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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान

पाठक महाशय, अब हम कुछ हाल जमानिया का लिखना मुनासिब समझते हैं और उस समय का हाल लिखते हैं जब राजा गोपालसिंह की कम्बख्ती का जमाना शुरू हो चुका था और जमानिया में तरह-तरह की घटनाएँ होने लग गई थीं।

जमानिया तथा दारोगा और जैपाल वगैरह के सम्बन्ध की बातें जो चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखी जा चुकी हैं उन्हें हम इस ग्रन्थ में बिना कारण लिखना उचित नहीं समझते, उनके अतिरिक्त और जो बातें हुई हैं उन्हें लिखने की इच्छा है, हाँ यदि मजबूरी से कोई जरूरत आ ही पड़ेगी तो बेशक पिछली बातें संक्षेप के साथ दोहरायी जायँगी और राजा गोपालसिंह की शादी के पहिले का कुछ हाल लिखा जायगा।

इसका कारण यही है कि भूतनाथ चन्द्रकान्ता सन्तति का परिशिष्ट भाग समझा जाता है।

अपने संगी-साथियों को साथ लिए हुए बाबू साहब जो भागे तो सीधे अपने घर की तरफ नहीं गए बल्कि नागर रंडी के मकान पर चले गये क्योंकि बनिस्बत अपने घर के उन्हें उसी का घर प्यारा था और उसी को वे अपना हमदर्द और दोस्त समझते थे। जिस समय वे उस जगह पहुँचे तो सुना कि नागर अभी तक बैठी हुई उनका इन्तजार कर रही है। बाबू साहब को देखते ही नागर उठ खड़ी हुई और बड़ी खातिरदारी के साथ उनका हाथ पकड़ कर अपने पास एक ऊँची गद्दी पर बैठाया और मामूली के खिलाफ आज देर हो जाने का सबब पूछा, मगर बाबू साहब ऐसे बदहवास हो रहे थे कि उनके मुँह से कोई बात न निकलती थी। उनकी ऐसी अवस्था देख नागर को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और उसने लाचार होकर उनके साथियों से उनकी परेशानी और बदहवासी का कारण पूछा।

बाबू साहब कौन हैं और उनका नाम क्या है इसका पता अभी तक नहीं मालूम हुआ, खैर इसके जानने की विशेष आवश्यकता भी नहीं जान पड़ती इसलिए अभी उन्हें बाबू साहब के नाम ही से सम्बोधित करने दीजिए, आगे चल कर देखा जायगा।

बाबू साहब ने अपनी जुबान से अपनी परेशानी का हाल यद्यपि नागर से कुछ भी नहीं कहा मगर उनके साथियों की जुबानी उनका कुछ हाल नागर को मालूम हो गया और तब नागर ने दिलासा देते हुए बाबू साहब से कहा, ‘‘यह तो मामूली घटना थी।’’

बाबू साहब : जी हाँ, मामूली घटना थी! अगर उस समय आप वहाँ होतीं तो मालूम हो जाता कि मामूली घटना कैसी होती है!

नागर : (मुस्कराती हुई) खैर किसी तरह मुँह से बोले तो सही!

बाबू साहब : पहिले यह तो बताओ कि नीचे का दरवाजा तो बन्द है? कहीं कोई आ न जाय और हम लोगों की बातें सुन न ले।

नागर : आप जानते हैं कि आपके जाने के साथ ही लौंडियाँ फाटक बन्द कर दिया करती हैं। हमारे यहाँ सिवाय आपके दूसरे किसी ऐसे सर्दार का आना-जाना तो है ही नहीं कि जिससे मुझे किसी तरह का लगाव या मुहब्बत हो, हाँ बाजार में बैठा करती हूँ इसलिए कभी-कभी कोई मारा पीटा आ ही जाया करता है, सो भी जब आप आते हैं तो उसी वक्त फाटक बन्द कर दिया जाता है।

बाबू साहब इसका कुछ जवाब दिया ही चाहते थे कि एक आदमी यह कहता हुआ कमरे के अन्दर दाखिल हुआ, ‘‘झूठ भी बोलना तो मुँह पर!’’

इस आदमी की सूरत देखते ही बाबू साहब चौंक पड़े और घबराहट के साथ बोल उठे, ‘‘यही तो है!’’

यह वही आदमी था जिसे बाबू साहब और उनके संगी-साथियों ने कपालमोचन के कुएँ पर देखा था और जिसके डर से अभी तक बाबू साहब की जान पर सदमा हो रहा था।

बाबू साहब की ऐसी हालत देख कर उस आदमी ने जो अभी-अभी आया था कहा, ‘‘डरो मत, मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ बल्कि दोस्त हूँ!’’ इतना कह उस आदमी ने अपने हाथ की गठरी एक किनारे रख दी और मामूली कपड़े उतार कर इस तरह सजा दिये कि जैसे यह उसी का घर हो या इस घर पर उसका बहुत बड़ा अख्तियार हो और नित्य ही वह यहाँ आता-जाता हो।

यह आदमी असल में भूतनाथ (गदाधरसिंह) था जिससे नागर की गहरी दोस्ती थी मगर बाबू साहब को इसकी कुछ भी खबर न थी और न कभी ऐसा ही इत्तिफाक हुआ था कि इस जगह पर इन दोनों का सामना हुआ हो हाँ बाबू साहब ने गदाधरसिंह का नाम जरूर सुना था और यह भी सुना था कि वह मामूली आदमी नहीं है।

नागर ने जिस खातिरदारी और आवाभगत के साथ भूतनाथ का सम्मान किया और प्रेम दिखाया उससे बाबू साहब को मालूम हो गया कि नागर बनिस्बत मेरे इस आदमी को बहुत प्यार करती है।

खूँटियों पर कपड़े रख कर भूतनाथ बाबू साहब के पास बैठ गया और बोला, ‘‘भला मैंने आपको क्या तकलीफ दी है जो आप मुझसे इतना डरते हैं? एक ऐयाश और खुशदिल आदमी को इतना डरपोक न होना चाहिए। आप मुझे शायद पहिचानते नहीं, मेरा नाम गदाधरसिंह है, आपने अगर मुझे देखा नहीं तो नाम जरूर सुना होगा।’’

बाबू साहब : (आश्चर्य और डर के साथ) हाँ, मैंने आपका नाम सुना है और अच्छी तरह सुना है।

नागर : (मुस्कराती हुई, बाबू साहब से) आपके तो अब ये गहरे रिश्तेदार हो गये हैं और फिर आप इन्हें न पहिचानेंगे।

बाबू साहब : (कुछ शर्माते हुए) हाँ-हाँ, मैं बखूबी जानता हूँ मगर पहिचानता नहीं था, अफसोस की बात है कि इतने दिनों तक इनसे कभी मुलाकात नहीं हुई।

नागर : (बाबू साहब से) आपसे इनसे कुछ नातेदारी भी तो है?

बाबू साहब : हाँ, मेरी मौसेरी बहिन रामदेई इनके साथ ब्याही है। आज अगर मुझे इस बात की खबर होती कि आप ही मेरे बहनोई हैं तो मैं उस कुएँ पर इतना परेशान न होता बल्कि खुशी के साथ मुलाकात होती। (भूतनाथ से) हाँ, यह तो बताइये कि वह चन्द्रशेखर कौन था जिसके खौफ से आप परेशान हो गये थे! (१. रामदेई-नानक की माँ, जिसका जिक्र चन्द्रकान्ता सन्तति में आ चुका है।)

गदाधर : (कुछ डर और संकोच के साथ) वह मेरा बहुत पुराना दुश्मन है। मेरे हाथ से कई दफे जक उठा चुका और नीचा देख चुका है, अब वह मुझसे बदला लेने की धुन में लगा है। आज बड़े बेमौके मिल गया था क्योंकि मैं बेफिक्र था और वह हर तरह का सामान लेकर मेरी खोज में निकला था।

बाबू साहब : आखिर हम लोगों के चले आने के बाद क्या हुआ? आप से और उसकी कैसी निपटी?

गदाधर : मैं इस मौके को बचा गया और लड़ता हुआ धोखा देकर निकल भागा! खैर फिर कभी देखा जाएगा, अबकी दफे उस साले को ऐसा छकाऊँगा कि वह भी याद करेगा।

चन्द्रशेखर का नाम सुनकर नागर चौंक पड़ी और उसके चेहरे की रंगत बदल गई। मालूम होता था कि वह भूतनाथ से कुछ पूछने के लिए उतावली हो रही है मगर बाबू साहब के खयाल से चुप है और चाहती है कि किसी तरह बाबू साहब यहाँ से चले जायँ तो बात करें।

बाबू साहब : (भूतनाथ से) ठीक है वह बेशक आपका दुश्मन हो आज आठ-दस दिन हुए कि वह मुझसे बरना १ के किनारे एकान्त में मिला था। उस समय उसके साथ तीन चार औरतें भी थीं जिनमें से एक का नाम बिमला था। १. काशी के उत्तर में बहती हुई नदी का नाम वरुणा है।

गदाधर : (चौंक कर) बिमला?

बाबू साहब : हाँ बिमला, और एक मर्द भी उसके साथ था जिसे उसने एक दफे प्रभाकर सिंह के नाम से सम्बोधन किया था।

गदाधर : (घबड़ा कर) क्या तुम उस समय उसके सामने मौजूद थे?

बाबू० : जी नहीं, मैं उन सभों को वहाँ आते देख एक झाड़ी में छिप गया था।

गदाधर: तब तो तुमने और भी बहुत सी बातें सुनीं होंगी।

बाबू : नहीं मैं कुछ विशेष बातें न सुन सका, हाँ, इतना जरूर मालूम हुआ कि वह मनोरमा से और जमानिया के राजा से मिलने का उद्योग कर रहा है।

गदाधर : (कुछ सोच कर और बाबू साहब की तरफ खिसक कर) बेशक आपने और भी बहुत-सी बातें सुनी होंगी, और यह भी मालूम किया होगा कि वे औरतें वास्तव में कौन थीं।

बाबू० : सो मैं कुछ भी न जान सका, कि वे औरतें कौन थीं या वहाँ पहुँचने से उन लोगों का क्या मतलब था।

गदाधर : खैर मैं थोड़ी देर के लिए आपकी बातें मान लेता हूँ।

नागर : (बाबू साहब से) मगर मैंने तो सुना था कि आपका और उन लोगों का सामना हो गया था और आप उसी समय उनके साथ कहीं चले भी गये थे।

बाबू० : (घबड़ाने से होकर) नहीं-नहीं। मेरा-उनका सामना बिलकुल नहीं हुआ बल्कि मैं उन लोगों को उसी जगह छोड़कर छिपता हुआ किसी तरह निकल भागा और अपने घर चला आया क्योंकि मुझे उन लोगों की बातों से कोई सम्बन्ध नहीं था, फिर मुझे जरूरत ही क्या थी कि छिप कर उन लोगों की बात सुनता या उन लोगों के साथ कहीं जाता।

नागर : शायद ऐसा ही हो, मगर जिसने मुझे यह खबर दी थी उसे झूठ बोलने की आदत नहीं है।

बाबू० : तो उसने धोखा खाया होगा। अथवा किसी दूसरे को मौके पर देखा होगा।

नागर ने इस मौके पर जो कुछ बाबू साहब से कहा वह केवल धोखा देने की नियत से था और वह चाहती थी कि बातों के हेर-फेर में डालकर बाबू साहब से कुछ और पता लगा ले, अस्तु जो कुछ हो मगर इस खबर ने भूतनाथ को बहुत ही परेशान कर दिया और वह सर नीचा कर तरह-तरह की बातें सोचने लगा। उसे इस बात का निश्चय हो गया कि बाबू साहब ने जो कुछ कहा है वह बहुत कम है अथवा जान-बूझ कर वे असल बातों को छिपा रहे हैं।

कुछ देर तक सिर झुका कर सोचते-सोचते भूतनाथ को क्रोध चढ़ आया और उसने कुछ तीखी आवाज में बाबू साहब से कहा—

गदा० : सुनिए रामलाल जी १, इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप मेरे नातेदार हैं और इस ख्याल से मुझे आपका मुलाहिजा करना चाहिए मगर ऐसी अवस्था में जब कि आप मुझसे झूठ बोलने और मुझे धोखा देने की कोशिश करते हैं अथवा यों कह सकते हैं कि आप मेरे दुश्मन से मिलकर उसके मददगार बनते हैं तो मैं आपका मुलाहिजा कुछ भी न करूंगा! हाँ यदि आप मुझसे सब-कुछ साफ-साफ कह दें तो फिर मैं भी....  (१. बाबू साहब का असली नाम रामलाल था।)

रामलाल : (अर्थात् बाबू साहब) ठीक है अब मुझे मालूम हो गया कि उन औरतों से और प्रभाकरसिंह से आप डरते हैं, यदि यह बात सच है तो डरपोक और कमजोर होने पर भी मैं आपसे डरना पसन्द नहीं करता...

रामलाल ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि सीढ़ियों पर से जिसका दरवाजा इन लोगों के सामने ही था तेजी के साथ एक नकाबपोश आया और एक लिफाफा भूतनाथ के सामने फेंककर यह कहता हुआ वहाँ से निकल गया—‘‘बेशक डरने की कोई जरूरत नहीं है, और खासकर ऐसे आदमी से जो पूरा नमकहराम और बेईमान है तथा जिसने अपने मालिक और दोस्त दयाराम को अपने हाथ से जख्मी किया था, ईश्वर की कृपा थी वह बेचारा बच गया और जमानिया में बैठा हुआ भूतनाथ के इस्तकबाल की कोशिश कर रहा है।’’

इस आवाज ने भूतनाथ को एकदम परेशान कर दिया। उसने लिफाफा खोल कर चिट्ठी पढ़ने का इन्तजार न किया और खंजर के कब्जे पर हाथ रखता हुआ तेजी के साथ दरवाजे पर और फिर सीढ़ियों पर जा पहुँचा मगर किसी आदमी की सूरत उसे दिखाई न पड़ी। वह धड़धड़ाता हुआ सीढ़ियों के नीचे उतर आया और फाटक के बाहर निकलने पर उस नकाबपोश को कुछ ही दूरी पर जाते हुए देखा। भूतनाथ ने उसका पीछा किया मगर वह गलियों में घूम-फिर कर ऐसा गायब हुआ कि भूतनाथ को उसकी गन्ध तक न मिली और अन्त में वह लाचार होकर नागर के मकान में लौट आया। आने पर उसने देखा की बाबू साहब नहीं हैं, कहीं चले गये।

तब उसने उस लिफाफे की खोज की जो नकाबपोश उसके सामने फेंक गया था और देखना चाहा कि उसमें क्या लिखा हुआ है।

लिफाफा वहाँ मौजूद न देखकर भूतनाथ ने नागर से पूछा, ‘‘क्या वह लिफाफा तुम्हारे पास है?’’

नागर : हाँ, तुमको उस नकाबपोश के पीछे जाते देख मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे सीढ़ियाँ उतर कर फाटक तक चली गई थी। जब तुम दूर निकल गये तब मैं वापस लौट आई और देखा कि बाबू साहब उस लिफाफे को खोल कर चिट्ठी पढ़ रहे हैं। मुझको उसकी ऐसी नालायकी पर क्रोध चढ़ आया और मैंने उसके हाथ से यह चिट्ठी छीन कर बहुत-कुछ बुरा-भला कहा जिस पर वह नाराज होकर यहाँ से चला गया।

भूतनाथ : यह बहुत बुरा हुआ कि यह चिट्ठी उसने पढ़ ली। फिर तुमने उसे जाने क्यों दिया? मैं उसे बिना ठीक किये कभी न रहता और बता देता कि इस तरह की बदमाशी का क्या नतीजा होता है।

नागर : खैर अगर भाग भी गया तो क्या हर्ज है, जब तुम उसे सजा देने पर तैयार हो ही जाओगे तो क्या वह तुम्हारे हाथ न आवेगा?

भूत० : खैर वह चिट्ठी कहाँ है जरा दिखाओ तो सही।

नागर : (खुला हुआ लिफाफा भूतनाथ के हाथ में देकर) लो यह चिट्ठी है।

भूत० : (चिट्ठी पढ़कर) क्या तुमने यह चिट्ठी पढ़ी है?

नागर : नहीं, मगर यह सुनने की इच्छा है कि इसमें क्या लिखा है?

भूत० (पुनः उस चिट्ठी को अच्छी तरह पढ़ के और लिफाफे को गौर से देख कर) अन्दाज से मालूम होता है कि इस लिफाफे में केवल यही एक चिट्ठी नहीं बल्कि और भी कोई कागज था।

नागर : शायद ऐसा ही हो और बाबू साहब ने कोई कागज निकाल लिया हो तो मैं नहीं कह सकती।

भूत० : खैर देखा जायेगा, मेरा द्रोही मुझसे बच के कहाँ जा सकता है। फिर भी आज मैं जिस सायत से तुम्हारे पास आया था वह न हो सका, अच्छा अब मैं जाता हूँ।

नागर : नहीं-नहीं, मैं तुम्हें इस समय जाने न दूँगी, मुझे बहुत-सी बातें तुमसे पूछनी और कहनी हैं। मुझे इस बात का दिन-रात खुटका बना रहता है कि कहीं तुम अपने दुश्मन के फेर में न पड़ जाओ क्योंकि केवल एक तुम्हारे ही सहारे मेरी जिन्दगी है, मुझे सिवाय तुम्हारे इस दुनिया में और किसी का भी भरोसा नहीं है, और तुम्हारे दुश्मनों की गिनती दिन पर दिन बढ़ती ही जाती है।

भूत० : हाँ ठीक है। (कुछ सोचकर) मगर इस समय मैं यहाँ पर नहीं रह सकता है और....

नागर : कल मनोरमा जी भी तुमसे मिलने के लिए यहाँ आने वाली हैं।

भूत० : खैर देखा जायगा, बन पड़ेगा तो मैं कल फिर आ जाऊँगा।

इतना कहकर भूतनाथ खड़ा हुआ और सीढ़ियों के नीचे उतर कर देखते-देखते नजरों से गायब हो गया।

भूतनाथ के चले जाने के बाद नागर आधे घंटे तक चुपचाप बैठी रही, इसके बाद उसने उठकर अपनी लौंडियों को बुलाया और कुछ बातचीत करने के बाद एक लौंडी को साथ लिए हुए सीढ़ियों के नीचे उतरी।

चन्द्रकान्ता सन्तति में नागर के जिस मकान का हाल हम लिख आये हैं वह मकान इस समय नागर के कब्जे में नहीं है क्योंकि अभी तक जमानिया राज्य की वह हालत नहीं हुई थी और न उस इज्जत को अभी नागर पहुँची थी। इस समय नागर रण्डियों की-सी अवस्था में है और उसके कब्जे में एक मामूली छोटा-सा मकान है, फिर भी मकान सुन्दर और मजबूत है तथा उसके सामने एक छोटा-सा नजरबाग भी है।

यद्यपि अभी तक कम उम्र नागर की हैसियत बढ़ी नहीं है फिर भी उसकी चालाकियों का जाल अच्छी तरह फैल चुका है जिसका एक सिरा जमानिया राजधानी में भी जा पहुँचा है क्योंकि उस मनोरमा से इसकी दोस्ती अच्छी तरह हो चुकी है जिसने जमानिया की खराबी में सबसे बड़ा हिस्सा लिया हुआ था।

नागर सीढ़ियों से नीचे उतर कर नजरबाग में होती हुई सदर फाटक पर पहुँची और उसे बन्द करके एक मजबूत ताला उसकी कुण्डी में लगा दिया। इसके बाद लौटकर मकान की सीढ़ियों पर चढ़ने वाला दरवाजा भी अच्छी तरह बन्द करके अपने कमरे में चली आई।

लौंडी को कमरे का फर्श साफ करने की आज्ञा देकर नागर ऊपर छत पर चढ़ गई जहाँ एक बँगला था और इस समय उसके बाहर ताला लगा हुआ था। जमीन पर साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था, एक तरफ सुन्दर मसहरी थी तथा छोटे-बड़े कई तकिए फर्श पर पड़े हुए थे। मगर यह कमरा खाली न था, इसमें इस समय मनोरमा बैठी हुई थी और जमानिया राजधानी का बेईमान दारोगा (बाबाजी) भी उसके साथ था। नागर भी उन दोनों के पास जाकर बैठ गई।

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