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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान

यद्यपि सूर्य भगवान अभी उदय नहीं हुए थे तथापि उनके आने का समय निकट जान अंधकार ने पहिले ही से अपना दखल छोड़ना आरम्भ कर दिया था और धीरे-धीरे भाग कर पहाड़ की कन्दराओं और गुफाओं में अपने शरीर को सिकोड़ता या समेटता हुआ घुसा चला जा रहा था।

एक छोटे मैदान में जिसे चारों तरफ से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों ने घेर रक्खा है हम एक विचित्र तमाशा देख रहे हैं। वह मैदान चार या पाँच बिगहे से ज्यादा न होगा जिसके बीचोबीच में स्याह पत्थर का पुरसे भर ऊँचा बहुत और खूबसूरत चबूतरा बना हुआ था, जिसके ऊपर जाने के लिए चारों तरफ सीढ़ियाँ बनी थीं।

हौज के चारों कोनों पर चार हंस इस कारीगरी से बनाये और बैठाये हुए थे कि जिन्हें देख कर कोई भी न कह सकेगा कि ये हंस असली नहीं बल्कि नकली हैं। देखने वाला जब तक उन्हें अच्छी तरह टटोल न लेगा तब तक उसके दिल से असली हंस होने का शक न मिटेगा। इसी तरह हौज के अन्दर उतरने वाली सीढ़ियों पर भी मोर और सारस इत्यादि कई जानवर दिखाई दे रहे थे और वे भी उन्हीं हंसों की तरह नकली, किसी धातु के बने हुए थे, मगर देखने में ठीक असली जान पड़ते थे।

इनके अतिरिक्त उसी हौज के अन्दर संगमर्मर की सीढ़ी पर एक निहायत हसीन और खूबसूरत औरत भी बेहोश पड़ी हुई दिखाई दे रही थी जिसके खुले हुए बाल सुफेद पत्थर की चट्टान पर बिखरे हुए थे बल्कि बालों का कुछ भाग जल की हलकी लहरों के कारण हिलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था।

पहिले तो मेरे दिल में आया कि मैं और जानवरों की तरह औरत को भी नकली और बनावटी समझूँ मगर उसकी खूबसूरती और नजाकत को देख कर मैं सहम गया, आह, क्या ही खूबसूरत चेहरा, बड़ी-ब़ड़ी मगर इस समय पलकों से ढकी हुई आँखें, चौड़ी पेशानी में सिंदूर की केवल एक बिन्दी कैसी अच्छी मालूम होती थी कि हजार रोकने पर भी मुँह से निकल ही पड़ा कि यह जरूर स्वर्ग की देवी है’ चाहे उसके हाथों में सिवाय दस-बारह पतली स्याह चूड़ियों के और कुछ भी न हो किसी अंग मे किसी तरह का कोई भी गहना दिखाई देता न हो, परन्तु उसकी खूबसूरती किसी गहने की मुहताज न थी।

मैं खड़ा यही सोच रहा था कि यह औरत असली है या बनावटी और यह इरादा भी हो चुका था कि जिस तरह ऊपर वाले हँस को टटोल कर देख चुका हूँ उसी तरह नीचे की सीढ़ियों पर बैठे हुए जानवरों के साथ–ही-साथ इस औरत को भी टटोल कर देखूँ और निश्चय करूँ कि असली है या नकली कि इतने ही में उस औरत ने गर्दन हिलाते और अपना चेहरा जल की तरफ से घुमाकर सीढ़ी की तरफ कर दिया बस फिर क्या था, मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहा मुझे विश्वास हो गया कि और जानवरों की तरह यह औरत बनावटी नहीं है।

फिर मैं सोचने लगा कि इसे किसी तरह जगाना चाहिए अस्तु मैने जोर से कई तालियाँ बजाई मगर इसका असर कुछ भी न हुआ। उस समय मुझे पुनः उसकी सच्चाई पर शक हुआ और मैं यह जाँचने के लिए कि देखूँ इस औरत की साँस चलती है या नहीं उसके पेट की तरफ गौर से देखने लगा जिसके आधे भाग का कपड़ा खिसक जाने के कारण खुला हुआ था, मगर साँस चलने की आहट मालूम न हुई! इतने ही में हवा का एक बहुत कड़ा झपेटा आया, मैंने तो समझा कि इस झपेटे के लगते ही वह जाग जायगी और उसके बदन का कपड़ा भी जो लापरवाही के साथ हर तरह से ढीला पड़ा हुआ है जरूर खिसक जायगा और उसका सुन्दर तथा सुडौल बदन मुझे अच्छी तरह देखने का मौका मिलेगा मगर अफसोस, ऐसा न हुआ, न तो उसकी निद्रा ही भंग हुई और न उसके बदन पर से कपड़ा ही खिसका।

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ और अन्त में मैंने निश्चय कर लिया कि स्वयं हौज के अन्दर उतर कर उस औरत की निद्रा भंग करूँगा, क्योंकि उसकी खूबसूरती और उसके अंग की सुडौली मेरे दिल को बेतरह मसोस रही थी।

मैं दिल कड़ा करके हौज के अन्दर उतरने लगा। एक सीढ़ी उतरा, दूसरी सीढ़ी उतरा, तीसरी सीढ़ी पर पैर रक्खा ही था कि मैं डर कर उठा और मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। क्योंकि यकायक वे चारों हंस जो हौज के ऊपर खड़े थे और जिन्हें मैं अच्छी तरह देखभाल चुका था कि वे असली नहीं, बनावटी हैं, अपनी जगह छोड़ और गरदन ऊँची कर इधर-उधर और बड़ी बेचैनी के साथ मेरी तरफ देखने लगे मानों मेरा हौज के अन्दर उतरना उन्हें बहुत बुरा मालूम हुआ। यह बात सिर्फ दस-बारह सायत तक रही, इसके बाद वे अपने बड़े-बड़े परों को फैला कर बेतरह मुझ पर टूट पड़े जिसे देख मैं डर गया और अपना दाहिना हाथ (जिसमें खंजर था) आगे की तरफ बढ़ाये हुए पीछे हट कर चौथी सीढ़ी पर उतर गया।

हौज के अन्दर सीढ़ी पर उतर जाना तो मेरे लिए बड़ा ही भयानक हुआ। हौज के अन्दर सीढ़ियों पर जो बहुत-से बनावटी जानवर (परिन्दे) थे, वे भी ऊपर वालें हंस की तरह अपनी क्रोध वाली अवस्था दिखाते हुए पर फैला कर इस तरह मुझ पर झपट पड़े मानों ये सब बात-की-बात में मुझे नोच कर खा जायेगे। केवल इतना ही नहीं। वह औरत भी उठ कर बैठ गई और गरदन ऊँची करके क्रोध –भरी आँखों से मेरी तरह देखने लगी।

वह दृश्य बड़ा ही भयंकर था, जानवरों के बेतरह झपट पड़ने से मैं कदापि न डरता यदि वह वास्तव में सच्चे होते और मैं उन्हें अपने खंजर से काट सकता परन्तु मैं तो अच्छी तरह जाँच कर समझ चुका था कि वे सब असली नहीं हैं फिर भी जब उन्होंने हमला किया तब मैंने अपने खंजर से उन्हें रोकना चाहा, परन्तु खंजर ने भी उनके बदन पर कुछ असर न किया मानो उसका बदन फौलाद का बना हुआ हो, ऐसी अवस्था में उन सभों को एकसाथ मिल कर हमला करना मुझे जरूर नुकसान पहुँचा सकता था अस्तु आश्चर्य के साथ-ही-साथ भय ने भी मुझ पर अपना असर जमा लिया। इसके अतिरिक्त उस औरत का एक अजीब ढंग से मेरी तरफ देखना और भी घबराहट पैदा करने लगा।

पहिले तो मैंने चाहा कि जिस तरह हो सके इस बावली के बाहर निकल जाऊँ मगर ऐसा न हो सका, लाचार पीछे की तरफ हट मैं और भी दो सीढ़ी नीचे उतर गया मगर वहाँ भी ठहरने की हिम्मत न पड़ी क्योंकि उन जानवरों का हमला और भी तेज हो गया तथा औरत भी इतनी जोर से चिल्ला उठी कि मैं घबड़ा गया तथा और भी कई सीढ़ी नीचे उतर कर उस औरत के पास जा पहुँचा। बस उसी समय औरत ने मेरा पैर पकड़ लिया और एक ऐसा झटका दिया कि मैं जल के अन्दर जा पड़ा और बेहोश हो गया।

इसके बाद क्या हुआ इसकी मुझे कुछ खबर ही नहीं है। छोटी-छोटी चार पहाड़ियों के अन्दर एक खुशनुमा बाग है। इसमें सुन्दर-सुन्दर बहुत-सी क्यारियाँ बनी हुई हैं, हर तरफ छोटी-छोटी नहरें जारी हैं और पेड़ों के ऊपर बैठ कर बोलने वाली तरह-तरह की चिड़ियों की सुरीली आवाज़ से वह सुबह का सुहावना समय और भी मजेदार मालूम हो रहा है।

इस बाग के पूरब तरफ बहुत बड़ी इमारत है जिसमें सैकड़ों आदमियों का खुशी से गुजारा हो सकता है, यह इमारत तिमंजिली है। नीचे के हिस्से में एक बहुत बड़ा दीवानखाना है और दीवानखाने के दोनों तरफ बाहरदरियाँ हैं। ऊपर की मंजिलों में छोटे-बड़े बहुत-से खूबसूरत दरवाजे दिखाई दे रहे हैं, उसके अन्दर क्या है सो तो इस समय नहीं कह सकते मगर अन्दाज से मालूम होता है कि ऊपर भी कई कमरे, कोठरियाँ, दालान, शहनशीन और बारहदरियाँ जरूर होंगी।

नीचे वाला दीवानखाना मामूली नहीं बल्कि शाही ढंग का बना हुआ है।

छः पहले चालीस खम्भों पर इसकी छत कायम है। खम्भे स्याह पत्थर के हैं और उन पर सोने से पच्चीकारी का काम किया हुआ है। बाहर के रुख पर बड़े-बड़े पाँच महराब हैं और उन महाराबों पर भी निहायत खूबसूरत पच्चीकारी का काम किया हुआ है। अन्दर की तरफ अर्थात् पिछली दीवार पर भी जहाँ एक जड़ाऊ सिंहासन रक्खा है जड़ाऊ तथा मीनाकारी का काम बना हुआ है जिसमें कारीगर ने जंगली सीन और शिकारगाह की तस्वीरों पर कुछ ऐसा मसाला चढ़ाया हुआ है जिसमें मालूम होता है कि ये दोनों दीवारें बिल्लौरी शीशे की बनी हुई हैं।

सिंहासन पिछली दीवार के साथ मध्य में रक्खा हुआ है और उस सिंहासन से चार हाथ ऊपर एक खूबसूरत दरीची (खिड़की) है जिसमें एक नफीस चिक पड़ी हुई है और उस चिक के अन्दर कदाचित् कोई औरत बैठी हुई है, और आवाज से यही जान पड़ता है कि बेशक वह औरत ही है। सिंहासन के ऊपर एक खूबसूरत और बहादुर नौजवान ने ऊपर खिड़की की तरफ मुँह करके बयान किया है। जब उस जवान ने यह कहा कि ‘इसके बाद क्या हुआ इसकी मुझे कुछ भी खबर नहीं, तब उस चिक के अन्दर से यह बारीक आवाज आई- ‘‘आखिर तुम यहाँ तक क्योंकर पहुँचे?’’

नौजवान : जब मेरी आँखें खुलीं और मैं होश में आया तो अपने को इसी बाग में एक रविश के ऊपर पड़े हुए पाया। उस समय वहाँ कई औरतें मौजूद थीं जिन्होंने मुझसे तरह-तरह के सवाल किए और इसके बाद मुझे इस दीवानखाने में पहुँचा कर वह सब न-मालूम कहाँ चली गईं।

चिक के अन्दर से : अच्छा अब तुम क्या चाहते हो बताओ?

नौजवान : पहिले तो मैं यहाँ के मालिक का परिचय लिया चाहता हूँ।

चिक के अन्दर से : समझ लो कि यहाँ कि मालिक मैं ही हूँ!

नौजवान : मगर यह मालूम होना चाहिए कि आप कौन हैं?

चिक के अन्दर से : मैं एक स्वतंत्र औरत हूँ, यहाँ की रानी कह कर मुझे संबोधन करते हैं।

नौजवान : आपका कोई मालिक या अफसर भी यहाँ नहीं है?

चिक के अन्दर से : मैं एक राजा की लड़की हूँ, मेरा बाप मौजूद है और अपनी रियासत में है, मुझे उसने तिलिस्म के अन्दर कैद कर रक्खा है मगर मैं अपने को यहाँ स्वतन्त्र समझती हूँ और खुश हूँ, दु:ख इतना ही है कि इस तिलिस्म के बाहर मैं नहीं जा सकती।

नौजवान : आपके पिता ने आपको कैद क्यों कर रक्खा है?

चिक के अन्दर से : इसलिए कि मैं शादी करना मंजूर नहीं करती और इसमें वह अपनी बेइज्जती समझता है।

नौजवान : क्या आपका और आपके पिता का नाम मैं सुन सकता हूँ?

‘चिक के अन्दर से : नहीं, पहिले मैं आपका नाम सुनना चाहती हूँ।

नौजवान : मेरा नाम प्रभाकरसिंह है।

चिक के अन्दर से : हैं, क्या आप सच कहते हैं? मुझे विश्वास नहीं होता!!

प्रभाकर : बेशक मैं सच कहता हूँ, झूठ बोलने की मुझे जरूरत ही क्या है?

चिक के अन्दर से : और आपके पिता का नाम क्या है?

प्रभाकर : दिवाकरसिंहजी।

चिक के अन्दर से : आह, क्या यह सम्भव है! फिर भी मैं कहती हूँ मुझे विश्वास नहीं होता!!

प्रभाकर : अगर आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता तो लाचारी है, मुझे कोई ऐसी तरकीब नहीं सूझती जिससे मैं आपको विश्वास दिला सकूँ।

चिक के अन्दर से : हाँ मुझे एक तरकीब याद आई है।

प्रभाकर : वह क्या!

चिक के अन्दर से : लड़कपन में गेंद खेलते समय आपको जो चोट लगी थी उसे मैं देखूँगी तो जरूर विश्वास कर लूँगी!

प्रभाकर : (आश्चर्य से) यह बात आपको कैसे मालूम हुई!

चिक के अन्दर से : सो मैं पीछे बताऊँगी।

इतना सुनते ही प्रभाकर सिंह ने अपना कपड़ा उतार दिया और दाहिने मोढ़े के नीचे पीठ पर एक बड़े जख्म का निशान चिक की तरफ दिखा कर कहा, ‘‘यही वह निशान है।’’

इसके जवाब में चिक का परदा उठ गया और एक बहुत ही हसीन औरत उस खिड़की में बैठी हुई प्रभाकरसिंह को दिखाई दी, उसे देखने के साथ ही प्रभाकर सिंह बदहवास से हो गये और उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा।

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