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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान

अब देखना चाहिए कि नागर से विदा होकर भूतनाथ कहाँ गया और उसने क्या कार्रवाई की।

नागर के मकान से उतर कर भूतनाथ सीधे दक्खिन की तरफ रवाना हुआ और रात-भर बराबर चलता गया, सुबह होते-होते तक वह एक पहाड़ के दामन में पहुँचा जिसके पास एक सुन्दर तालाब था। उस तालाब पर भूतनाथ ठहर गया और कुछ देर आराम करने के बाद जरूरी कामों से निपटने के फेर में पड़ा जब स्नान संध्या इत्यादि से छुट्टी पा चुका तो बटुए में से मेवा निकाल कर खाया, जल पिया और इसके बाद पहाड़ पर चढ़ने लगा।

यहाँ से पहाड़ों का सिलसिला बराबर बहुत दूर तक चला गया। भूतनाथ पहाड़ के ऊपर चढ़ कर दोपहर दिन चढ़े तक बराबर चलता गया।

इसी बीच में उसने कई बड़े-बड़े और भयानक जंगल पार किये और अन्त में वह एक गुफा के मुहाने पर पहुँचा जहाँ साखू और शीशम के बडे-बड़े पेड़ों से अन्धकार हो रहा था। भूतनाथ वहाँ एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया और किसी का इन्तजार करने लगा।

भूतनाथ को वहाँ बैठे हुए घण्टे-भर से कुछ ज्यादे देर हुई होगी कि उसका एक शागिर्द वहाँ आ पहुँचा जो इस समय एक देहाती जमींदार की सूरत बना हुआ था। उसने भूतनाथ को, जो इस समय अपनी असली सूरत में था, देखते ही प्रणम किया और बोला, ‘‘मैं श्यामदास हूँ, आपको खोजने के लिए काशी गया हुआ था।’’

भूत० : आओ हमारे पास बैठ जाओ और बोलो कि वहाँ तुमने क्या-क्या देखा और किन-किन बातों का पता लगाया।

श्यामदास : वहाँ बहुत कुछ टोह लेने पर मुझे मालूम हुआ कि प्रभाकरसिंह सही-सलामत लड़ाई पर से लौट आये और जब वे उस घाटी में गये तो जमना, सरस्वती और इन्दुमति को न पाकर बहुत ही परेशान हुए इसके बाद वे इन्द्रदेव के पास गये और अपने दोस्त गुलाबसिंह के साथ कई दिनों तक वहाँ मेहमान रहे।

भूत० : ठीक है यह खबर मुझे भी वहाँ लगी थी मैं इन्द्रदेव को देखने के लिए वहाँ गया था क्योंकि आजकल वे बीमार पड़े हुए हैं, अच्छा तब क्या हुआ?

श्याम० : इसके बाद मैं जमानिया गया, वहाँ मालूम हुआ कि कुँअर गोपाल सिंह की शादी के बारे में तरह-तरह की खिचड़ी पक रही है जिसका खुलासा हाल मैं फिर किसी समय आपसे बयान करूँगा, इसके अतिरिक्त आज पन्द्रह दिन से भैया राजा (गोपासिंह के चाचा) कहीं गायब हो गये हैं, बाबाजी (दारोगा) वगैरह उनकी खोज में लगे हुए हैं, बहुत-से-जासूस भी चारों तरफ भेजे गये हैं, मगर अभी तक उनका पता नहीं लगा।

भूत० : ऐसी अवस्था में कुँअर गोपालसिंह तो बहुत ही परेशान और दुखी हो रहे होंगे!

श्याम० : होना तो ऐसा ही चाहिए था मगर उनके चेहरे पर उदासी और तरद्दुद की कोई निशानी मालूम नहीं पड़ती और इस बात से लोगों को बड़ा ही ताज्जुब हो रहा है। आज तीन-चार दिन हुए होंगे कि कुँअर गोपालसिंह इन्द्रदेव से मिलने के लिए ‘कैलाश’ गये थे, दोपहर तक रहकर वह पुनः जमानिया लौट गये। सुनते हैं कि इन्द्रदेव भी दो-चार दिन में जमानिया जाने वाले हैं।

भूत० : इन्द्रदेव के बारे में जो कुछ सुना करो उसका निश्चय मत माना करो, वह बड़े विचित्र आदमी हैं और यद्यपि मुझे विश्वास है कि वह मेरे साथ कभी कोई बुराई न करेंगे मगर फिर भी मैं उनसे डरता हूँ। दूसरी बातों को जाने दो उनके चेहरे से इस बात का भी शक नहीं लगता कि आज वह खुश हैं या नाखुश।

श्याम० : शक क्या मुझे तो इस बात का यकीन-सा हो रहा है परन्तु हजार कोशिश करने पर भी इसका मुझे कोई पक्का सबूत नहीं मिला। अभी तक मैं इस विषय का भेद जानने के लिए बराबर कोशिश कर रहा हूँ।

श्याम० : ठीक है परन्तु मैं इसी बात को एक बहुत बड़ा सबूत समझता हूँ कि जमना और सरस्वती उस अद्भुत घाटी में रहती हैं जो एक छोटा-सा तिलिस्म समझा जा सकता है, क्या इन्द्रदेव के अतिरिक्त किसी दूसरे आदमी ने उन्हें ऐसी सुन्दर घाटी दी होगी? मुझे तो ऐसा विश्वास नहीं होता।

भूत० : जो हो, मगर फिर भी यह एक अनुमान है, प्रमाण नहीं। खैर इस विषय पर इस समय बहस करने की कोई जरूरत नहीं, मैं आज किसी दूसरे ही तरद्दुद में पड़ा हुआ हूँ जिसके सबब से मेरी तबीयत भी बेचैन हो रही है।

श्याम० : वह क्या?

भूत० : तुम जानते हो कि तुम्हारे भाई रामदास की मदद से मैं जमना, सरस्वती, इन्दुमति तथा उनकी लौंडियों को उस घाटी में एक कुएँ के अन्दर ढकेल कर जहन्नुम में पहुँचा दूँ।

श्याम० : जी हाँ, उसी में मेरा भाई भी तो़...

भूत० : बेशक मुझे रामदास के लिए बड़ी चिन्ता लगी हुई है मगर जिस अवस्था में मै रामदास को देख कर लौटा हूँ उसे विचारने से खयाल होता है कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति जीती बच गई हों तो कोई ताज्जुब नहीं।

श्याम० : सम्भव है कि ऐसा ही हुआ हो, परन्तु जीती बच जाने पर भी मैं समझता हूँ कि वे सब कुछ दिन बाद भूख और प्यास की तकलीफ से मर गई होंगी।

भूत० : नहीं ऐसा नहीं हुआ, अभी कल ही मैंने काशी में सुना है कि वे तीनों प्रभाकरसिंह के साथ बरना नदी के किनारे घूमती-फिरती देखी गई हैं।

श्याम० : (चौंक कर) हैं! अगर ऐसी बात है तो उन लोगों की तरह मेरा भाई भी बच कर निकल भागा होगा!!

भूत० : होना तो ऐसा ही चाहिए था मगर रामदास अभी तक मुझसे नहीं मिला।

श्याम० : तो आपने काशी में किसकी जुबानी ऐसा सुना था?

इसके जवाब में भूतनाथ ने बाबू साहब, नागर तथा चन्द्रशेखर का कुछ हाल ध्यान किया और कहा–

भूत० : जमना, सरस्वती और इन्दुमति के विषय में मेरा खयाल है कि रामलाल (बाबू साहब) भी कुछ जानता होगा, मगर उस समय डाँट-डपट बताने पर भी उसने मुझे कुछ नहीं कहा।

श्याम० : अगर आप आज्ञा दें और बुरा न मानें क्योंकि वह आपका साला है तो मैं उसे अपने फन्दे में फँसा कर असल भेद का पता लगा लूँ। मुझे विश्वास है कि अगर जमना और सरस्वती छूट कर आ गई हैं तो मेरा भाई भी उस आफत से जरूर बच गया होगा।

इतने में भूतनाथ की निगाह मैदान की तरफ जा पड़ी। एक आदमी को अपनी तरफ आते देख कर वह चौंका और बोला-

भूत० : देखो-देखो, वह कौन आ रहा है!!

श्याम० : (मैदान की तरफ देख कर) हाँ कोई आ रहा है! ईश्वर करे मेरा भाई रामदास ही हो!

भूत० : मेरे पक्षपाती के सिवाय दूसरा कोई यहाँ कब आ सकता है? देखते-ही-देखते वह आदमी भूतनाथ के पास आ पहुँचा और झुक कर सलाम करने के बाद बोला, ‘‘मेरा नाम रामदास है, पहिचान के लिए मैं ‘चंचल’ शब्द का परिचय देता हूँ, ईश्वर की कृपा से मेरी जान बच गई और मैं राजी-खुशी आप की खिदमत में हाजिर हो गया, खाली हाथ नहीं बल्कि अपने साथ एक ऐसी चीज लाया हूँ जिसे देख कर आप फड़क उठेंगे और बार-बार मेरी पीठ ठोकेंगे।’’

भूत० : (प्रसन्न होकर) वाह, वाह! तुम जो तारीफ का काम करो वह थोड़ा है! तुम्हारे जैसा नेक, ईमानदार और धूर्त शागिर्द पाकर मैं दुनिया में अपने को धन्य मानता हूँ। आओ मेरे पास बैठ जाओ और कहो कि किस तरह तुम्हारी जान बची और मेरे लिए क्या तोहफा लाए हो?

रामदास परिचय लेने के बाद अपने भाई श्यामदास के गले मिला और भूतनाथ के पास बैठ कर इस तरह बातचीत करने लगाः-

राम० : मेरी जान ऐसी दिल्लगी के साथ और ऐसे ढंग से बची है कि उसे याद करके मैं बार-बार खुश हुआ करता हूँ।

श्याम० : मैंने अभी-अभी ओस्तादजी से यही बात कही थी कि अगर जमना, सरस्वती और इन्दु बच कर निकल आई हैं तो मेरा भाई भी जरूर बच कर निकल आया होगा।

राम० : (ताज्जुब के ढंग पर) सो क्या! जमना, सरस्वती और इन्दुमति छूट कर कैसे निकल आईं?

भूत० : कैसे छूट कर निकल आईं सो तो मैं नहीं जानता मगर इतना सुना है कि तीनों प्रभाकरसिंह के साथ काशी में बरना नदी के किनारे टहलती हुई देखी गईं!

राम० : कब देखी गई हैं?

भूत० : आज आठ-दस दिन हुए होंगे।

राम० : और उन्हें देखा किसने?

भूत० : मेरे साले रामलाल ने।

राम० : झूठ, बिल्कुल झूठ! अगर आपने स्वयं अपनी आँखों से देखा होता तब भी मैं न मानता।

भूत० : सो क्यों?

राम० : अभी चौबीस घण्टे भी नहीं हुए होंगे कि मैं उन्हें तिलिस्म के अन्दर फँसी हुई छोड़कर आया हूँ।

भूत० : किस तिलिस्म में?

राम० : उसी तिलिस्म में, जिस कुएँ में आपने उन तीनों को फेंक दिया था। वह उसी घाटी वाले तिलिस्म का एक रास्ता है। उसके अन्दर गया हुआ आदमी मरता नहीं बल्कि तिलिस्म के अन्दर फँस जाता है, यही सबब है कि उन लोगों के साथ ही मैं भी उस तिलिस्म में जा फँसा। कुछ दिन के बाद प्रभाकरसिंह उन तीनों की खोज में उस तिलिस्म के अन्दर गये और वहाँ यकायक मुझसे मुलाकात हो गई। मुझे देखकर वे धोखे में पड़ गये क्योंकि ईश्वर की प्रेरणा से मैं उस समय भी हरदेई की सूरत में था। प्रभाकरसिंह ने मुझसे कई तरह के सवाल किए और मैंने उन्हें खूब ही धोखे में डाला।

उनके पास एक छोटी सी किताब थी जिसमें उस तिलिस्म का हाल लिखा हुआ था। उसी किताब की मदद से वे तिलिस्म के अन्दर गए थे। मैंने धोखा देकर वह किताब उनकी जेब में से निकाल ली उसी की मदद से मुझे छुटकारा मिला। तिलिस्म से निकलते ही मैं सीधा आपसे मिलने के लिए इस तरफ रवाना हुआ और उन सभी को तिलिस्म के अन्दर ही छोड़ दिया (बटुए में से किताब निकाल और भूतनाथ के हाथ में देकर) देखिये यही वह तिलिस्मी किताब है, अब आप इसकी मदद से बखूबी उस तिलिस्म के अन्दर जा सकते हैं।

भूत० : (किताब देखकर और दो-चार पन्ने उलट-पुल्ट कर रामदास की पीठ ठोंकता हुआ) शाबाश, तुमने वह काम किया जो आज मेरे लिए भी कदाचित् नहीं हो सकता था! वाह वाह वाह! अब मेरे बराबर कौन हो सकता है? अच्छा अब तुम हमारे साथ इस खोह के अन्दर चलो और कुछ खा पीकर निश्चिन्त होने के बाद मुझसे खुलासे तौर पर कहो कि उस कुएँ में जाने के बाद क्या हुआ! निःसंदेह तुमने बड़ा काम किया, तुम्हारी जितनी तारीफ की जाय थोड़ी है!

अच्छा यह तो बताओ कि यह तिलिस्मी किताब प्रभाकरसिंह को कहाँ से मिली, क्या इस बात का भी कुछ पता लगा?

राम० : इसके विषय में मैं कुछ भी नहीं जानता।

भूत० : खैर इसकी जाँच करने की कुछ विशेष जरूरत भी नहीं है।

राम० : मैं समझता हूँ कि आप उस तिलिस्म के अन्दर जरूर जायेंगे और जमना। सरस्वती तथा इन्दुमति को अपने कब्जे में करेंगे।

भूत० : जरूर क्या इसमें भी कोई शक है, अभी घंटे-डेढ घंटे में हम और तुम यहाँ से रवाना हो जायेंगे और आधी रात बीतने के पहिले ही वहाँ जा पहुँचेगे। अब तो हम लोग पास आ गये हैं सिर्फ तीन-चार घण्टे का ही रास्ता है। आज के पहिले जमना और सरस्वती का इतना डर न था जितना अब है।

अब उनके खयाल से मैं काँप उठता हूँ क्योंकि पहिले तो सिवाय दयाराम के मारने के और किसी तरह का इल्जाम वे मुझ पर नहीं लगा सकती थीं और उस बात का सबूत मिल भी नहीं सकता था क्योंकि मैंने ऐसा किया ही नहीं, परन्तु अब तो वे लोग कई तरह का इल्जाम मुझ पर लगा सकती हैं और बेशक इधर मैंने उन सभी के साथ बड़ी-बड़ी बुराइयाँ भी की हैं, ऐसी अवस्था में उनका बच जाना मेरे लिए बड़ा ही अनर्थ-कारक होगा।

अस्तु जिस तरह हो सकेगा मैं जमना, सरस्वती, इन्तुमति, प्रभाकर-सिंह और गुलाबसिंह को भी जान से मारकर बखेड़ा तै करूँगा। हाँ, गुलाबसिंह का पता है, वह कहाँ हैं और क्या कर रहा है? क्योंकि तुम्हारी जुबानी जो कुछ सुना है उससे मालूम होता है कि वह प्रभाकर सिंह के साथ तिलिस्म के अन्दर नहीं गया।

राम० : हाँ ठीक है, पर गुलाबसिंह का हाल मुझे कुछ भी मालूम नहीं हुआ अच्छा मैं एक बात आपसे पूछना चाहता हूँ।

भूत० : वह क्या?

राम० : आपने अभी जो अपना हाल बयान किया है उसमें चन्द्रशेखर का हाल सुनने से मुझे बड़ा ही ताज्जुब हो रहा है। कृपा कर यह बताइए कि वह चन्द्रशेखर कौन है और आप उससे इतना क्यों डरते हैं? क्या उसे अपने कब्जे में करने की सामर्थ्य आप में नहीं है?

भूत० : (उसकी याद से काँप कर) इस दुनिया में मेरा सबसे बड़ा दुश्मन वही है, ताज्जुब नहीं एक दिन उसी की बदौलत जीते-जागते रहने पर भी मुझे यह दुनिया छोड़नी पड़े। वह बड़ा ही बेढब आदमी है बड़ा ही भयानक आदमी है, तथा ऐयारी में वह कई दफे मुझे ज़क दे चुका है!

आश्चर्य होता है कि उसके बदन पर कोई हरबा असर नहीं करता! न-मालूम उसने किसी तरह का कवच पहिर रक्खा है या ईश्वर ने उसका बदन ही ऐसा बनाया है! उसके बदन पर मेरी दो तलवारें टूट चुकी हैं। उसकी तो सूरत ही देखकर मैं बदहवास हो जाता हूँ।

राम० : (आश्चर्य के साथ) आखिर वह है कौन?

भूत० : (कुछ सोच कर) अच्छा फिर कभी उसका हाल तुमसे कहेंगे, इस समय जो कुछ बातें दिमाग में पैदा हो रही हैं उन्हें पूरा करना चाहिए अर्थात जमना, सरस्वती और इन्दुमति के बखेड़े से तो छुट्टी पा लें फिर चन्द्रशेखर को भी देख लिया जायगा। आखिर वह अमृत पीकर थोड़े ही आया होगा।

इतना कहकर भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और अपने दोनों शागिदों को साथ लिए हुए खोह के अन्दर चला गया। इस समय रात घण्टे भर से कुछ ज्यादे जा चुकी थी।

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