लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 2

भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

366 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान


पाठकों को याद होगा कि प्रभाकरसिंह तिलिस्म के अन्दर फँसे हुए हैं जहाँ उन्होंने एक अनूठे दीवानखाने की दरीची से एक हसीन औरत को देखा तथा इससे वे बहुत ही हैरान हुए और आश्चर्य करने लगे।

थोड़ी देर के बाद प्रभाकरसिंह का जी ठिकाने हुआ तब उन्होंने पुनः उस औरत से कहा, ‘‘क्या तुम्हारा नाम मालती है या मैं धोखा खाता हूँ?’’

औरत : नहीं आप धोखा नहीं खाते और बेशक मेरा नाम मालती है, किस्मत ने मुझे बेतरह यहाँ ला फँसाया है, यद्यपि मुझे यहाँ किसी तरह की तकलीफ नहीं है बल्कि मैं बहुत सुख के साथ अपने दिन बिता रहा हूँ परन्तु अपने बन्धु-बान्धवों को न देखने से चित्त में दुःख अवश्य बना रहता है, इसके अतिरिक्त इस तिलिस्म के अन्दर रहते-रहते अब जी ऊब गया है और यहाँ के अलौकिक पदार्थ चित्त को प्रसन्न नहीं करते। पहिले मैंने आपको अच्छी तरह पहिचाना नहीं था और इसीलिए अपना ठीक-ठीक परिचय भी न देकर बहकाने के लिए कह दिया था कि मैं एक राजा की लड़की हूँ इत्यादि परन्तु जब मैंने आपकी पीठ पर का निशान देख लिया तब साफ-साफ बयान कर दिया कि मैं मालती हूँ, इसके अतिरिक्त आपने स्वयं भी मुझे पहिचान लिया।

प्रभा० : यह तो तुमने और भी आश्चर्य की बात सुनाई! खैर बताओ कि तुम यहाँ क्यों आईं और इस तिलिस्म के अन्दर फँसे रहने का कारण क्या है? मैं मुद्दत से तुम्हारी खोज में हूँ मगर हजार कोशिश करने पर भी तुम्हारा पता न लग पाया।

मालती : अब आप यहाँ आ गए हैं तो कोई बात आपसे छिपी न रहेगी धीरे-धीरे सब कुछ मालूम हो ही जाएगा, ठहरिये मैं आपके पास आती हूँ।

इतना कह कर मालती खिड़की से उठ गई और थोड़ी ही देर में किसी दूसरी राह से दीवानखाने में प्रभाकरसिंह के पास पहुँच उनका हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘चलिए अब महल में चलकर ही मुझसे और आपसे बात होगी।मैं इस समय जिस तरह बेहयाई के साथ आपसे मिलती और बातचीत करती हूँ उसके लिए क्षमा कीजिएगा। इस जगह मेरा कोई बड़ा समबन्धी नहीं जिसका कि मुझे लेहाज हो, इसके अतिरिक्त आप चाहे जो कुछ समझते हों परन्तु मैं आपको उसी भाव से देखती हूँ जिस भाव से कोई धर्मपत्नी अपने देवतुल्य पति को देखती है।’’

प्रभाकरसिंह ने उसकी बातों का जवाब न दिया और चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल खड़े हुए। मालती उनको लिए हुए दीवानखाने के दाहिने बगल वाली बारहदरी में चली गई जहाँ प्रभाकरसिंह ने देखा कि सामने ही दीवार के साथ सटा हुआ चाँदी का सिंहासन रक्खा हुआ है जिस पर कम-से-कम आठ-दस आदमियों के बैठने की जगह है और उस सिंहासन के चारों तरफ हाथ-भर ऊँची खूबसूरत अड़ानी बनी हुई है और सिंहासन पर बैठे हुए आदमी को नीचे की तरफ लुढ़कने से बचाने के लिए काफी है। ऊपर की तरफ निगाह करके देखा तो इस बारहदरी की छत अन्दाज से बहुत ज्यादे ऊँची दिखाई दी और उस सिंहासन के ठीक ऊपर एक बहुत बड़ा सूराख भी नजर पड़ा।

प्रभाकरसिंह को साथ लिए हुए मालती उस सिंहासन पर चढ़ गई और उस पर प्रभाकरसिंह को बैठा कर आप भी उनके पास बैठ गई। बैठने के साथ ही वह सिंहासन ऊपर की तरफ उठने लगा यहाँ तक कि उसका पेंदा ऊपर वाली छत के बराबर जा लगा और ऐसा मालूम होने लगा कि वह सिंहासन ऊपर वाले कमरे के फर्श पर रक्खा हुआ है। समझ लेना चाहिए कि ऊपर वाले कमरे में जाने का यही रास्ता था।

ऊपर वाला कमरा बहुत खूबसूरती के साथ सजा हुआ तो न था परन्तु उसकी बनावट बहुत ही सुन्दर थी और उसमें हर तरह का जरूरी सामान मौजूद था। जमीन पर फर्श लगा हुआ था और उसके ऊपर दो पलंग बिछे हुए थे। एक पलंग पर का बिछावन उम्दा था और दूसरे पर केवल एक गलीचा बिछा था। इस कमरे की चौड़ाई दस हाथ और लम्बाई बीस हाथ के लगभग होगी। दीवारों में बहुत-सी खूँटियाँ लगी हुई थीं और उन पर तरह-तरह के जनाने कपड़े लटक रहे थे और जमीन पर संगमर्मर की दो चौकियों के ऊपर कुछ खाने-पीने का सामान भी रक्खा हुआ था।

इस कमरे में बाग की तरफ झाँकने और देखने के लिए पाँच दरवाजे थे और दो दरवाजे भीतर की तरफ ऐसे थे जिनकी राह से महल के अन्दर अथवा दूसरे कमरों में जा सकते थे।

मालती ने प्रभाकरसिंह को ले जाकर पलंग के ऊपर बैठाया और आप भी उनके पास बैठकर इस तरह बातचीत करने लगी—

प्रभाकर : क्या तुम अकेली ही इस मकान में रहती हो?

मालती : जी नहीं, कई लौंडियाँ और एक ब्राह्मणी भी यहाँ मेरे साथ रहती है। वे इस समय अपने काम में लगी हुई हैं, मगर सिवाय इन औरतों के कोई मर्द यहाँ नहीं रहता।

प्रभाकर : तुमको किसने इस तिलिस्म के अन्दर लाकर रक्खा?

मालती : कुँअर गोपालसिंह ने।

प्रभा० : (आश्चर्य और कुछ क्रोध के साथ) कितने दिनों से?

मालती : कई वर्षों से, जब से मैं अपने मकान से गायब हुई थी तभी से यहाँ पर हूँ, बीच में साल-भर दूसरी जगह थी।

प्रभा० : किस नीयत से उन्होंने तुम्हें यहाँ लाकर रक्खा है?

मालती : अपनी स्त्री बनाने की नीयत से।

प्रभा० : फिर क्या हुआ? आखिर तुम उनकी स्त्री बनी या नहीं?

मालती : (लज्जा से सिर नीचा करके) जी हाँ, आखिर क्या करती!

प्रभा० : कोई औलाद भी उनसे तुम्हें हुई?

मालती : जी हाँ, साल-भर का एक बच्चा है।

प्रभाकर : (चारपाई पर से उठ कर) फिर तुम मुझे इस तरह पर क्यों अपने पास बैठाती हो? तुम्हें ऐसा करना कदापि उचित नहीं है।

मालती : (प्रभाकरसिंह का हाथ पकड़ के) ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है क्योंकि मेरी पहली शादी आप ही के साथ हुई थी।

प्रभाकर : मेरे साथ तुम्हारी शादी नहीं हुई थी, हाँ बारात लेकर तुम्हारे पिता के दरवाजे तक मैं गया था, पर जब यह सुना गया कि तुम मकान के अन्दर से गायब हो गईं तब लौट आया क्योंकि उस समय तुम्हारे पिता के मकान में बड़ा ही हाहाकार मच गया था। उसी के दूसरे दिन बन्दोबस्त हो जाने के कारण मेरी शादी इन्दुमति के साथ हो गई। (एक लम्बी साँस लेकर) तुम्हारी बातों से मुझे खयाल हुआ था कि तुम अभी तक कुँआरी ही हो अगर अब तुम्हारा ढंग देख कर तुम्हारे इस कथन पर मुझे बड़ा ही खेद होता है कि ‘मैं आपको उसी भाव से देखती हूँ जिस भाव से कोई धर्मपत्नी अपने देवतुल्य पति को देखती हो’। जब तुम एक आदमी के साथ ब्याही जा चुकीं और उससे एक औलाद भी तुम्हें हो चुकी तब तुमको मेरे साथ अर्थात् किसी दूसरे पुरुष के साथ ऐसा बर्ताव न करना चाहिए, ऐसे धर्मविरुद्ध कार्य का नतीजा अच्छा नहीं होता।

मालती : (प्रभाकरसिंह का हाथ छोड़ कर) आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है परन्तु मैं फिर भी यही कहती हूँ कि इस जबर्दस्ती की शादी को मैं धर्म-विवाह नहीं समझती, अब भी मैं यही चाहती हूँ कि आपके घर चल कर रहूँ और, बहिन इन्दुमति की सेवा करूँ, मैं उनसे मिल चुकी हूँ और उनकी बातों से मुझे विश्वास हो चुका है कि यह बात उन्हें मंजूर है और वह मुझ पर सदैव कृपा रक्खेंगी।

इन्दुमति का नाम सुनकर प्रभाकरसिंह की आँखें डबडबा आईं और उन्होंने एक लम्बीं साँस लेकर मालती से कहा, ‘‘इस मनमोदक में कोई भी स्वाद नहीं है, हाय, अब तो इन्दु भी इस दुनिया में नहीं रही, व्यर्थ ही उसने अपनी जान दे दी!’’

मालती : (आश्चर्य से) हैं, यह आप क्या कह रहे हैं? आज ही रात को तो मुझसे और उनसे तीन घण्टे तक बातें होती रही हैं।

प्रभा० : क्या खूब, उसे मरे हुए दो दिन हो चुके हैं!!

मालती : (चारपाई पर से उठकर मुस्कराती हुई) जी नहीं, क्षमा कीजिएगा, आप धोखे में पड़ गए हैं। जमना-सरस्वती और इन्दुमति तीनों बहिनें कल ही से मेरे यहाँ मेहमान हैं और मैं आपको उनसे मिला सकती हूँ। पर आप मेरा तिरस्कार न करें, मैं फिर भी यही कहती हूँ कि मैं आपको अपना पति समझ कर आपकी मदद कर रही हूँ और करूंगी, फिर भी मैं इतना जरूर कहूँगी कि आपने जो बर्ताव इन्दु बहिन के साथ किया वह आपको उचित न था।

मालती की बातें सुनकर प्रभाकरसिंह आश्चर्य से उसका मुँह देखने और सोचने लगे कि यह क्या कह रही है? जबकि मैं स्वयं इन्दु की धधकी हुई चिता देख चुका हूँ तब क्योंकर इसकी बात मान सकता हूँ? इसके अतिरिक्त जब वह हमारी और इन्दुमति की बातों को जानती थी तो मुझे पहिचानने में इसने धोखा क्यों खाया और पीठ पर का निशान देखने की जरूरत ही इसे क्यों पड़ी? मालूम होता है कि मेरे यहाँ तक पहुँचने का कारण भी यही है।

इत्यादि तरह-तरह की बातें सोचते हुए प्रभाकरसिंह ने पुनः मालती से कहा, ‘‘तुम्हारी बातों पर मुझे विश्वास नहीं होता।’’

मालती : मैं आपसे कह चुकी हूँ कि वे तीनों कल ही से मेरे यहाँ मेहमान हैं और मैं उनसे आपकी मुलाकात करवा सकती हूँ, फिर आप शक क्यों करते हैं?

प्रभा० : हाँ अगर ऐसा हो तो जरूर मैं तुम्हें सच्चा समझ सकता हूँ

मालती : बेशक ऐसा ही होगा।

प्रभा० : तो अब विलम्ब क्या है? तुम मुझे उनके पास ले चलो।

मालती : मैं आपको उनके पास इसी समय ले चलती मगर इस बात से डरती हूँ कि कहीं इन्दुमति खफा न हो जाए क्योंकि आपकी बेमुरौवती और बुरे बर्ताव से बहुत चिढ़ गई है, मुझसे आपका नाम लेकर कहती थीं कि मैं उनसे कदापि न मिलूँगी। ऐसी अवस्था में उचित यही जान पड़ता है कि पहिले उन्हें समझा कर आपसे मिलने के लिए राजी कर लूँ तब आपको उनके पास ले चलूँ।

प्रभाकर : (कुछ सोच कर) खैर, मुलाकात न सही दिखा देने में तो कोई हर्ज नहीं है!

मालती : अच्छा मैं उन्हें दूर से आपको दिखा दूँगी।

इतना कह मालती ने प्रभाकरसिंह को पलँग पर बैठने के लिए पुनः जोर दिया और प्रभाकरसिंह भी यह विचार कर मालती के पास पलँग पर बैठ गए कि ‘यह मौका जिद करने का नहीं है, इसकी बात मान लेने से ही इस समय अपना काम निकलेगा।

मालती ने प्रभाकरसिंह की बड़ी खातिर की और प्रभाकरसिंह ने भी अपने दिल का भाव प्रकट न होने दिया। देर तक वे उनसे मीठी-मीठी बातें करते रहे, इसके बाद यह कह कर उठ खड़े हुए कि ‘अब दिन बहुत ज्यादे चढ़ आया है, स्नान-सन्ध्या इत्यादि का बन्दोबस्त होना चाहिए’।

प्रभाकरसिंह की यह बात सुनकर मालती भी उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई एक दरवाजे से कमरे के बाहर हो गई कि ‘जरा-सा ठहरिए, मैं अभी इन्तजाम करके आती हूँ तो आपको ले चलती हूँ’।

मालती कमरे के बाहर हो गई प्रभाकरसिंह पलँग पर बैठ कर देर तक उसके आने का इन्तजार करते रहे। आधे घण्टे के बाद लौट कर मालती पुनः प्रभाकरसिंह के पास गई और बोली, ‘‘चलिए सब सामान तैयार है।’’

अबकी दफे मालती प्रभाकरसिंह को दूसरी ही राह से अर्थात् ऊपर-ही-ऊपर एक दूसरे मकान में ले गई और वहाँ से घुमाती हुई एक ऐसे बाग में पहुँची जो प्रभाकरसिंह के लिए बिलकुल नया था अर्थात् अभी तक इस बाग को उन्होंने देखा न था, बनिस्बत पहले बाग के जिसमें प्रभाकरसिंह आए थे इस बाग में फूल-पत्तों की अपेक्षा फल और मेवों के दरख्त बहुत ज्यादे थे तथा अमरूद, सेब, अंगूर और बादाम वगैरह बहुतायत के साथ लगे हुए थे तथा बाग के बीच में एक सुन्दर-सी बावली भी थी जिसमें मीठा और बिल्लोर की तरह साफ जल भरा हुआ था। उसी बावली के ऊपर एक पत्थर की चौकी पर एक लोटा, गिलास, धोती, गमछा, आसन तथा सन्ध्या-पूजा का पूरा सामान मौजूद था और खिदमत के लिए दो लौंडियाँ भी हाजिर थीं।

इस बाग को अपने मतलब का देखकर प्रभाकरसिंह बहुत खुश हुए और कपड़े उतार कर एक पेड़ के नीचे रख देने के बाद अपने जरूरी कामों की फिक्र में लगे। एक हाथ में तलवार और दूसरे में जल का भरा हुआ लोटा लेकर वे बाग के पूरब तरफ बढ़े और एक घनी झाड़ी में घुस कर नजरों से ओझल हो गए।

प्रभाकरसिंह के चले जाने के बाद मालती और उसकी दोनों लौंडियों में इस तरह बातचीत होने लगी :—

मालती : (एक लौंडी से) भोजन की चीजें सब तैयार हो गईं या अभी कुछ बाकी हैं?

लौंडी : करीब-करीब सभी चीजें तैयार हो गई हैं, केवल तरकारी और दो-तीन तरह की चटनी बाकी है।

मालती : बेहोशी की दवा किस चीज में मिलाई गई है?

लौंडी : कचौरी और तरकारी में।

मालती : ठीक है, अगर चटनी में यह दवा मिला दी होती तो अच्छा था।

दूसरी लौंडी : आज्ञा हो तो अब मिला दिया जाए।

मालती : खैर, रहने दो, कोई चिन्ता नहीं, जो कुछ हुआ वही बहुत है।

लौंडी : मगर मुझे आश्चर्य इस बात का होता है कि अकेले प्रभाकरसिंह के लिए आप इतना बन्दोबस्त क्यों कर रही हैं! क्या हम लोग इन्हें मिल-जुल कर बाँध नहीं सकतीं।

मालती : तुम्हें इनकी ताकत का हाल मालूम नहीं है, अगर मालूम होता तो ऐसा न कहतीं। इसके अतिरिक्त इन्हें तिलिस्म की बहुत-सी बातें भी मालूम हैं जिसके लिए इन्हें भुलावा देने की जरूरत है क्योंकि किसी तरह का शक हो जाने से ताज्जुब नहीं कि ये निकल भागें।

लौंडी : अगर यही बात है तो दारोगा साहब को चाहिए था कि दो-चार बहादुर सिपाही यहाँ भेज देते जिसमें गिरफ्तार करने के लिए ज्यादे बखेड़ा न करना पड़ता।

मालतीः दारोगा साहब ने हम लोगों को यहाँ भेज दिया यही बहुत है नहीं तो तिलिस्म के अन्दर किसी को भेजना यह बिल्कुल नियम के विरुद्ध है, मुझे दारोगा साहब चाहते हैं और मुझ पर विश्वास रखते हैं इसीलिए मुझे यहाँ भेजा भी, और मैं तुम लोगों को यहाँ ले आई।

लौंडी : ठीक है, असल मतलब मेरी समझ में आ गया। मगर अब मैं यह सोचती हूँ कि अगर प्रभाकरसिंह ने तुम्हारे यहाँ की कोई चीज नहीं खाई और बेहोश न हुए तब तुम क्या करोगी?

मालती : तुम्हारा सोचना बिलकुल ही लड़कपन है, भला यहाँ रह कर के कै दिन भूखे रहेंगे? साथ ही इसके तुम यह भी जानती हो कि इस तिलिस्म से निकल भागना उनके लिए बिल्कुल ही असम्भव है, हाँ, इतना मैं जरूर कहूँगी कि वे सहज में ही हम लोगों का विश्वास कदापि न करेंगे परन्तु मैंने तो यहाँ तक निश्चय कर रखा है कि यदि मेरी इस कारीगरी से काम न निकला तो जिस समय ये घोर निद्रा में बेखबर पड़े होंगे उस समय अपनी भुजाली और भुजा को काम में लाकर किस्मत को आजमाऊँगी।

दूसरी लौंडी : बेशक ऐसा हो सकता है—मैं भी यही कहने वाली थी क्योंकि इस बाग में फलों और मेवों की बहुतायत होने से..।

मालती : (कुछ सोच कर) हाँ बेशक यह मुझसे भूल हुई कि मैं उन्हें इस बाग में ले आई और यहाँ आने का रास्ता भी दिखा दिया। यहाँ के फलों और मेवों से वे कई दिनों तक गुजारा कर सकते हैं, अगर किसी दूसरे बाग में ले गई होती जहाँ फलों के दरख्त न होते तो जरूर भूख से व्याकुल होकर मेरी बात मानते और सहज ही में मेरे यहाँ का भोजन भी करते। खैर कोई चिन्ता नहीं जो कुछ होगा देखा जाएगा, मैंने कई तरह से जाल फैलाये हुए हैं, किसी-न-किसी जाल में यह शिकार अवश्य ही फँसेगा।

मालती और दोनों लौंडियों में देर तक इसी तरह की बातें होती रहीं और वे सब प्रभाकरसिंह के आने का इन्तजार करती रहीं।

एक घंटे से ज्यादा समय बीत गया और प्रभाकरसिंह लौट कर न आए। इस बात से मालती और उसकी लौंडियों को आश्चर्य होने लगा, मगर मालती को यह भी विश्वास था कि जिस तरफ प्रभाकरसिंह गए हैं उस तरफ कोई ऐसा रास्ता नहीं है जिसके जरिये वे इस बाग के बाहर हो जाएँ और बाग की दीवार भी ऐसे ढंग की बनी हुई है कि उसके ऊपर कोई चढ़ नहीं सकता। यही सबब था कि मालती को धीरज बँधा हुआ था और उसने फिर भी कुछ देर तक और इन्तजार करना मुनासिब समझा।

और भी आधा घण्टा बीत जाने के बाद प्रभाकरसिंह घोड़े पर सवार सामने से आते हुए दिखाई पड़े। हम ऊपर लिख आये हैं कि प्रभाकरसिंह कपड़े उतार कर मैदान के लिए गए थे परन्तु इस समय केवल घोड़े पर सवार ही नहीं बल्कि सुन्दर फौजी पोशाक पहिने हुए तथा कई तरह के हर्बे भी लगाये हुए वे दिखाई पड़े जो मालती और उसकी लौंडियों के लिए कम आश्चर्य की बात न थी और इसी कारण वे आश्चर्य के साथ सोचने लगीं कि क्या वास्तव में ये प्रभाकरसिंह ही हैं?

निःसन्देह वे प्रभाकरसिंह ही थे मगर मालती को तब तक इसका विश्वास न हुआ जब तक कि वे मालती के पास न आये और छेड़खानी के तौर पर खुद ही बातचीत करना आरम्भ न किया।

प्रभाकर० : (मालती के पास आकर मुस्कुराते हुए) कहो बीबी मालती, अब तो मुझे यहाँ से चले जाने की इजाजत देती हो न?

मालती : (कुछ घबड़ानी-सी होकर) सो क्यों? अभी तो आप इन्दुमति से न मिलने वाले हैं?

प्रभाकर० : नहीं, अब मुझे उससे मुलाकात करने की कोई जरूरत नहीं रही।

मालती : आखिर ऐसी घबड़ाहट आपको क्या हो गई? और यह घोड़ा आपने कहाँ से पाया सो तो बताइए?

प्रभा० : (हँस कर) जमानिया के दारोगा साहब यह घोड़ा तुम्हारे वास्ते लिए आ रहे थे सो मैंने छीन लिया और पोशाक भी उन्हीं के बदन से उतार ली! अच्छा बीबी मनोरमा, अब मैं आपको आशीर्वाद देता और जाता हूँ।

इतना कहते हुए प्रभाकरसिंह तेजी के साथ उसी तरफ लौट गए जिधर से आये थे। मालती को विश्वास न हुआ कि वे वास्तव में प्रभाकरसिंह थे, और इसी से यह घोड़ा इस बाग में क्योंकर आया, यह पोशाक इन्होंने कहाँ से पाई, और घोड़े पर सवार ये क्योंकर यहाँ से बाहर निकल जायेंगे इत्यादि बातों की सोचती हुई वह भी अपनी लौंडियों को साथ लिए उन्हीं के पीछे चल पड़ीं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book