम्हारी तरह उसके ऊपर भी किसी तरह का प्रहार नहीं करना चाहता, तुम्हें यदि दयाराम के जीते रहने का विश्वास हो तो जो कुछ उद्योग करते बने करो मगर मुझसे किसी तरह पर मदद पाने की आशा मत करो।

भूत० : (उदास होकर) क्या आपको दयारामजी के छूटने से प्रसन्नता न होगी?

इन्द्रदेव : होगी और जरूर होगी परन्तु इसकी कोई आशा भी तो हो!

भूत० : यदि आप मेरी मदद करें तो मैं अपनी बात सच करके दिखा दूँ।

इन्द्रदेव : नहीं, दारोगा के विरुद्ध किसी कार्रवाई की मुझसे तब तक आशा मत रक्खो जब तक मुझे इस बात का पूरा विश्वास न हो जाये!

भूत० : मुझे जिस तरह मालूम हुआ है वह हाल सुनने ही से आपको मेरी बातों पर विश्वास हो जायेगा।

इन्द्रदेव : अजी वह निरंजनी और छन्नो वाली बात ही तो! मैं इस मामले को अच्छी तरह सुन चुका हूँ। वे दोनों तथा ध्यानसिंह तुम्हें धोखे में डालना चाहते हैं। दुश्मनों की बातों पर तुम न मालूम क्योंकर विश्वास कर बैठते हो!

भूत० : (आश्चर्य से) यह बात आपको कैसे मालूम हुई?

इन्द्रदेव : मुझे सब कुछ मालूम है और जिस तरह तुमने जंगल में छिप कर छन्नो की बातें सुनी हैं वह भी मैं जानता हूँ, मुझसे कुछ छिपा नहीं है।

भूत० : तो क्या आपके खयाल में वे सब बातें झूठ हैं?

इन्द्रदेव : झूठ, बिलकुल झूठ!

भूत० : मैं स्वयं ध्यानसिंह के पास गया था। वह तो बड़े जोश से अपनी बात की पुष्टि करता है।

इन्द्रदेव : भले ही किया करे।

भूत० :मगर मुझे उसकी बातों पर पूरा-पूरा विश्वास होता है।

इन्द्रदेव : अगर विश्वास होता है तो उद्योग करके देख लो।

भूत० : मगर आप इस काम में कुछ भी मदद न करेंगे?

इन्द्रदेव : कदापि नहीं, तुम्हारी मदद करके मैं स्वयं बदनाम हो सकता हूँ यद्यपि हजार दुष्टता करने पर भी तुम्हें और दारोगा को मैं बराबर माफ करता चला आया हूँ परन्तु अब किसी काम में भी तुम दोनों की मदद मैं नहीं कर सकता। बात तो यह है कि अब तुम दोनों ही से घृणा हो गई है।

भूत० : मैं कह चुका हूँ कि भविष्य में कभी ऐसा काम न करूँगा और जो कुछ कर चुका हूँ उसके लिए माफी माँगता हूँ।

इन्द्रदेव : केवल इतना कहने ही से मैं सन्तुष्ट नहीं हो सकता। जब तक तुम दुनिया में नेक काम करके अपने बुरे कामों का प्रायश्चित न करोगे तब तक मैं तुमसे कोई वास्ता न रखूँगा। हाँ, इस बात से तुम जरूर बेफ्रिक रहना कि मैं तुम्हारे साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव अपनी जात से कदापि न करूँगा।

भूत० : इसका तो मुझे जरूर भरोसा है और आपको भी शायद विश्वास होगा कि मैं आपका कैसा लिहाज करता हूँ। मेरी जात से आपको कभी भी तकलीफ नहीं पहुँच सकती और..।

इन्द्रदेव : (बात काट कर) यह तो मैं समझता हूँ, परन्तु मेरे स्वजनों को जो तुम तकलीफ देते हो क्या उसका असर मेरे दिल पर नहीं होता है?

भूत० : जरूर होता होगा, इस बात का तो मैं बेशक कसूरवार हूँ। मगर आप देख लीजिएगा कि आइन्दा मुझ से कभी ऐसी हरकत न होगी।

इन्द्रदेव० : अच्छा, मैं तुम्हारी इस बात को भी आजमा कर देखूँगा।

भूत० :जिस तरह आप चाहें आजमा लीजिए।

इन्द्रदेव : अच्छा अब तुम जाओ और दयाराम के विषय में उद्योग व्यर्थ समझो।

भूत० : मैं उम्मीद करता हूँ कि इस विषय में उद्योग करने से आप मुझे रोकेंगे नहीं और मुझे मेरी हिम्मत-भर कोशिश करने देंगे।

इन्द्रदेव : नहीं-नहीं, यह कदापि न समझो कि मैं तुम्हें रोकता हूँ, हाँ, अपने दिल का विश्वास तुम पर प्रकट करता हूँ, आइन्दा तुम्हारी खुशी।

भूत० : अच्छा तो मैं जाता हूँ परन्तु एक बात पूछने की लालसा मेरे दिल में बनी ही रह जायेगी जिसका कहना था तो बहुत जरूरी परन्तु आपके डर से अब पूछने में संकोच होता है।

इन्द्रदेव : संकोच की बात नहीं है, मैं खुले दिल से तुम्हें इजाजत देता हूँ कि जो कुछ तुम्हारे दिल में आवे कहो और पूछो। मैं पहिले कह चुका हूँ कि अपनी तरफ से तुम्हें सिवाय नसीहत करने के किसी तरह की तकलीफ कदापि न दूँगा, मगर साथ ही इसके यह बात भी जरूर है कि जब तक सीधी राह पर न आओगे और अपने पापों का प्रायश्चित्त न कर लोगे तब मैं किसी काम में तुम्हारी मदद न करूँगा, इसे खूब समझे रहना।

भूत० : (कुछ सोच कर) बस जब कि आपकी तरफ से कोरा जवाब ही मिल गया तब अब मुझे कुछ पूछने की जरूरत भी न रही।

इन्द्न : (मुस्कराते हुए) तथापि मैं सुन तो लूँ कि तुम क्या कहने को थे और क्या पूछना चाहते थे?

भूत० : आपसे तो मैं वादा ही कर चुका हूँ कि भविष्य में अब किसी तरह का अपराध न करूँगा और आपने भी मुझे विश्वास दिला दिया है कि अपनी तरफ से किसी तरह की तकलीफ न पहुँचने देंगे, परन्तु मैं अपने चन्द बेईमान शागिर्दों की तरफ से बहुत लाचार हो रहा हूँ जो कि मुझसे बागी हो गये हैं और मेरी जान के पीछे लगे हुए हैं, ताज्जुब नहीं कि मैं उनके हाथ से मारा जाऊँ, अस्तु इसी विषय में आपसे मदद चाहता था।

इस मामले को इन्द्रदेव तो जानते ही थे और उन्हीं की मदद से भूतनाथ के शागिर्दों की जान बची थी तथापि अनजान बन कर आश्चर्य का नाट्य करते हुए इन्द्रदेव ने भूतनाथ से पूछा- ‘‘क्यों ऐसा क्यों हुआ? तुम्हारे शागिर्द तो तुम्हारे बड़े भक्त थे!’’

भूत० : हाँ, था तो ऐसा ही मगर मुझसे उन लोगों के विषय में एक ऐसी भूल हो गई जिसके लिए मैं बहुत ही पछता रहा हूँ।

इतना कह कर भूतनाथ ने अपने शागिर्दो का हाल उनके विषय में जो कुछ बेमुरौवती हो गयी थी सब सच-सच और साफ बयान कर दिया जिसे सुन कर इन्द्रदेव ने कहा, ‘‘मैं बहुत खुश हुआ कि तुमने यह किस्सा साफ-साफ बयान कर दिया।

बेशक वे लोग तुम्हें तकलीफ देंगे, यद्यपि मैं कह चुका हूँ कि तुम्हें किसी तरह की मदद न दूँगा तथापि तुम्हारी मुरौवत से इतना वादा करता हूँ कि तुम्हारी जान की रक्षा करूँगा और उन लोगों के हाथ से तुम्हारी जान पर नौबत न आने दूँगा, इससे तुम निश्चिन्त रहो, मगर तुम्हें यह किसी तरह भी न मालूम होने पायेगा कि मैंने कब और किस तरह तुम्हारी मदद की।’’

भूत० : आप समर्थ हैं, जो चाहे कर सकते हैं, अब मैं आपका भरोसा पाकर कुछ निश्चिन्त हो गया, अच्छा जाता हूँ, जय माया की।

इतना कह कर भूतनाथ वहाँ से विदा हुआ, जाते समय इन्द्रदेव ने कहा, ‘‘कभी-कभी तुम मुझसे मिलते रहना जरूर।’’

हमारे प्रेमी पाठक समझते होंगे कि चलो अब किस्सा खतम हो गया और बखे़ड़ा निपट गया।

जमना और सरस्वती को दयाराम मिल ही गये, प्रभाकरसिंह और इन्दुमति का संयोग हो ही गया, साथ ही इसके भूतनाथ ने भी यह प्रण कर लिया कि अब भविष्य में कोई बुरा काम न करेगा इत्यादि, परन्तु नहीं, जमना, सरस्वती, दयाराम, इन्दुमति और प्रभाकरसिंह वगैरह के लिए अभी सुख का जमाना नहीं आया।

उनका अदृष्ट अभी तक उनके सर पर नाच रहा है। जमानिया में गोपालसिंह जिस घटना के शिकार हुए थे और भूतनाथ को उस घटना से जैसा कुछ सरोकार था उसी तरह इन लोगों को भी उस घटना से घनिष्ट संबंध था, इसलिए गोपालसिंह के साथ-ही-साथ इन सभों को बड़ी-बड़ी तकलीफें उठानी पड़ीं जैसा कि आगे चलकर आपको मालूम होगा।१ (१. अपनी जीवनी लिखते-लिखते भूतनाथ यहाँ पर नोट लिखता है-

मैं पहिले भी कह चुका हूँ और अब भी कहता हूँ कि मेरी यह जीवनी मेरे दोस्तों के भरोसे पर लिखी जा रही है, अर्थात् राजा गोपालसिंह को ग्रहदशा से छुटकारा मिलने पर और राजा बीरेन्द्रसिंह की तरफ से मुझे माफी मिल जाने पर मुझे यह मौका मिला कि अपने इन्द्रदेव ऐसे मित्रों और मेहरबानों से जो कुछ भेद मुझे मालूम न थे उन्हें पूछ-पूछ कर अपने किस्से का सिलसिला दुरुस्त करूं। मगर इसी तरह जो कुछ हाल दारोगा अथवा उसके साथियों से संबंध रखता था उसका असल भेद मुझे मालूम न हुआ, जैसे भैयाराजा का परिणाम- उसे मैं किसी तरह भी पता लगा कर न लिख सका जिसके लिए मैं महाराज और महाराज कुमारों से क्षमा माँगता हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन दिनों मुझसे बड़े-बड़े अपराध हो रहे थे और इन्द्रदेव उन सभों को क्षमा करते जाते थे परन्तु दारोगा के अपराधों को क्षमा कर देना जमानिया राज्य अथवा राजकुल के लिए जहर हो गया।

भले इन्द्रदेव दारोगा को किसी तरह की सजा न देते पर उसकी दुष्टता से राजा गिरधरसिंह को और उनको नहीं तो कम-से-कम गोपालसिंह को भी होशियार कर देते तो उन पर ऐसी मुसीबत का पहाड़ आकर न टूट पड़ता। यह सही है कि लक्ष्मीदेवी वाले मामले की इन्हें ठीक-ठीक खबर नहीं हुई और यदि कुछ खबर हुई भी तो उस समय जबकि राजा गोपालसिंहजी का देहान्त हो जाना सर्वसाधारण में प्रसिद्ध हो चुका था और इसीलिए उस समय इन्द्रदेव ने मामले को उठाना कदाचित् व्यर्थ ही समझा होगा।

इसके अतिरिक्त वे अपनी लड़की और स्त्री के गम में बिल्कुल ही उदासीन हो गये थे अस्तु जमाने की अवस्था पर ध्यान देना क्योंकर अच्छा मालूम होता होगा? मतलब यह कि दारोगा के हाल से राजा गोपालसिंह को सच्ची अगाही न होना ही अनर्थ का मूल हो गया। भैयाराजा का मामला भी राजा गोपालसिंह को ठीक-ठीक मालूम न हुआ नहीं तो वे कुछ चैतन्य जरूर हो जाते। सच है, आग बुझाना और चिनगारी छोड़ देना, साँप मारना और उसके बच्चे की हिफाजत करना, बुद्धिमानों का काम नहीं। इन्द्रदेव ने दारोगा की ताकत को तोड़ दिया सही मगर उसे छोड़ दिया। मगर सम्भव है कि मेरी नालायकी से भी उन्होंने धोखा खाया हो।

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