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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान

जमना सरस्वती और इन्दुमति तिलिस्म के अंदर (जहाँ नारायण उन्हें रख गये थे) बैठी हुई आपस में कुछ बातें कर रही हैं। यद्यपि रात आधी से कुछ ज्यादे ढल चुकी है परन्तु चन्द्रमा की किरणों द्वारा फैली चाँदनी के कारण दूर-दूर तक की चीजें बखूबी दिखाई दे रही हैं और पहाड़ी छटा का एक अपूर्व आनन्द मिल रहा है। बातें करती हुई जमना की निगाह उस तरफ़ जा पड़ी जिधर से झरने का पानी बड़ी सफाई के साथ बहता हुआ जा रहा था और ऐसा मालूम होता था कि तिलिस्मी कारीगिरी ने इस पानी के ऊपर भी चांदी की कलई चढ़ा दी है। किसी आदमी की आहट पाकर जमना चौकी और बोली, ‘‘बहिन, देखो तो सही वह क्या है? मैं समझती हूँ कि कोई आदमी है।’’

इन्दुमति : मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है।

सरस्वती : यद्यपि किसी आदमी का यहाँ तक आ पहुँचना असम्भव है परन्तु मैं यह भी नहीं कह सकती कि यह आदमी नहीं कोई जानवर है।

जमना : (जोर देकर) बेशक आदमी है!!

इन्दुमति : देखो इसी तरफ चला आ रहा है, कुछ इधर आ जाने से सब साफ मालूम होता है कि आदमी है, जरा रुककर दबकता और आहट लेता हुआ आ रहा है, इससे मालूम होता है कि हमारा दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन है। देखो यह मेरी दाहिनी आँख फड़की, ईश्वर ही कुशल करे। (रुक कर) बहिन, वह देखो उसके पीछे और भी एक आदमी मालूम पड़ता है।

सरस्वती : (अच्छी तरह देख कर) हाँ ठीक तो है, दूसरा आदमी भी साफ मालूम पड़ता है, आश्चर्य नहीं कि कोई और भी दिखाई दे! बहिन, मुझे भी खुटका होता है और दिल गवाही देता है कि ये आने वाले हमारे दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन हैं।

जमना : बेशक ऐसा ही है, अब इनके मुकाबले के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

इन्दुमति : इनसे मुकाबला करना मुनासिब होगा या भाग कर अपने को छिपा लेना? लो अब तो वे बहुत नजदीक आ गये और मालूम होता है कि उन्होंने हम लोगों को देख भी लिया।

जमना : बेशक उन लोगों ने हमें देख लिया, चलो हम लोग भाग कर मकान के अन्दर चलें और दरवाज़ा बन्द कर लें, मुकाबला करना ठीक न होगा।

इतना कह कर जमना मकान की तरफ तेजी के साथ चल पड़ी। सरस्वती तथा इन्दुमति ने भी उसका साथ दिया।

यह मकान देखने में यद्यपि छोटा था मगर अन्दर से गुंजाइश बहुत ज्यादे थी और बनिस्बत ऊपर के इसका बहुत बड़ा हिस्सा जमीन के अन्दर था इसके रास्तों का पता लगाना अनजान आदमी के लिए कठिन ही नहीं बल्कि बिल्कुल ही असंभव था। दो-चार आदमी तो क्या पचासों आदमी इसके अन्दर छिप कर रह सकते थे। जिनका पता सिवाय जानकार के कोई दूसरा नहीं लगा सकता था। इस मकान के अन्दर कैसी-कैसी कोठरियाँ, कैसे-कैसे तहखाने और कैसी-कैसी सुरंगें या रास्ते थे इसे इस तिलिस्म से संबंध रखने वाला भी हरएक आदमी नहीं जान सकता था, परन्तु नारायण ने जो किताब जमना को दी थी उसमें वहाँ का कुल हाल चाल अच्छी तरह लिखा हुआ था।

अब हम यह लिख सकते हैं कि वे दोनों आने वाले कौन थे जिन्हें देख कर जमना, सरस्वती और इन्दुमति भाग कर घर में चली गई थीं।

ये दोनों भूतनाथ और तिलिस्मी दारोगा साहब थे। दारोगा भूतनाथ की मदद पर तैयार हो गया और उसने प्रतिज्ञा की थी कि तुम्हें तिलिस्म के अंदर ले चल कर जमना, सरस्वती और इन्दुमति को गिरफ्तार करा दूंगा। इसी तरह भूतनाथ ने भी दारोगा से वादा किया था कि महाराज जमानिया के भाई शंकरसिंह के मारने में मैं तुम्हारी मदद करूँगा और यह कार्रवाई इस ढंग से की जायगी कि किसी को इस बात का गुमान भी न होगा कि शंकरसिंह कब और कहाँ मारे गए या उन्हें किसने मारा-इत्यादि। यही सबब था कि ये दोनों इस समय तिलिस्म के अन्दर दिखाई दिए। यहाँ का बहुत कुछ हाल दारोगा को मालूम था मगर शंकरसिंह को यह आशा न थी कि दारोगा उनके साथ यहाँ तक बुरा बर्ताव कर गुजरेगा, अस्तु वे दारोगा की तरफ से बिल्कुल ही बेखबर थे।

दारोगा और भूतनाथ दोनों आदमी सूरत बदलने के अतिरिक्त चेहरे पर नकाब भी डाले हुए थे इसलिए उन्हें कोई पहिचान नहीं सकता था।

जिस समय ये तीनों औरतें भाग कर मकान के अन्दर चली गईं उसके थोड़ी ही देर बाद भूतनाथ और दारोगा मकान के दरवाजे पर आ पहुँचे। उन्होंने तीनों को भाग कर मकान के अन्दर जाते हुए देख लिया था अस्तु तिलिस्मी ढंग से दरवाजा खोलने के लिए दारोगा साहब ने हाथ बढ़ाया ही था कि पीछे से किसी ने आवाज दी, ‘‘कौन है?’’

दारोगा और भूतनाथ को इस बात निश्चय नहीं था कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति तिलिस्म के अन्दर किस ठिकाने पर हैं परन्तु भूतनाथ ने अपने कई शागिर्द इस तिलिस्म के अन्दर पहुँचा दिये थे जो कि नारायण की कार्रवाई पर बराबर ध्यान रखते थे। जब भूतनाथ और दारोगा तिलिस्म के अन्दर आये तब भूतनाथ का एक शागिर्द उन्हें मिला जिसके माथे पर अपना खास निशान देखकर भूतनाथ ने पहिचान लिया और उससे वहाँ का हाल पूछा।

उस शागिर्द ने बता दिया कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति को नारायण ने फलाने मकान में रक्खा है, उसी के दिए निशान के अन्दाजे पर भूतनाथ और दारोगा वहाँ आये थे और उन्होंने जमना, सरस्वती और इन्दुमति को अपनी आँखों से मकान के अन्दर जाते देख लिया था। जब दारोगा ने मकान का दरवाजा खोलने के लिए हाथ बढ़ाया उसी समय पीछे से आवाज़ आई, ‘‘कौन है?’’ दारोगा ने अपना हाथ खैंच लिया और पीछे फिर कर देखा। एक आदमी पर निगाह पड़ी जिसने सिर से पैर तक अपने को स्याह लबादे से ढाँक रक्खा था। भूतनाथ हाथ में खंजर लिए हुए उस आदमी के पास चला गया और डपट कर बोला, ‘‘तू कौन है!’’

उस आदमी ने भूतनाथ की बात का कुछ भी जवाब न दिया और पीछे की तरफ हटने लगा। भूतनाथ भी उसी के साथ उसकी तरफ आगे बढ़ता गया और उसने कई दफे डपटकर उस आदमी से तरह-तरह के सवाल किए और कटु वचन भी कहे परन्तु भूतनाथ की किसी बात का भी उसने जवाब न दिया और बराबर पीछे की तरफ हटता चला गया।

भूतनाथ भी उसके साथ-ही-साथ आगे बढ़ता गया, यहाँ तक कि एक झाड़ी के पास पहुँचकर वह आदमी रुक गया और उसने अपने दोनों हाथ लबादे के बाहर निकाले जिनमें से एक में ढाल और दूसरे में तलवार थी। यहाँ पर घनी झाड़ी होने के कारण चन्द्रमा की चाँदनी नहीं पहुँचती थी अस्तु अपने लिए उत्तम स्थान समझ कर उस आदमी ने जवान खोली और भूतनाथ से कहा, ‘‘हाँ, अब तुझको बताना पड़ेगा कि तू कौन है और तिलिस्म के अन्दर क्योंकर आया?’’ पाठक, थोड़ी देर के लिए हम इस आदमी का नाम ‘‘भीम’’ रख देते हैं। भीम की बात सुनकर पहले तो भूतनाथ चुप हो गया मगर फिर कुछ सोचकर बोला, ‘‘मैं तुम्हारी बात का जवाब क्योंकर दे सकता हूँ जबकि तुमने खुद मेरी बात का कुछ भी जवाब नहीं दिया?’’

भीम : यद्यपि मैंने वहाँ पर तुम्हारी बातों का कुछ भी जवाब नहीं दिया परन्तु अब तुम्हारी हर एक बात का जवाब देने के लिए तैयार हूँ मगर शर्त यह है कि तुम ठीक-ठीक ईमानदारी के साथ अपना परिचय दो।

भूतनाथ : बेशक मैं ईमानदारी के साथ अपना परिचय दूँगा, मेरा नाम रंगनाथ ऐयार है, मैं मिर्जापुर का रहने वाला हूँ।

भीम : (खिलखिला कर हँसने के बाद) वाह-वाह! खूब ईमानदारी के साथ अपना परिचय दिया। रंगनाथ तो आजकल हमारे यहाँ मेहमान है, यह दूसरा रंगनाथ कहाँ से आया?

भूतनाथ : (कुछ सकपकाना-सा होकर) नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता अगर कोई आदमी रंगनाथ के नाम का तुम्हारे पास आया है तो बेशक उसने तुमको धोखा दिया, असल रंगनाथ मैं ही हूँ और मैं प्रभाकरसिंह को इस कैद से छुड़ाने के लिए यहाँ आया हूँ!

भीम : अगर तुम्हारा कहना सच है और रंगनाथ के नाम से किसी दूसरे आदमी ने मेरे यहाँ आकर धोखा दिया है तो तुम उसे जरूर पहिचान सकते हो, उसकी तस्वीर मेरे पास है। तुम देखो और पहिचानो। उसका कथन है कि भूतनाथ इस तिलिस्म के अन्दर आया है और कई आदमियों को धोखा दिया चाहता है।

भूतनाथ : (बड़ी चाह के साथ) मैं जरूर उसकी तस्वीर देखूँगा और पहिचानूँगा।

भीम ने अपनी जेब से निकाल कर एक पीतल की डिबिया भूतनाथ के हाथ में दी और कहा; ‘‘देखो हिफाजत से खोलो, इसी के अन्दर उसकी तस्वीर है।’’

भूतनाथ ने भीम के हाथ से डिबिया ले ली और दो कदम चलकर चन्द्रमा की चाँदनी में वह डिबिया खोलने लगा। डिबिया बड़ी मजबूती के साथ बन्द थी और हल्के हाथों से उसका खुलना कठिन था अस्तु गर्दन झुकाकर और दोनों हाथों से जोर लगा कर भूतनाथ ने वह डिबिया खोली। उसके अन्दर बहुत हल्की और गर्द के समान बारीक बुकनी भरी हुई थी जो झटके के साथ डिबिया खुलने के कारण उसमें से उछली और उड़कर भूतनाथ की आँख और नाक में पड़ गई।

वह बहुत ही तेज बेहोशी की बुकनी थी जिसने भूतनाथ को बात करने की भी मोहलत न दी, वह तुरन्त ही चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। भीम ने झपटकर अपनी डिबिया सम्हाली और भूतनाथ के हाथ से लेकर अपनी जेब में रख ली, इसके बाद अपने लबादे में भूतनाथ की गठरी बाँधी और उसे पीठ पर लाद एक तरफ का रास्ता लिया।

अब उधर का हाल सुनिये। भीम के साथ जाकर भूतनाथ तो बहुत दूर निकल गया मगर दारोगा अपनी जगह से न हिला। उसने मकान का दरवाजा खोला और जमना, सरस्वती तथा इन्दुमति को गिरफ्तार करने का उद्योग करने लगा दरवाजा खोलता हुआ वह एक दालान में पहुँचा, जिसके दोनों तरफ़ दो कोठरियाँ थीं और उन सभी कोठरियों के दरवाजे किस तरह खुलते थे, इसका पता केवल देखने से नहीं लग सकता। किसी खास तरकीब से दारोगा ने बाई तरफ वाली कोठरी का दरवाजा खोला और हाथ में नंगी तलावर लिए हुए उसके अन्दर घुसा। यह छोटी-सी सुरंग थी जिसमें दस-बारह हाथ चल कर दारोगा एक बहादुरी में पहुँचा जहाँ बिल्कुल ही अंधकार था, सिर्फ दो-तीन जगह किसी सुराख की राह से चन्द्रमा की रोशनी पड़ रही थी मगर उससे वहाँ का अन्धकार दूर न हो सकता था।

दारोगा को विश्वास था कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति जरूर इसी दालान में होंगी और उनके हाथ में किसी तरह का कोई हर्बा भी जरूर होगा, इसी ख्याल से उसकी हिम्मत न पड़ी कि वह इस अन्धकार में आगे की तरफ बढ़े अस्तु चुप-चाप खड़ा रहकर वहाँ की आहट लेने लगा। कुछ ही देर बाद किसी के धीरे-धीरे बोलने की आवाज उसके कान में आई और उसके बाद मालूम हुआ कि कई आदमी आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं।

आवाज़ हल्की और नाजुक थी इसलिए दारोगा समझ गया कि जरूर यह जमना, सरस्वती और इन्दुमति हैं। दारोगा ऐयारी का छोटा-सा बटुआ अपने कपड़ों के अन्दर छिपाये हुआ था जिसमें से उसने टटोल कर एक छोटी डिबिया निकाली, उस डिबिया में कई तरह के खटके और पुरजे लगे हुए थे, दारोगा ने खटका दबाया जिससे वह डिबिया चमकने लगी और उसकी रोशनी ने वहाँ के अन्धकार को अच्छी तरह दूर कर दिया।

अब दारोगा ने देख लिया कि उसके सामने दालान में तीन औरतें हाथ में खंजर लिए खड़ी हैं। जमना, सरस्वती और इन्दुमति को दारोगा अच्छी तरह पहिचानता न था मगर सुनी-सुनाई बातों से वह अनुमान जरूर कर सकता था। इस मौके पर तो उसे यह मालूम ही था कि यहाँ पर जमना, सरस्वती और इन्दुमति विराज रही हैं और वे तीनों औरतें अपनी असल सूरत में भी थीं इसलिए दारोगा को विश्वास हो गया कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति ये ही हैं।

दारोगा ने उसी जगह खड़े रह कर जमना की तरफ देखा और कहा, ‘‘तुम लोग मुझसे व्यर्थ ही डर कर भाग रही हो! मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ और न तुम्हारे किसी दुश्मन का भेजा हुआ हूँ।’’

जमना : फिर तुम कौन हो और हम लोगों का पीछा क्यों कर रहे हो?

दारोगा : मैं इस तिलिस्म का पहरेदार हूँ और प्रभाकरसिंह का भेजा हुआ तुम लोगों के पास आया हूँ। उनका हुक्म है कि तुम तीनों को अपने साथ ले जाकर उनके पास पहुँचा दूँ!

जमना : तुम्हारी बातों का हमें क्योंकर विश्वास हो? क्या उनके हाथ की कोई चीठी भी लाये हो?

दारोगा : हाँ, मैं चीठी लाया हूँ। उन्होंने खुद ही खयाल कर के एक चीठी भी अपने हाथ से लिख कर दी है।

जमना : अगर ऐसा है तो लाओ, वह चीठी मुझे दो, मैं पहिले उसे पढ़ लूँ तब तुम्हारी बातों पर विचार करूँ।

दारोगा : हाँ, लो मैं चीठी देता हूँ, यह रोशनी जो मेरे साथ में है ज्यादे देर तक ठहर नहीं सकती इसलिए पहिले मैं दूसरी रोशनी का इन्तजाम कर लूँ तब चीठी तलाश कर दूँ।

इतना कह कर दारोगा ने वह डिबिया जमीन पर रख दी उसी की रोशनी में उसने अपना बटुआ खोलकर एक खाकी रंग की मोमबत्ती निकाली और चकमक से आग पैदा करके उससे रोशनी करने के बाद वह डिबिया बन्द करके अपने बटुए में रख ली। अब दालान भर में उसी मोमबत्ती की रोशनी फैली हुई थी।

वह मोमबत्ती कुछ खास तरकीब और कई दवाइयों के योग से तैयार की गई थी। उसका रंग खाकी था और जलने पर उसमें बेहोशी पैदा करने वाला बहुत ज्यादा धुआँ निकलता था। दारोगा ने यह सोचकर कि शायद आज भी कार्रवाई में इस मोमबत्ती की जरूरत पड़े, पहिले से ही अपने बचाव का बंदोबस्त कर लिया था अर्थात् किसी तरह की दवा खा या सूँघ ली थी मगर जमना, सरस्वती और इन्दुमति अपने को इस धुएँ से बचा नहीं सकती थीं और न इस बात का उन्हें गुमान ही हुआ कि बेहिसाब धुआँ पैदा करने वाली मोमबत्ती में कोई खास बात है।

दारोगा ने मोमबत्ती बालकर जमीन पर जमा दी और उसकी रोशनी में प्रभाकरसिंह के हाथ की चीठी खोजने के बहाने से अपना बटुआ टटोलने लगा।

कभी बटुए की तलाशी लेता, तभी अपने जेबों को टटोलता, और कभी कमर में देख कर बनावटी ताज्जुब से हाथ पटकता और कहता कि ‘न मालूम चीठी कहाँ रख दी है! मेरे जैसा बेवकूफ भी कोई न होगा। भला ऐसी जरूरी चिट्ठी को इस तरह रखना चाहिए कि समय पर जल्दी मिल न सके’!

चीठी की खोज और कपड़ों की तलाशी में दारोगा ने बहुत देर लगा दी और तब तक उस मोमबत्ती का धुआँ तमाम कमरे में फैल गया। बेचारी जमना, सरस्वती और इन्दुमति चीठी की चाह में बड़ी उत्कण्ठा से दारोगा की हरकतों को खड़ी-खड़ी देख रही थीं मगर उन लोगों को यह नहीं मालूम होता था कि इस धुएँ की बदौलत हम लोगों की हालत बदलती चली जा रही है। थोड़ी देर में ही वे तीनों बेचारी औरतें बेहोश होकर जमीन पर लेट गईं और अब दारोगा ने बड़ी फतह-मन्दी और खुशी की निगाह से उन तीनों की तरफ देखा।

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