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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


जमानिया में दारोगा साहब का मकान कैसा है उसका कुछ हाल हमारे पाठकों को मालूम हो चुका है, जमना, सरस्वती और इन्दुमति उस मकान की हवा खा चुकी हैं। भैयाराजा को भी दारोगा उस मकान का मजा चखा चुका है। इस समय हम पुनः हम अपने पाठकों को उसी मकान में ले चल कर दिखाते हैं कि अब यहाँ क्या हो रहा है।

हाथ में छोटी-सी लालटेन और तालियों का एक बड़ा-सा गुच्छा लिए हुए आधी रात के समय हम एक आदमी को इस मकान में घूमते हुए देखते हैं। इस आदमी का तमाम बदन स्याह कपड़े में छिपा हुआ है और इसके चेहरे पर भी स्याह नकाब पड़ी हुई है। तालियों के गुच्छे में से वह तालियाँ लगा-लगा कर कोठरियाँ खोलता ओर देखता है कि उसके अन्दर क्या है और फिर बन्द कर देता है। इसी तरह पर घूम-फिर कर कोठरियाँ खोलता और देखता हुआ वह आदमी एक ऐसी कोठरी के दरवाजे पर पहुँचा जिसके आगे मिट्टी का एक टूटा हुआ घड़ा और कुछ सूखी रोटियाँ पड़ी हुई थीं तथा मामूली ताले के अलावा एक और भी मोटी जंजीर लगी हुई और उसमें बहुत बड़ा ताला बन्द था।

उस आदमी ने उस ताले, मिट्टी के घड़े सूखी रोटियों को बड़े गौर से देखा और कुछ सोचता हुआ पहिले की तरह उसी ताली के गुच्छे में से एक ताली चुन कर उस कोठरी का भी ताला खोला मगर उस बड़े ताले की ताली उस गुच्छे में न दिखाई दी जो जंजीर में लगा हुआ था और न दूसरे तालों की तरह उस ताले पर कोई नम्बर या निशान लगा हुआ पाया।

कुछ क्षण चिन्ता करने के बाद उस आदमी ने धीरे-से यह कह कर कि ‘जरूर इसी में होगा’ लालटेन जमीन पर रख दी और ऐयारी का बटुआ खोल कर उसमें से एक शीशी निकाली जिसमें किसी प्रकार का अर्क भरा हुआ था। इस अर्क से नकाबपोश ने ताले वाली जंजीर का मध्य भाग अच्छी तरह तर किया और खड़े रह कर इस बात का इन्तजार करने लगा कि जंजीर के दो टुकड़े हों जायें तो कोठरी के अन्दर कदम रक्खे।

आधी घड़ी के अन्दर ही जंजीर का लोहा उस जगह से, जहाँ अर्क लगाया गया था, गल कर बह गया और एक हल्की आवाज देती हुई वह जंजीर बीच में से दो टुकड़े होकर जुदा हो गई। नकाबपोश ने लालटेल उठा ली और धीरे-से दरवाजा खोलकर कोठरी के अन्दर कदम रक्खा।

भीतर से यह कमरा बहुत बड़ा और कई बाद:कश बने रहने के कारण हवादार था, फिर भी अंधकार तो मानो उसके हिस्से ही पड़ा था। यद्यपि इस समय वह नकाबपोश लालटेन लिए हुए उस कमरे के अन्दर चला गया है परन्तु उस लालटेन की रोशनी उस बड़े कमरे के अंधकार को किसी तरह भी दूर नहीं कर सकती थी, तथापि नकाबपोश ने इतना जरूर देखा कि एक आदमी जमीन पर बैठा हुआ उसी नकाबपोश अथवा दरवाजे की तरफ देख रहा है क्योंकि नकाबपोश के अन्दर जाने के पहिले ही इस बदनसीब कैदी को दरवाजा खुलने की आहट मिल चुकी थी और उसी समय से वह चैतन्य हो चुका था। (१. जिस नल की राह धुआँ निकल जाता है अथवा हवा कमरे के अन्दर आती और पुन: बाहर निकल जाती है उसे बाद:कश कहते हैं।)

कैदी: (नकाबपोश से) क्या अभी कोई और बदखबर सुनानी बाकी है? मैं समझता हूँ कि अब तुम्हें ज्यादा दिनों तक मुझे सताने की जरूरत न पड़ेगी क्योंकि इस कैद की बदौलत अब मेरा शरीर चलता नजर नहीं आता। लेकिन आज तुम नकाब पहिरे चोरों की तरह आये हो, इसमें कोई भेद जरूर है।

नकाबपोश : मैं कोई बदखबर सुनाने के लिए नहीं आया बल्कि खुशखबरी सुनाने के लिए आया हूँ, अब यह कैदखाना तुम्हारी जान का ग्राहक नहीं बन सकता, मैं वह नहीं जिसने तुम्हें इस मकान में कैद कर रक्खा है।

कैदी : अर्थात् जमानिया राज्य के कर्ता-धर्ता दारोगा साहब!

नकाबपोश : जी हाँ, मैं वह दारोगा नहीं हूँ।

कैदी : तब आप कौन हैं, क्या अपना नाम बता सकते हैं?

नकाबपोश : जी हाँ, अगर आपका नाम दयाराम है तो मैं अपना नाम जरूर बता सकता हूँ।

कैदी : नि:सन्देह मेरा नाम दयाराम है।

नकाबपोश : मुझे क्योंकर विश्वास हो कि आपका यही नाम है?

कैदी : आपका नाम मुझे मालूम हो तो मैं कोई परिचय का शब्द ऐसा कह सकता हूँ जिसको सिर्फ मेरे दोस्त ही समझ सकते हैं।

नकाबपोश : ठीक है, अच्छा अगर मेरा नाम इन्द्रदेव हो तो आप कौन शब्द परिचय का दे सकते हैं?

कैदी : अगर आप वास्तव में इन्द्रदेव होंगे तो परिचय लेकर मैं ‘भुवनमोहिनी’ की बातें आपको सुना दूँगा।

नकाबपोश : तब तो ‘कामेश्वर’ का कहना बहुत सच होगा।

यद्यपि वह कैदी बहुत ही कमजोर और दुबला हो रहा था परन्तु नकाबपोश अर्थात् इन्द्रदेव की आखिरी बात सुन कर बैठा न रह सका, उठ खड़ा हुआ और दौड़ कर इन्द्रदेव से लिपट गया तथा इन्द्रदेव ने भी उसे गले लगा लिया और देर तक न छोड़ा, जब दोनों अलग हुए तो यों बातचीत होने लगी-

दयाराम : चाचा, तुम तो मुझे एक दम भूल गए, ताज्जुब की बात है कि इतने दिनों तक तुमने मुझे याद क्यों नहीं किया? (१. इन्द्रदेव को दयाराम चाचा के समान मानते थे और चाचा ही कह कर पुकारते थे।)

इन्द्नदेव : मेरे प्यारे भतीजे, मेरे दिल से तुम्हारी याद कभी भी भूल नहीं सकती, और इसकी गवाही खुद तुम्हारा दिल दे सकता है, मगर अफसोस, हम लोगों को इसका गुमान नहीं था कि तुम अभी जीते-जागते हो। दुनिया को यही मालूम था कि दयाराम मारे गये और हम लोग दस-पाँच आदमियों को तो यह निश्चय था कि खुद भूतनाथ के हाथ तुम्हारी जान गई है क्योंकि मामला मेरे दोस्त दलीपशाह के सामने ही हुआ था अर्थात् मेरे शागिर्द ने राजसिंह के घर तुम्हारा पता लगाया था और मैंने अपने शागिर्द शम्भी के साथ दलीपशाह को राजसिंह के घर भेजा था, दलीपशाह वहाँ पहुँचे और राजसिंह को गिरफ्तार करके तथा तुमको उनकी कैद से छुड़ा कर अपने यहाँ ले आए। यह तो अब मालूम हुआ है कि दलीपशाह तुमको नहीं बल्कि राजसिंह के भतीजे को जो बहुत दिनों से बीमार था दयाराम समझ कर उठा लाए थे। यकायक भूतनाथ पता लगाता हुआ वहाँ पहुँच गया जहाँ दलीपशाह राजसिंह को और उसके भतीजे को दयाराम समझ कर ले गए थे। राजसिंह को वहाँ देखकर भूतनाथ को विश्वास हो गया कि दलीपशाह राजसिंह के साथ मिला हुआ है अस्तु भूतनाथ और दलीपशाह में लड़ाई हो गई, भूतनाथ ने राजसिंह को मार डाला और तब उसके भतीजे को भी मार डाला। तब दलीपशाह ने भूतनाथ से कहा कि ‘हम इन्द्रदेव के कहने से दयाराम की खोज में निकले थे और पता लगा कर दयाराम को तथा उसके दुश्मन राजसिंह को यहाँ ले आए थे, तुमने राजसिंह को मार डाला सो अच्छा ही किया मगर अफसोस की बात है कि दयाराम को भी अपने हाथ से स्वर्ग पहुँचा दिया’। दलीपशाह को तो विश्वास ही था कि यह दयाराम है परन्तु भूतनाथ को भी दलीपशाह के कहने से तथा यहाँ की कई अन्य बातों से विश्वास हो गया है कि यही दयाराम हैं और वास्तव में उसने उन्हें ही धोखे में मार डाला है। उसी दिन से हम लोग यही विश्वास करते चले आये कि वास्तव में दयाराम भूतनाथ के हाथ से मारे गये। यद्यपि यह घटना भूतनाथ के लिए दुखदाई हुई परन्तु लोगों में प्रसिद्ध होने न पाई, क्योंकि शम्भू, दलीपशाह और मैं सिर्फ तीन आदमी इस बात को जानते थे सो भूतनाथ ने माफी माँगने तथा आज जी करने पर और यह समझ कर कि वास्तव में भूतनाथ बेकसूर है चुप हो रहे और इस भेद को प्रकट होने न दिया, सिर्फ मन-ही-मन रोते और अफसोस करते रहे। बातें बहुत लम्बी-चौड़ी हैं मगर यह मकान तथा कैदखाना इस योग्य नहीं है कि हम लोग यहाँ बेफिक्री के साथ बातें करें। असल बात यही है कि हम लोगों को स्वप्न में भी इस बात का गुमान नहीं था कि तुम्हें इस कैदखाने में एक दिन भालू की-सी सूरत में देखेंगे, कैद की सख्ती उठाने और बालों के बढ़ आने से वास्तव में तुम्हारी ऐसी ही सूरत हो रही है।

दया० : आपका कहना बहुत ठीक है, यह कैदखाना निश्चिन्ती से बातें करने लायक नहीं है और मुझे भी उन घटनाओं के सुनाने की जल्दी नहीं है जो मेरे पीछे हुई हैं और न अपनी राम कहानी सुनाने की ही जल्दी है, हाँ इतना जरूर पूछूँगा कि मेरे चाचा रणधीरसिंह तथा मेरी दोनों स्त्रियों का क्या हाल है?

इन्द्रदेव : वो दोनों कुशल से हैं। तुम्हारी दोनों स्त्रियाँ अभी तक मेरे मकान में मौजूद हैं परन्तु दुनिया में यही मशहूर हैं कि वे दोनों मर गईं, और इस बात के मशहूर करने का कारण भी मैं ही हूँ, क्योंकि तुम्हारी स्त्रियों को भूतनाथ से बदला लेने का शौक पैदा हुआ और उनकी जिद्द मुझे माननी पड़ी। मैंने खयाल किया कि यदि भूतनाथ को यह बात मालूम हो जायगी कि वे दोनों उससे बदला लिया चाहती हैं तो वह जरूर दोनों को मार डालेगा अस्तु पहले ही से उन दोनों को मरा हुआ मशहूर कर देना उचित है। यह सब कुछ हुआ परन्तु मेरी इच्छानुसार वे दोनों बहुत दिनों तक अपने को छिपा न सकीं, भूतनाथ को उनका जीते रहना मालूम हो गया और वह अभी तक उन दोनों को मारने की फिक्र में लगा हुआ है। इस विषय में भी बड़ी-बड़ी अनूठी घटनाएँ हो गई हैं जिन्हें सुन कर तुम आश्चर्य करोगे परन्तु मौका ठीक नहीं है अब मैं इस कमरे को अच्छी तरह देखने के बाद तुम्हें साथ लेकर बाहर निकलना चाहता हूँ।

दया० : हां, देखिये कैसा भयानक कैदखाना है! यहाँ रहने वाला चाहे कितना ही चिल्लाये मगर उसकी आवाज किसी के कान में भी नहीं पहुँच सकती। यह देखिये यही दोनों कम्बल मेरी किस्मत में सौंपे गए हैं। यह मिट्टी का घड़ा जो है चौथे या पाँचवे दिन भरा जाता है मगर इधर आठ दिन से इसमें पानी नहीं डाला गया। शायद अब इसमें एक या दो गिलास से ज्यादा पानी न हो। देखिये ये मेरे भोजन की टोकरी है, जब इस घड़े में पानी डाला जाता है तभी इस टोकरी में पूरियाँ और तरकारी तथा नमक-मिर्च रखने का दिन होता है। महीने में एक दफे नहाने के लिए जल मिलता है, यह कोने में मिट्टी का ढेर लगा दिया गया है बस इसी को बदन में मल कर मैं मानो भस्म-स्नान करता हूँ और यों ही संध्या भी कर लिया करता हूँ। यह इधर पायखाना बना हुआ है, पायखाना काहे को खासा कूँआ है, यह भी इतना गहरा है कि मिट्टी फेंकने से आवाज़ नहीं आती, यह टूटी हुई चारपाई पड़ी है, पहिले मैं इसी पर सोता था मगर जब से यह टूट गयी तब से जमीन को ही मखमली फर्श समझता हूँ।

इन्द्र० : इस मकान की हालत तो को मैं खूब जानता हूँ, सिर्फ तुम्हारा सामान देखना था (आँखों से आँसू पोंछ कर) हा दैव, हम लोगों ने कौन ऐसा पाप किया था जिसका इस तरह फल भोग रहे हैं? मनुष्य को उसके ही कर्मों का फल देना तेरा काम है या अपनी तरफ से भी दया करके कुछ देना जानता है! खैर, मैं तुझसे कुछ भी नहीं चाहता परन्तु तेरा भरोसा जरूर रखता हूँ।

दयाराम : चाचा, इसके लिए हम ईश्वर को किसी तरह का दोष नहीं दे सकते, उसका तो यह काम ही है कि लोगों को उनके कर्मों का फल भुगताया करे, उसमें ज्यादे या कम करने से वह बेइन्साफ कहा जायगा। अगर वह कर्म के अतिरिक्त एक के साथ भी कुछ उपकार करेगा तो औरों को भी उपकार करने का हक हो जायगा, क्योंकि उसकी निगाह में भी उसके सभी बच्चे एक समान हैं, इसलिए हम लोगों को एक तौर पर यहीं समझ लेना चाहिए कि हमारा कर्म ही हमारा ईश्वर है और इसीलिए कर्म और उद्योग में लगे रहना ही धर्म है, फल चाहे जो कुछ भी हो।

इतने में ही बाहर की तरफ से कुछ खटके की आवाज आई और दोनों ध्यान लगाकर दरवाजे की तरफ देखने लगे।

दयाराम : शायद दारोगा आ पहुँचा।

इन्द्र० : नहीं, वह तो हमारी कैद में है मगर उसे यह नहीं मालूम कि मुझे इन्द्रदेव ने कैद कर रक्खा है। हाँ, भूतनाथ हो तो ताज्जुब नहीं, क्योंकि उसे भी तुम्हारे जीते रहने और यहाँ कैद भोगने की खबर लग चुकी है।

साथ ही इसके जिस तरह मैं इस शैतान मकान के रग-रग से वाकिफ हूँ उसी तरह या अगर उतना नहीं तो उसी के करीब-करीब भूतनाथ भी जानकार है, मगर इतना जरूर है कि मैं दारोगा के सन्दूक में से तालियों का गुच्छा लेता आया हूँ जिससे सभी दरवाजे खोल सकता हूँ मगर भूतनाथ के पास तालियाँ न होंगी।

दयाराम : ऐसी अवस्था में यहाँ से शीघ्र निकल चलना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वह बाहर से इस कोठरी का दरवाजा बन्द कर दे।

इन्द्रदेव : ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि दरवाजे में जड़े हुए ताले की ताली मेरे पास है और जंजीर को अभी मैं काटता आया हूँ, तथापि अब चलने में विलंब न करना चाहिए। मैं तुम्हारे ओढ़ने के लिए एक अबा और चेहरे पर लगाने के लिए नकाब लेता आया हूँ।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने जेब से एक नकाब निकाल कर दयाराम को दी और अपने ऊपर से स्याह अबा उतारकर उन्हें उढ़ा दिया, क्योंकि वह दो अबा ओढ़े हुए थे। इसके बाद वे दोनों उस कैदखाने के बाहर चले। उसी समय बाहर से पुन: खटके की आवाज आयी मानो किसी ने जोर से धक्का देकर किवाड़ का पल्ला खोला है।

दयाराम को साथ लिए हुए इन्द्रदेव उस कैदखाने के बाहर हुए और जिस राह से दरवाजा खोलते हुए आये थे उसी राह से कोठरियों को पार करते और ताला बन्द करते रवाना हुए क्योंकि जो ताले उन्होंने खोले थे वे अभी तक खुले ही रह गये थे।

इन्द्रदेव और दयाराम ने सिर्फ चार या पाँच कोठरियाँ पार की होंगी कि सामने से एक आदमी स्याह अबा ओढ़े, स्याह नकाब लगाए तथा खंजर और रोशनी हाथ में लिए आता दिखाई दिया। वास्तव में वह भूतनाथ ही था। इन्द्रदेव पर निगाह पड़ते ही भूतनाथ ने कहा,‘‘मैं समझता हूँ कि आप दारोगा साहब ही होंगे क्योंकि सिवाय आपके किसी दूसरे का इस मकान में आना और इन तालों को खोलना बड़ा ही दुर्घट है।’’

इन्द्रदेव : (कई दफे खाँस कर भारी आवाज से) आओ जी भूतनाथ, कहो अच्छे तो हो? वास्तव में मैं तुम्हारा दोस्त और खैरखाह दारोगा ही हूँ मगर सर्दी और खाँसी से मेरी तबीयत बहुत परेशान हो रही है। यह बड़े ही ताज्जुब की बात मैं देख रहा हूँ कि तुम मामूल के खिलाफ चोरों की तरह छिपे मेरे गुप्त स्थान में आधी रात के समय घूम रहे हो।

भूत० : बेशक आपके लिए यह ताज्जुब की और मेरी आदत के खयाल से नई बात है परन्तु मेरे पास इसका काफी जवाब है जिसके सुनने से सन्तोष हो जाने के साथ-साथ आपका आश्चर्य भी जाता रहेगा। मगर मैं यह निश्चय कर लेने के बाद जवाब दूँगा कि आप वास्तव में दारोगा साहब ही तो हैं, क्या आप अपने चेहरे पर से नकाब नहीं हटा सकते?

इन्द्र० : (अपने चेहरे से नकाब हटा कर) हाँ हाँ, परदा किस बात का है, लो मैं चेहरा दिखा देता हूँ।

दारोगा को कैद करने के बाद दारोगा ही की सूरत बन कर इन्द्रदेव इस मकान में आए और दो दिन तक रहे थे। नौकरों को इस बात का गुमान भी नहीं हुआ था और इसलिए उन लोगों ने वैसी ही खिदमत इन्द्रदेव की भी की थी जैसी दारोगा की करते थे इसीलिए इस समय भी वे उचित समझ कर दारोगा ही की सूरत में थे सिर्फ नकाब चेहरे पर डाले हुए थे, अस्तु भूतनाथ का चेहरा देखते ही विश्वास हो गया कि यह वास्तव में दारोगा है मगर दयाराम को कुछ आश्चर्य जरूर हुआ परन्तु परिचय का शब्द इन्द्रदेव के मुँह से सुन चुके थे इसलिए उनका दिल मजबूत बना रहा।

भूत० : (चेहरा देखने के बाद) हाँ, अब मुझे विश्वास हो गया कि आप दारोगा साहब हैं अस्तु अब मैं अपने इस तरह यहाँ आने का सबब बताता हूँ, मगर एक बात और पूछने की है।

इन्द्र० : वह क्या?

भूत० : (दयाराम की तरफ इशारा करके) यह आप के साथ कौन हैं?

इन्द्र० : हमारा ही विश्वासी आदमी है, इसे जरूरत समझ कर साथ लेता आया था।

भूत० : अच्छा तो अपने आने का कारण आप से कहता हूँ, सुनिये। मैं आप ही के पास आया था मगर आप से मुलाकात न होने के कारण इस तरह छिप कर अपना काम करने की नियत से आया हूँ, मुझे इस बात का ठीक पता लग चुका है कि मेरे दोस्त दयाराम जी आपके यहाँ कैद हैं।

इन्द्र० : (हँस कर) तुम्हारे मुँह से यह बात सुन कर मुझे आश्चर्य होता है क्योंकि तुमने खुद अपने हाथ से दयाराम की जान ली है!

भूत० : यह आपको किसने कह दिया?

इन्द्र० : जमाने की जानकारी ने। भला तुम ही बताओ कि जमना और सरस्वती ने क्यों तुम्हारा पीछा किया हुआ है और तुमने ही उन्हें मारने के लिए कौन-सी कार्रवाई उठा नहीं रक्खी है।

भूत० : चिढ़ कर आपको इन सब बातों के कहने का कोई हक नहीं है। और न मुझे जवाब देने की कोई जरूरत है, जब इस बात का निश्चय हो ही चुका है कि दयाराम आपके कब्जे में है तब मेरे ऊपर उनके मारने का इल्जाम नहीं लग सकता।

इन्द्र० : खैर, तो भी मैं भी सीधी बातों में जवाब देता हूँ कि दयाराम मेरे यहाँ नहीं हैं और न मुझे कुछ खबर है।

भूत० : आपका यह कहना बिलकुल ही झूठ है, मुझे जो कुछ खबर लग चुकी है उसमें किसी तरह भूल नहीं हो सकती।

इन्द्र० : मानने-न मानने का तुम्हें अख्तियार है पर असल बात जो थी वह मैंने कह दी। हाँ अगर तुम्हारा कहना ठीक है और वास्तव में दयाराम जीते हैं तो इस खबर से मैं बहुत ही खुश हूँ, ईश्वर करे कि उनका पता लग जाय और कुशलतापूर्वक वे अपने दोस्तों में हँसते-खेलते दिखाई दें, मगर फिर भी मुझे इस बात का डर बना ही रहेगा कि कहीं वे पुनः तुम्हारे कब्जे में न फँस जायें और इतने दिन की तकलीफ उठा कर अन्त में तुम्हारे ही हाथ से मारे जायें।

भूत० : (चिढ़ कर) आप आवाज कसने से बाज नहीं आते और खामखाह मुझे बेइमान बता कर क्रोधित करते हैं।

इन्द्र० : तुम्हारे बेईमान होने में शक ही क्या है दूसरे की बात तो दूर रहे तुमने खास अपने उन शागिर्दों के साथ जो हर वक्त तुम्हारे लिए अपनी जान हथेली पर लिए रहते थे ऐसा बुरा बर्ताव किया है कि नालायक-से-नालायक और बेईमान आदमी भी नहीं करेगा। वे लोग भी तुम्हें ऐसा मजा चखावेंगे कि जन्म-भर याद करोगे। मेरे पास वे लोग मदद माँगने के लिए आए थे मगर तुम्हारे मुलाहिजे से अभी तक उन्हें टालता रहा हूँ।

यद्यपि नकली दारोगा यानी इन्द्रदेव की बातों से भूतनाथ को बेहिसाब क्रोध चढ़ आया था परन्तु अपने शागिर्दों की खबर सुन कर और बिगड़ने का मौका न जान कर वह अपने गुस्से को पी गया और नर्मी के साथ बोला-

भूत० : नहीं-नहीं मेरे दोस्त, आपने जो कुछ सुना है या मेरे शागिर्दों ने जो कुछ खबर आपको दी वह बिल्कुल गलत है। वास्तव में वे सब बड़े ही बेईमान और कमीने हैं। आपने बहुत ही अच्छा किया कि उनकी मदद नहीं की और मुफ्त में मुझसे दुश्मनी नहीं खरीदी। मुझ पर आपका बड़ा ही अहसान होगा यदि आप मुझे उन नालायकों का पता देंगे।

इन्द्र० : तुम्हारे कहने के पहिले ही मैं यह सोच रहा था कि मामले की तुम्हें खबर कर दूँ और इसलिए उनसे टालमटोल करता चला जा रहा हूँ मगर इधर बहुत दिनों से तुमसे मुलाकात ही नहीं हुई और न तुम्हारा कोई पता ही चला।

भूत० : खैर इस समय तो मैं मौजूद हूँ।

इन्द्र० : ठीक है पर इस समय मैं अपने काम में लगा हुआ हूँ और विशेष बातचीत नहीं कर सकता। हां अगर कल तुम मुझसे मिलो तो बेशक मैं उनका सब हाल तुमसे कहूंगा मगर मुझे इस बात का बहुत ही दुःख है कि तुम मेरे मकान में इस तरह घुस कर मानो मेरी बेइज्जती करते हो।

भूत० : इसके लिए मैं आपसे माफी माँगता हूँ, मैं तो केवल आपसे मिलने की नीयत करके यहाँ आया था।

इन्द्र० : खैर जो कुछ हुआ सो हुआ, अब बाहर चलो, मैं कल तुमसे बातें करूँगा।

भूतनाथ ने बहुत कुछ पेचोताब खाया मगर अपने बिगड़ैल शागिर्दों का ख्याल करके चुप ही रहा, क्योंकि उसे अपने शागिर्दों का बड़ा ही डर लगा हुआ था और वह समझता था कि यदि वे लोग पकड़े नहीं जायेंगे तो मेरी जान किसी तरह बचने न पायेगी, इससे उचित यही है कि दारोगा साहब से पहिले उन शागिर्दों का पता लगा लिया जाय और तब दयाराम के बारे में बातचीत की जाय। इन्हीं सब बातों को सोच वह इस समय तरह दे गया और अपने कसूर की माफी माँग कर इन्द्रदेव के साथ-ही-साथ इस मकान से बाहर निकला।

भूतनाथ ने इन्द्रदेव से विदा माँग कर जंगल और मैदान का रास्ता लिया मगर दयाराम को साथ लिये इन्द्रदेव पहिले उस कमरे में गए जहाँ दारोगा साहब रात के समय रहा करते थे। वहाँ उन्होंने लोहे की एक आलमारी खोली और उसमें वह तालियों का झब्जा जिससे ऊपर वाले ताले खोले थे रख कर दयाराम को साथ लिए हुए मकान के बाहर चले गए। पहरे वालों ने मामूली ढंग पर उन्हें दारोगा समझ कर रोक-टोक न की और चुपचाप अपने काम पर जहाँ-के-तहाँ मुस्तैद खड़े रहे।

कदम बढ़ाते हुए तेजी के साथ दोनों आदमी शहर के बाहर निकल गए और तब एक तालाब के पास पहुँचे जहाँ इन्द्रदेव की आज्ञानुसार उनके आदमी दो घोड़े और एक रथ लिए तैयार थे। इन्द्रदेव ने दयाराम से पूछा, ‘‘कहिए आप इस घोड़े पर सवार हो सकते हैं या नहीं?’’

दया० : आपकी आज्ञा हो तो मैं सवार हो जाऊँ परन्तु कमजोर बहुत हो रहा हूँ शायद..।

इन्द्र० : तो तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं, रथ तैयार है ही, इस पर हम लोग बाखूबी सफर कर सकेंगे, हाँ यदि आप कुछ भोजन करना चाहें तो इसी रथ पर सामग्री तैयार है और तालाब का जल भी स्वच्छ है।

दया० : अब तो मैं आपकी कृपा से स्वतंत्र हो गया हूँ, ऐसी अवस्था में बिना स्नान और सन्ध्योपासन से निवृत्त हुए तथा ईश्वर को धन्यवाद दिये मैं भोजन नहीं कर सकता, यदि आपकी आज्ञा हो तो यहाँ इन कामों से निवृत्त हो सकता हूँ परन्तु कपड़ों का अभाव..।

इन्द्र० : (बात काट कर) नहीं नहीं, कपड़ों का अभाव क्यों होगा, इस समय का मुझे ध्यान था अस्तु मेरी आज्ञानुसार कपड़े भी रथ में जरूर आये होंगे।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने कपड़ों की बाबत अपने आदमी से दरियाफ्त किया तो मालूम हुआ कि भोजन की सामग्री के साथ-ही-साथ कपड़े भी मामूली तौर पर आये हैं। रात नाममात्र को बाकी थी और पूरब तरफ आसमान पर सफेदी झलक मारने लग गयी थी अस्तु इन्द्रदेव और दयाराम दोनों ही नहाने-धोने की फिक्र में लगे और घण्टेभर के अंदर ही सब कामों से छुट्टी पा रथ पर सवार हो पश्चिम की तरफ रवाना हो गए।

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