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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान

दिन तीन पहर से ज्यादे चढ़ चुका है, इस समय हम भूतनाथ को एक घने जंगल में अपने तीन साथियों के साथ पेड़ के नीचे बैठे हुए देखते हैं। यह जंगल उस घाटी से बहुत दूर था जिसमें भूतनाथ रहता था और जिसका रास्ता बिमला ने बन्द कर दिया था।

भूत० :(अपने साथियों से) मुझे इस बात का बड़ा ही दुख है कि मेरे साथी लोग इस घाटी में कैदियों की तरह बन्द होकर दुःख भोग रहे हैं। यद्यपि वहाँ पानी की कमी नहीं है और खाने के लिए भी इतना सामान है कि वे लोग महीनों तक निर्वाह कर सकें, मगर फिर कब तक! आखिर जब यह सामान चुक जायगा तो फिर वे लोग क्या करेंगे?

एक : ठीक है मगर साथ ही इसके यह खयाल भी तो होता है कि शायद हमारे दोस्तों को भी तकलीफ दी गई हो!

भूत० : हो सकता है लेकिन इस विचार पर मैं विशेष भरोसा नहीं करता क्योंकि दरवाजा बन्द कर देना सिर्फ एक जानकार आदमी का काम है मगर हमारे साथियों से लड़ कर बीस या पचीस आदमी पार नहीं पा सकते।

दूसरा : है तो ऐसी ही बात, इसीसे आशा होती है कि अभी तक वे सब जीते होंगे, अस्तु जिस तरह हो सके उन्हें बचाना चाहिए।

भूत० : मैं इसी फिक्र में पड़ा हूँ और सोच रहा हूँ कि उनको बचाने के लिए क्या इन्तजाम किया जाय।

एक : पहिले तो उसका पता लगाना चाहिये जिसने दरवाजा बन्द कर दिया है।

भूत० : हाँ और इस विषय में मुझे उन्हीं औरतों पर शक होता है, जो इस पड़ोस वाली घाटी में रहती हैं, जहाँ मैं कैद होकर गया था। और जहाँ सुनने में आया कि जमना और सरस्वती अभी तक जीती-जागती हैं और मुझसे दयाराम का बदला लेने के लिए उद्योग कर रही हैं। वास्तव में यह घाटी भी बड़ी विचित्र है। निःसन्देह वह तिलिस्म है और अगर मेरा खयाल ठीक है तो वहाँ की रहने वालियाँ आस-पड़ोस की घाटियों का हाल जानती होंगी, बल्कि मेरी इस घाटी से भी सम्बन्ध रखती हों तो ताज्जुब नहीं!

तीसरा : आपका विचार बहुत ठीक है, अगर वास्तव में जमना और सरस्वती जीती हैं और उसी घाटी में रहती हैं तो निःसन्देह यह काम उन्हीं का है और उन्हीं लोगों में से किसी को गिरफ्तार करने से हमारा काम निकल सकता है।

भूत : बेशक, और मैं उन लोगों में से किसी को जरूर गिरफ्तार करूँगा।

एक : आप जब गिरफ्तार होकर वहाँ गए तो वहाँ की अवस्था देखकर और उन लोगों की बातें सुनकर जमना व सरस्वती के विषय में आपने क्या विश्वास किया?

भूत० : मुझे विश्वास होता है कि जरूर वे दोनों जीती हैं।

दूसरा : तो यह घाटी उन लोगों को किसने रहने के लिये दी और इन लोगों का मददगार कौन है?

भूत० : यही तो एक विचार करने की बात है। मेरे खयाल से अगर इन्द्रदेव दोनों के पक्षपाती बने हों तो कोई ताज्जुब नहीं क्योंकि दयारामजी मेरे हाथ से मारे गये इस बात को दुनिया में मेरे सिवाय सिर्फ दो ही आदमी और जानते हैं, एक तो दलीपशाह दूसरा शम्भू। शम्भू तो इन्द्रदेव का शागिर्द ही ठहरा और दलीपशाह इन्द्रदेव का दिली दोस्त! यद्यपि दलीपशाह मेरा नातेदार है और उसने इस बात को छिपा रखने के लिए मुझसे कसम भी खाई है, मगर यह मालूम होता कि उसने अपनी कसम तोड़ दी और इस भेद को खोल दिया।

इस बात का सबसे बड़ा सबूत एक यह है कि जब मैं कैद होकर उस घाटी में गया था तो एक औरत ने जोर देकर मुझसे बयान किया था कि तुमने दयाराम को मारा है अस्तु मेरा यह विचार पक्का है कि निःसन्देह शम्भू और दलीपशाह ने भेद खोल दिया और सबसे पहिले उन्होंने जरूर अपने दोस्त इन्द्रदेव से वह हाल बयान किया होगा। ऐसी अवस्था में ताज्जुब नहीं कि इन्द्रदेव ही इन दोनों के पक्षपाती बने हो।

एक : तो इन्द्रदेव को क्या आपसे कुछ दुश्मनी है?

भूत० : नहीं इस बात का तो मुझे गुमान भी नहीं होता।

एक : और यदि इन्द्रदेव चाहें तो क्या आपको कुछ सता नहीं सकते? या आपको गिरफ्तार करके सजा नहीं दे सकते?

भूत० : बेशक इन्द्रदेव जो कुछ चाहें कर सकते हैं, उनकी ताकत का कोई अन्दाजा नहीं कर सकता, वे एक बहुत बड़े तिस्लिम के राजा समझे जाते हैं, मुझसे वे बहुत ज्यादे जबर्दस्त है और ऐयारी में भी मैं उन्हें अपने से बढ़कर मानता हूँ।

यद्यपि एक विषय में अपने को उनका कसूरवार मानता हूँ मगर फिर भी कह सकता हूँ कि वे मेरे दोस्त हैं।

दूसरा : तो आप ऐसे दोस्त पर इस तरह का शक क्यों करते हैं?

भूत० : दिल ही तो है, खयाल ही तो है! जब आदमी किसी मुसीबत में गिरफ्तार होता है तो उसके सोच-विचार और शक का कोई हिसाब नहीं रहता। मैं इस समय मुसीबत की जिन्दगी बिता रहा हूँ। मुझसे दो-तीन काम बहुत बुरे हो गये हैं जिनमें एक दयारामवाली वारदात है। इसमें मुझे बहुत ही बड़ा धोखा हुआ। मैंने कुछ जान-बूझकर अपने दोस्त को नहीं मारा, मगर खैर वह जो कुछ होना था हो गया, अब क्या मैं अपने को दुश्मन के हाथ सहज ही में सौंप दूँगा!

यद्यपि इन्द्रदेव को मैं अद्भुत व्यक्ति मानता हूँ। मगर मैं अपने को भी कुछ समझता हूँ, मुझे अपनी ऐयारी पर भी घमण्ड है, इसलिए मैं इन्द्रदेव से नहीं डरता और तुम लोगों से कहे देता हूँ कि दलीपशाह इन्द्रदेव का दोस्त है तो क्या हुआ मगर मैं उसे मारे बिना कभी न छोड़ूँगा, उस कम्बख्त से अपना बदला जरूर लूँगा।

केवल उसी को नहीं मारूँगा बल्कि उसके खानदान में किसी को जीता न रहने दूँगा। मैं इस बात को जरा भी न सोचूँगा कि वह मेरा नातेदार है। क्योंकि खुद उसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और मेरी बर्बादी के पीछे लग गया। मुझे यह खबर लगी है कि दलीपशाह ने जमानिया के दारोगा से भी दोस्ती पैदा कर ली है और उसकी तरफ से भी मुझे सताने के लिए तैयार है।

एक : ऐसी अवस्था में जरूर दलीपशाह का नाम-निशान मिटा देना चाहिए क्योंकि जब तक वह जीता रहेगा आप बेफिक्र नहीं हो सकते, साथ ही इसके शम्भू को भी मार डालना चाहिए। उन दोनों के मारे जाने पर आप इन्द्रदेव को अच्छी तरह समझा लेंगे और विश्वास दिला देंगे कि आपके हाथों से दयाराम नहीं मारे गये और अगर दलीपशाह और शम्भू ने उनसे ऐसा कहा है तो वह बात बिल्कुल ही झूठ है।

भूतनाथ : ठीक है, मैं जरूर ऐसा ही करूँगा, लेकिन इतने पर भी काम न चलेगा और यह बात मशहूर ही होती दिखाई देगी तो लाचार होकर मुझे और भी अनर्थ करना पड़ेगा, नाता और रिश्ता भूल जाना पड़ेगा, दोस्ती और मुरौवत को तिलांजली दे देनी पड़ेगी, और जिन-जिन को यह बात मालूम हो गई है, उन सभी को इस दुनिया से उठा देना पड़ेगा।

एक : जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकरसिंह को भी?

भूत० : बेशक, बल्कि गुलाबसिंह को भी।

दूसरा : यह बड़े कड़े कलेजे का काम होगा!

भूत० : मुझसे बढ़कर कठिन और बड़ा कलेजा किसका होगा जिसने लड़के-लड़की और स्त्री को भी त्याग दिया है? मगर अफसोस, इस समय मैं पाप पर पाप करने के लिए मजबूर हो रहा हूँ!

एक : खैर यह बताइए कि सबसे पहले कौन काम किया जायगा और इस समय आप हम लोगों को क्या हुक्म देते हैं?

भूत० : सबसे पहले मैं अपने दोस्तों को छुड़ाऊँगा और इसके लिए उस पड़ोस की घाटी में रहने वाली औरतों में से किसी को गिरफ्तार करना चाहिए।

खैर अब बताता हूँ कि तुम लोगों को क्या करना चाहिए। (चौंककर) देखो तो वह साधु कौन है! ऐसा गुमान होता है कि इसे मैंने कभी देखा है, यह तो हमारे उसी खोह की तरफ जा रहा है। पहिले इसी की सुध लेनी चाहिए फिर बताएँगे कि तुम लोगों को क्या करना चाहिए।

यह साधु जिस पर भूतनाथ की निगाह पड़ी बहुत ही बुड्ढा और तपस्वी जान पड़ता था इसके सर और दाढ़ी के बाल बहुत ही धने और लंबे थे। लंबा कंद, वृद्ध होने पर भी गठीला बदन और चेहरा रोआबदार मालूम होता था। कमर में क्या पहिरे हुए था इसका पता नहीं लगता था क्योंकि इसके बदन में बहुत लंबा गेरूए रंग का ढीला कुरता था जो घुटने से एक बित्ता नीचे तक पहुँच रहा था, मगर साथ ही इसके यह जान पड़ता था कि उसने अपने तमाम बदन में हलकी विभूति लगाई हुई है, इसके अतिरिक्त उसके पास और किसी तरह का सामान दिखाई न देता था अर्थात कोई माला या सुमिरनी तक इसके पास न थी।

भूतनाथ अपने साथियों को इसी जगह रहने का हुक्म देकर धीरे-धीरे उस साधु के पीछे रवाना हुआ मगर इस लापरवाह साधु को इस बात का कुछ भी खयाल न था कि उसके पीछे कोई आ रहा हैं।

थोड़ी ही देर में वह साधु उस खोह के मुहाने पर जा पहुँचा जिसमें भूतनाथ रहता था। जब खोह के अन्दर घुसने लगा तब भूतनाथ भी लपककर उसके पास पहुँचा।

साधु : (भूतनाथ को देखकर) तुम कौन हो?

भूत० : जी मेरा नाम गदाधरसिंह ऐयार है।

साधु : ठीक है, मैं तुम्हारा नाम सुन चुका हूँ, बहुत अच्छा हुआ कि तुमसे मुलाकात हो गई, मालूम होता है कि तुम्हीं ने इस घाटी में दखल जमा रखा है और जो लोग इसके अन्दर हैं वे सब तुम्हारे ही संगी-साथी हैं?

भूत० : जी हां, बात ऐसी ही है।

साधु : मैं इसी फिक्र में पड़ा हुआ था और सोच रहा था कि इस घाटी में किसने अपना दखल जमा लिया है। शायद तुम्हें यह बात मालूम नहीं हैं खैर अब समझ लो कि मैं इस घाटी में पचास वर्ष से रहता हूँ और यहाँ का हाल जितना मैं जानता हूँ किसी दूसरे को मालूम नहीं है, इधर कई वर्ष हुए हैं कि मैं इस घाटी को छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए चला गया था, मेरा विचार था कि फिर लौट कर यहाँ न आऊँ और इसीलिए इसका दरवाजा खुला छोड़ गया था, पर ईश्वर की प्रेरणा से मैं घूमता-फिरता फिर यहाँ चला आया और जब इस घाटी के अन्दर गया तो देखा कि इसमें किसी दूसरे की अमलदारी हो रही है।

अस्तु मैं इसका दरवाजा बन्द करता हुआ बाहर निकल आया और फिक्र में पड़ा कि इसके मालिक का पता लगाना चाहिए, क्योंकि इसके अन्दर जितने आदमी दिखाई पड़े उनमें से कोई भी ऐसा नजर न आया जिसे मैं यहाँ का मालिक समझूँ। इसीलिये मैं इसके अन्दर किसी से मिला नहीं और न किसी ने मुझे देखा। खैर यह जान कर मुझे प्रसन्नता होगी कि तुम यहाँ रहते हो, मैं बहुत ही प्रसन्न होता यदि तुम्हारी गृहस्थी या तुम्हारे बाल-बच्चे भी यहाँ दिखाई देते। मगर खैर जो कुछ है वही गनीमत है। मैं तुम्हें मुहब्बत की निगाह से देखता हूँ क्योंकि तुमसे मुझे एक गहरा सम्बन्ध है।

भूत० : (आश्चर्य से) वह कौन-सा सम्बन्ध है?

साधु : सो कहने की बात आवश्यकता नहीं क्योंकि भूलता हूँ जो तुमसे सम्बन्ध रखने की बात कहता हूँ। जो साधु है और जिसने दुनिया से सम्बन्ध छोड़ दिया उसे फिर किसी से सम्बन्ध रखने की जरूरत ही क्या है, मगर खैर फिर कभी जब तुमसे मिलूँगा तब बताऊँगा कि मैं कौन हूँ, उस समय तुम मुझे मुहब्बत की निगाह से देखोगे और समझ जाओगे कि मैं तुम पर क्यों कृपा करता हूँ अस्तु जाने दो अच्छा तुम खुशी से इस घाटी में रहो, मैं इसका दरवाजा खोल देता हूँ बल्कि यह भी बताये देता हूँ कि किस तरह यह दरवाजा खुलता और बन्द होता है,

भूत० : (प्रसन्नता से) ईश्वर ही ने मुझे आपसे मिलाया! मैं बड़े ही तरद्दुद मंा पड़ा हुआ था। अपने दोस्तों की तरफ से मुझे बड़ी फिक्र थी जो इस घाटी के अन्दर इस समय कैद हो रहे हैं।

मैं समझ रहा था कि मेरा कोई दुश्मन यहाँ आ पहुँचा जो इस घाटी का हाल अच्छी तरह जानता है और उसी ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव किया है। मगर अब मेरा तरद्दुद जाता रहा और यह जान कर प्रसन्नता हुई कि इसके मालिक आप हैं, मगर आप मुझे बेतरह खुटके में डाल रहे हैं जो अपना पूरा परिचय नहीं देते। मैं क्योंकर समझूँ कि आप मेरे बड़े और सरपरस्त हैं?

साधु : (मुस्करा कर) खैर तुम मुझे अपना सरपरस्त या मददगार न भी समझोगे तो इसमें मेरी या तुम्हारी किसी की भी हानि नहीं हैं परन्तु फिर भी मैं वादा करता हूँ कि बहुत जल्द एक दफे पुनः तुमसे मिलूँगा और तब अपना ठीक–ठीक परिचय तुमको दूँगा, इस समय तुम मेरी फिक्र न करो और अपने दुश्मनों से बेफिक्र होकर इस घाटी में रहो। यहाँ थोड़ी-सी दौलत भी है जिसका पता तुम्हें मालूम न होगा, चलो वह भी मैं तुम्हें दे देता हूँ, जो कि तुम्हारे काम आवेगी, अब क्योंकि मुझे दौलत की कुछ जरूरत नहीं रही और आवश्यकता पड़े भी तो मुझे किसी तरह की कमी नहीं है।

भूत० : (प्रसन्न होकर) केवल धन्यवाद देकर मैं आपसे उऋण नहीं हो सकता आप मुझ पर बड़ी ही कृपा कर रहें हैं।

साधु : इसे कृपा नहीं कहते, यह केवल प्रेम के कारण है, अस्तु अब तुम विलम्ब न करो और शीघ्रता से चलो, जो कुछ मुझे करना है उसे जल्द निपटा करके बद्रिकाश्रम की यात्रा करूँगा।

भूतनाथ के दिल में इस समय तरह-तरह के विचार उठ रहे थे। वह न मालूम किन-किन बातों को सोच रहा था मगर प्रकट में यही जान पड़ता था कि वह बड़ी होशियारी से साथ सचेत बना हुआ खुशी-खुशी साधु के साथ सुरंग के अन्दर जा रहा है जब उस चौमुहानी पर पहुँचा जिसका जिक्र कई दफे हो चुका है तो भूतनाथ ने साधु से पूछा-

भूत० : ये बाकी के दोनों रास्ते किधर को गये हैं और उधर क्या है?

साधु : इस घाटी के साथ ही और भी दो घाटियाँ है और उन्ही में जाने के लिये ये दोनो रास्ते हैं मगर उन्हें मैंने बहुत ही अच्छी तरह से बन्द कर दिया है क्योंकि उन घाटियों में रहने वालों के आने-जाने के लिए और भी कई रास्ते मौजूद हैं अब इन रास्तों से कोई आ-जा नहीं सकता तुम हम इस तरफ से बिलकुल बेफिक्र रहो मगर इस तरफ से उस तरफ जाने का उद्योग कभी न करना।

भूत० : जी नहीं, मैं तो उस तरफ जाने का खयाल कभी करता ही नहीं परन्तु आज उस तरफ वाली घाटी में बहुत-से आदमी आकर बस गये हैं और वे सब मेरे साथ दुश्मनी करते हैं बस इसीलिए जरा खयाल होता हैं.

साधु : (लापरवाही के साथ) खैर अगर उस घाटी में कोई रहता भी होगा तो यहाँ अर्थात इस घाटी में आकर तुम्हारे साथ कोई बुरा बर्ताव नहीं कर सकता यों तो दुनिया में सभी जगह दोस्त और दुश्मन रहा करते हैं, उसका बन्दोबस्त दूसरे ढंग पर कर सकते हो.

भूत० : जैसी मर्जी आपकी.

साधु : हाँ बेहतर यही है कि तुम बेफिक्री से साथ यहाँ रह कर अपने दुश्मनों का प्रबन्ध करो और मेरा इन्तजार करो, मैं बहुत जल्द इसी घाटी में आकर तुमसे मिलूँगा उसी समय मैं तुमको कुछ और भी लाभदायक वस्तुएँ दूँगा और कुछ उपदेश भी करूँगा.

इतना कह कर साधु आगे की तरफ बढ़े और बहुत जल्द उस दरवाजे के पास जा पहुँचे जिसे बिमला ने बन्द कर दिया था. जिस तरह से बिमला ने उसे दरवाजे को बन्द किया था उसी तरह साधु ने उसे खोला और खोलने तथा बन्द करने का ढंग भी भूतनाथ को बता दिया.

अब भूतनाथ सहज ही में साधु के साथ घाटी के अन्दर जा पहुँचा और अपने साथियों से मिल कर बहुत प्रसन्न हुआ बातचीत करने पर मालूम हुआ कि उसके साथी लोगों ने कई दफे इस घाटी के बाहर निकलने का उद्योग किया था मगर रास्ता बन्द होने के कारण बाहर न जा सके और इस वजह से वे लोग बहुत घबड़ा रहे थे,

भूतनाथ ने अपने सब साथियों से बाबाजी की मेहरबानी का हाल बयान किया और उन सभों को महात्मा के पैरों पर गिराया.

भूतनाथ यद्यपि जानता था कि साधु महाशय मुझ पर बड़ी कृपा कर रहे हैं और उन्हें मुझसे किसी तरह का फायदा भी नजर नहीं आता, तथापि वह अभी तक उन पर अच्छी तरह भरोसा करने का साहस नहीं रखता था, यह बात चाहे ऐयार नियम के अनुसार कहिये चाहे भूतनाथ की प्रकृति के कारण समझिये, हाँ, इतना जरूर था कि बाबाजी की मेहरबानियों से भूतनाथ दबा जाता था और सोचता था कि यदि इन्होंने कोई खजाना मुझे दे दिया जैसाकि कह चुके हैं। तो मुझे मजबूर होकर इन पर भरोसा करना पड़ेगा और समझना पड़ेगा कि ये वास्तव में मुझसे स्नेह रखते हैं और मेरे कोई अपने ही हैं।

साधु महाशय की आज्ञानुसार भूतनाथ ने उन्हें वे सब गुफाएँ दिखाईं जिनमें वह अपने साथियों के साथ रहता था और बताया कि इस ढंग पर इस स्थान को हम लोग बरतते हैं, इसके बाद साधु महाशय उसे अपने साथ लिये पूरब तरफ की चट्टान पर चले गये जिधर छोटी-बड़ी कई गुफाएँ थीं।

साधु : देखो भूतनाथ, मैं जब यहाँ रहता था तो इसी तरफ की गुफाओं में गुजारा करता था और इस पड़ोसवाली घाटी में जिसे तुम अपने दुश्मनों का स्थान बता रहे हो, इन्द्रदेव रहता था जिसे तुम पहिचानते होगे।

भूत० : जी हाँ, मैं खूब जानता हूँ।

साधु : उन दिनों इन्द्रदेव का दिमाग बहुत ही बढ़ा-चढ़ा था और वह मुझसे दुश्मनी रखता था, क्योंकि जिस तरह वह एक तिलिस्म का दारोगा है उसी तरह मैं भी एक तिलिस्म का दारोगा हूँ, अस्तु वह चाहता था कि मेरे कब्जे में जो तिलिस्म है उसका भेद जान ले और उस पर कब्जा करले, मगर वह कुछ भी न कर सका और कई साल तक यहाँ रहने पर भी वह यह न जान सका कि फलाना ब्रह्मचारी इस पड़ोसवाली घाटी में रहता है।

इस समय मैं तुमसे ज्यादे न कहूँगा और न ज्यादे देर तक रहने की मुझे फुरसत ही है, तुम्हें बड़ा ताज्जुब होगा जब मैं अपना परिचय तुम्हें दूँगा और उस समय तुम भी मुझसे उतनी ही मुहब्बत करोगे जितना इस समय मैं तुमसे करता हूँ।

भूत० :ठीक है, मैं परिचय देने के लिये इस समय जिद्द भी नहीं कर सकता क्योंकि आप बड़े हैं, आपकी आज्ञानुसार मुझे चलना ही चाहिये, अच्छा यह तो बताएँ कि वह तिलिस्म जिसके आप दारोगा हैं अभी तक आपके कब्जे में है या नहीं?

साधु : हाँ अभी तक वह तिलिस्म मेरे ही कब्जे में है।

भूत० : वह किस स्थान में है?

साधु : इसी घाटी में वह तिलिस्म है, मैं अगली दफे जब यहाँ आकर तुमसे मिलूँगा तो उसका कुछ हाल कहूँगा और अगर तुम इस घाटी में अपना कब्जा बनाये रहोगे और तुम्हारा चालचलन अच्छा देखूँगा तो एक दिन तुमको उस तिलिस्म के नियमानुसार अपने बाद के लिये दारोगा बना दूँगा।

साधु महाशय की इस आखिरी बात को सुनकर भूतनाथ बहुत ही प्रसन्न हुआ वह जानता था कि तिलिस्म का दारोगा बनना कोई मामूली बात नहीं है, उसके कब्जे में बेअन्दाज दौलत रहती है और उसकी ताकत तिलिस्मी सामान की बदौलत मनुष्य की ताकत से कहीं बढ़-चढ़कर रहती है, उसी समय भूतनाथ का खयाल एक दफे इन्द्रदेव की तरफ गया और उसने मन में कहा कि देखो तिलिस्मी दारोगा होने के कारण ही इन्द्रदेव कैसे चैन और आराम के साथ रहता है, दुश्मनों का उसे जरा भी डर नहीं हैं और वास्तव में उसके दुश्मन उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। मगर अफसोस!

भूतनाथ ने इस बात पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया कि इन्द्रदेव कैसा नेक, ईमानदार और साधु आदमी है तथा उसमें सहनशीलता और क्षमा-शक्ति कितनी भरी हुई है, तिस पर भी वह दुश्मनों के हाथ कैसा सताया गया।

भूत० : (बहुत नरमी के साथ) तो आप पुनः कब तक लौटकर यहाँ आवेंगे?

साधु : इस विषय में जो कुछ मेरे विचार हैं उसे प्रकट करना अभी मैं उचित नहीं समझता।

भूत० : जैसी मर्जी आपकी। आजकल मेरी आर्थिक दशा बहुत ही खराब हो रही है, रुपये-पैसे की तरफ से मैं बहुत ही तंग हो रहा हूँ।

साधु : तो इस समय जो खजाना मैं तुम्हें दे रहा हूँ वह तुम्हारे लिये कम नहीं है, यदि तुम उसे उचित ढंग पर खर्च करोगे तो वर्षों तक अमीर बने रहोगे और राज्य-सुख भोगोगे, आओ मेरे पीछे-पीछे चले आओ।

इतना कह कर साधु एक गुफा की तरफ बढ़ा और भूतनाथ खुशी-खुशी उसके पीछे रवाना हुआ।

खोह के अन्दर बहुत अँधकार था मगर भूतनाथ बेधड़क साधु के पीछे-पीछे दूर तक चला गया। जब लगभग दो–तीन सौ कदम चला गया तो साधु ने कहा, ‘‘लड़के देख, मैं इस खोह के अन्दर अन्दाज से चला आकर सब काम कर सकता हूँ मगर तुझे इस काम में तकलीफ होगी क्योंकि तेरे लिये यह पहिला मौका है, इसलिये मैं उचित समझता हूँ, कि तू अपने ऐयारी के बटुए में से सामान निकाल कर रोशनी कर ले और अच्छी तरह से सब कुछ देख ले, फिर दूसरी दफे तेरे ऐसे होशियार आदमी को रोशनी की जरूरत न पड़ेगी।’’

भूतनाथ ने ऐसा ही किया, अर्थात् रोशनी करके अच्छी तरह से देखता हुआ साधु की पीछे-पीछे जाने लगा और ऐसा कहने और करने से साधु पर उसका विश्वास भी ज्यादे हो गया।

करीब-करीब पाँच सौ कदम चले जाने के बाद रास्ता बन्द हो गया और साधु महाशय ने खड़े होकर भूतनाथ से कहा, ‘‘बस आगे जाने के लिए रास्ता नहीं, देख वह बगल वाले आले में कैसा अच्छा नाग बना हुआ है जिसे देखकर डर मालूम होता है! यह वास्तव में लोहे का है। इसको पकड़ कर जब तू अपनी तरफ खैंचेगा तो यहाँ का दरवाजा खुल जायेगा, मगर इस बात से होशियार रहियो कि इसके सिर अथवा फन के ऊपर कभी हाथ न लगने पावे नहीं तो धोखा खायेगा।’’

भूत० : जो आज्ञा। पहिले आप ही इसे खैंचें जिससे मैं अच्छी तरह समझ लूँ।

साधु : (जोर से हँस कर) अभी तक तुझको मुझ पर भरोसा नहीं होता!

मगर खैर कोई चिन्ता नहीं, ऐयारों के लिये यह ऐसा अनुचित नहीं है।

इतना कहकर साधु ने साँप की दुम पकड़ ली और अपनी पूरी ताकत के साथ खैंचा। दो हाथ के लगभग वह दुम खिंचकर आले के बाहर निकल आई, इसके साथ ही बगल में एक छोटा-सा दरवाजा खुला हुआ दिखाई दिया।

भूतनाथ को लिये हुए वह साधु उसके अन्दर घुस गया और उसी समय वह दरवाजा आप-से-आप बन्द हो गया। उस समय साधु ने भूतनाथ से कहा, ‘‘देख गदाधरसिंह, इधर भी उसी तरह का नाग बना हुआ है, बाहर निकलते समय इधर से भी उसी तरह दरवाजा खोलना पड़ेगा।’’

भूतनाथ ने उसे अच्छी तरह देखा और फिर उस कोठरी की तरफ निगाह दौड़ाई जिसमें इस समय वह मौजूद था। उसने देखा कि वहाँ चाँदी के कितने ही बड़े-बड़े देग या हण्डे रखे हुए हैं जिनके मुँह सोने के ढक्कनों से ढके हुए हैं। भूतनाथ ने साधु की आज्ञा पाकर उन हण्डों का मुँह खोला और देखा कि उनमें आशर्फियाँ भरी हुई हैं।

इस समय भूतनाथ की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था और उसने सोचा कि निःसन्देह ऐसे कई खजाने इस घाटी में होंगे मगर उनका पता जानने के लिये साधु से इस समय जिद करना ठीक न होगा, अवश्य यह पुनः यहाँ आवेंगे और मुझ पर कृपा करेंगे।

लौटते समय आज्ञा पाकर भूतनाथ ने अपने हाथ से वह दरवाजा बन्द किया और साधु के पीछे-पीछे चल कर खोह के बाहर निकल आया।

उस समय साधु ने कहा, ‘‘गदाधरसिंह, अब मैं जाता हूँ, जब लौट कर पुनः यहाँ आऊँगा तो ऐसे-ऐसे कई खजाने तुझे दूँगा और तिलिस्म का दारोगा भी बनाऊँगा मगर मैं तुझे समझाये जाता हूँ कि इन्द्रदेव के साथ दुश्मनी का ध्यान भी कभी अपने दिल में न लाइयो नहीं तो बर्बाद हो जायेगा, और दुःख भोगेगा।

वह तुझसे बहुत जबर्दस्त है। अच्छा अब मैं जाता हूँ, मेरे साथ आने की कोई जरूरत नहीं है।’’

इतना कहकर साधु महाशय रवाना हो गए और आश्चर्य में भरे हुए भूतनाथ को उसी जगह छोड़ गये।

भूतनाथ बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा इस बात को सोचता रहा कि यह साधु महाशय कौन हैं और मुझ पर इतनी कृपा करने का सबब क्या है? सोचते-सोचते उसका खयाल देवदत्त ब्रह्मचारी की तरफ चला गया जिन्होंने उसे पाला था और ऐयारी सिखा कर इस लायक बना दिया था कि किसी राजा या रईस के यहाँ रह कर इज्जत और हुर्मत पैदा करे।१ (१. देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति बाईसवां भाग, भूतनाथ की जीवनी।)

भूतनाथ सोचने लगा कि ताज्जुब नहीं यदि यह मेरे गुरु महाराज देवदत्त ब्रह्मचारी हों जो बहुत दिनों से लापता हो रहे हैं।

मुझे रणधीरसिंहजी के यहाँ नौकर रखा देने के बाद यह कह कर चले गये थे कि ‘‘अब मैं योगाभ्यास करने के लिए उत्तराखंड चला जाऊंगा, तुम मुझसे मिलने के लिए उद्योग मत करना’’। या संभव है कि उनके भाई ज्ञानदत्त ब्रह्मचारी हों जिनकी प्रायः गुरुजी तारीफ किया करते थे और कहते थे कि वे अद्भुत तिलिस्म के दारोगा भी हैं। जहाँ तक मेरा खयाल है उन्हीं दोनों में से कोई न कोई जरूर हैं।

ताज्जुब नहीं कि मैं कुछ दिनों में तिलिस्म का दारोगा बन जाऊँ। अब मैं इस घाटी को कदापि न छोड़ूँगा और देखूँगा कि किस्मत क्या दिखाती है। अब प्रभाकसिंह को भी लाकर इसी घाटी में रखना चाहिये। वास्तव में आजकल मैं बड़े संकट में पड़ गया हूँ।

मैं अपने मित्र इन्द्रदेव पर किस तरह अविश्वास करूँ और किस तरह भरोसा ही करूँ, किस तरह समझूँगा कि जमना और सरस्वती बिना किसी की मदद से दुश्मनी करने के लिये तैयार हो रही हैं। खैर जो कुछ होगा देखा जायेगा अब प्रभाकरसिंह को शीघ्र इस घाटी में ले आना चाहिए और उसके बाद इन्द्रदेव से मिलना चाहिये। उनसे मुलाकात होने पर बहुत-सी बातों का पता लग जायेगा, मैं इन्द्रदेव के सिवाय और किसी से डरने वाला भी नहीं हूँ, इत्यादि तरह-तरह की बातें सोचता हुआ भूतनाथ अपने दोस्तों और साथियों के पास चला गया और उनसे अपने कर्त्तव्य के विषय में बातचीत करने लगा, मगर साधु महाशय की कृपा से खजाना मिलने का हाल उसने उन लोगों से नहीं कहा।

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