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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान

ऊपर लिखी वारदात के तीसरे दिन उसी अगस्ताश्रम के पास आधी रात के समय हम एक आदमी को टहलते हुए देखते हैं, हम नहीं कह सकते कि यह कौन तथा किस रंग-ढंग का आदमी है, हाँ, इसके कद की ऊँचाई से साफ मालूम होता है कि यह औरत नहीं है बल्कि मर्द है मगर यह नहीं मालूम पड़ता कि अपनी पोशाक के अन्दर यह किस ठाठ से है अर्थात् यह आदमी जिसने स्याह लबादे से अपने को अच्छी तरह छिपा रखा है सिपाहियों और बहादुरों की तरह के हर्बे-हथियारों से सजा हुआ है या चोरों की तरह सन्धियों और हत्थियों वगैरह से जो हो, हमें इसके ब्योरे से इस समय कोई मतलब नहीं, हमें सिर्फ इतना कहना है कि यह यद्यपि टहल कर अपना समय बिता रहा है मगर इसमें कोई शक नहीं कि अपने को हर तरह से छिपाये रखने की भी कोशिश कर रहा है।

दिन का मुकाबला करने वाली चाँदनी यद्यपि अच्छी तरह छिटकी हुई है मगर उस अन्धकार को दूर करने की शक्ति उसमें नहीं जो इस समय पेड़ों के झुरमुट के अन्दर पैदा हो रहा है और जिससे उस टहलने वाले व्यक्ति को अच्छी सहयता मिल रही है। अगस्ताश्रम की तरफ घड़ी-घड़ी अटक कर देखने और आहट लेने से यह भी मालूम होता है कि वह किसी आने वाले की राह देख रहा है।

इसे टहलते हुए घंटा भर से ज्यादे हो गया और तब इसने दो आदमियों को आते और अगस्ताश्रम की तरफ जाते देखा ये दोनों कद के छोटे तथा ढाल-तलवार तथा तीर-कमान से सुसज्जित थे मगर इनकी पोशाक के बारे में हम इस समय किसी तरह की निन्दा या प्रशंसा नहीं कर सकते।

मालूम होता है कि वह टहलने वाला स्याहपोश इन्हीं दोनों आदमियों का इन्तजार कर रहा था क्योंकि जैसे ही वे दोनों अगस्ताश्रम की चारदीवारी के अन्दर घुसे वैसे ही इसने उनका पीछा किया।

उनके कुछ ही देर बाद यह स्याहपोश भी चारदीवारी के अन्दर जा पहुँचा मगर वहाँ उन दोनों पर निगाह न पड़ी। पहिले इसने मन्दिर के चारों तरफ की परिक्रमा की और उन दोनों को ढूँढ़ा, और जब पता न लगा तब मन्दिर के अन्दर पैर रखा मगर वहाँ भी कोई न था।

हम पहिले कह आए हैं कि यह मन्दिर बहुत छोटा और साधारण था अतएव इसके अन्दर किसी को खोजने में विलम्ब करना बेशक पागलपन समझा जा सकता है मगर उस स्याहपोश ने इसका कुछ भी विचार न किया और खूब अच्छी तरह खोज डाला यहाँ तक कि उस छोटे-से कुंड में भी तलवार डाल कर जाँच लिया जिसमें हरदम पानी भरा रहता था।

उस स्याहपोश को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह आश्चर्य के साथ सोचने लगा—‘‘वे दोनों आदमी कहाँ गायब हो गए! इस छोटे-से मन्दिर में किसी तरह छिप नहीं सकते, इसके अतिरिक्त वहां विशेष अंधकार भी नहीं है क्योंकि सभामण्डप में चन्द्रमा की चाँदनी जो आड़ी होकर पहुँच रही है उसकी चमक से मंदिर के अंदर का अंधकार भी इस योग्य नहीं रह गया है कि अपनी स्याह चादर के अन्दर भी किसी को छिपा सके, अस्तु यही कहना पड़ता है कि यहाँ की जमीन उन दोनों को खा गई। जो हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह मन्दिर मेरे दुश्मन का मुँह है, खैर कोई चिन्ता नहीं, अब मैं बाहर चलता हूँ क्योंकि गरमी से जी व्याकुल हो रहा है तिस पर इस भारी पोशाक ने और भी तंग कर रखा है,’’

इस तरह की बातें सोचता और कुछ बुदबुदाता हुआ वह आदमी मन्दिर के बाहर निकला और फिर उसी जगह पेड़ों की झुरमुट और आड़ में जा पहुँचा जहाँ हम इसे पहले टहलते हुए देख चुके हैं। इस समय यहाँ एक आदमी और खड़ा है जिसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी और जिसे देखते ही उस स्याहपोश ने पूछा, ‘‘केम?’’ इसके जवाब में उसने कहा, ‘‘चहा।’’

जवाब सुनते ही स्याहपोश ने अपने ऊपर से स्याह लबादा उतार कर उसके हवाले किया और कहा, ‘‘अब मैं इसे नहीं ओढ़ सकता क्योंकि इससे गरमी में तकलीफ होने के सिवाय अब इसकी जरूरत भी न रही, मैं भूतनाथ की सूरत में अच्छा हूँ मुझे कोई पहिचानने वाला नहीं केवल गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह के खयाल से ओढ़ लिया था सो उनके मिलने की अब कोई उम्मीद नहीं रही!’’

दूसरे नकाबपोश ने वह लबादा ले लिया और जवाब में कहा, ‘‘मेरे लिए अब क्या आज्ञा होती है?’’

पाठक अब समझ गए होंगे कि यह स्याहपोश वास्तव में भूतनाथ है अस्तु उसने अपने साथी नकाबपोश से कहा, ‘‘तुम्हारी यहाँ कोई जरूरत नहीं रही, तुम जाओ जो कुछ पहिले हुक्म दे चुका हूँ उसी के अनुसार काम करो, मैं अब यहाँ से जल्दी नहीं टल सकता क्योंकि इस मन्दिर ने मुझे अपने जाल में फँसा लिया है।

नकाबपोश चला गया और भूतनाथ फिर उसी अँधकार में टहलने लगा। कुछ देर बाद उस मन्दिर के अन्दर से दो आदमी बाहर निकले और दक्खिन की तरफ चल पड़े। हम नहीं कह सकते कि ये वे ही थे जो पहिले मन्दिर में जाकर गायब हो गए थे अथवा कोई दूसरे।

भूतनाथ ने उन दोनों का पीछा किया मगर बड़ी कठिनता से अपने को छिपाता और उन्हें देखता हुआ जाने लगा क्योंकि चाँदनी उसके काम में बाधा डाल रही थी। लगभग आधा कोस जाने के बाद वे दोनों एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ की जमीन पत्थर के बड़े-बड़े ढोकों से कुछ भयानक-सी हो रही थी और उसी जगह खोह का एक मुहाना भी था जिसे भूतनाथ ने सहज ही में समझ लिया और यह इरादा कर लिया कि इन दोनों को यहाँ पर खोह के अन्दर घुसने के पहिले ही रोक लेना चाहिए, ताज्जुब नहीं कि खोह के अन्दर जाने पर ये फिर मेरे हाथ न लगें।

वे दोनों आदमी खोह के मुहाने पर पहुँच कर रुके और आपस में कुछ बातें करने लगे। उसी समय भूतनाथ उनके पास जाकर खड़ा हो गया और यह देखकर कि उसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई है बोला, ‘‘तुम दोनों कौन हो?’’

एक : तुम्हें इससे मतलब?

भूत० : मतलब यही है कि यह स्थान हमारी हुकूमत के अन्दर है और हम जानना चाहते हैं कि तुम दोनों कौन हो और तुम्हारे उस अगस्ताश्रम के मन्दिर आने-जाने का कारण क्या है?

एक : न तो इस सरजमीन के तुम मालिक ही हो और न ही तुम्हें कुछ पूछने का कोई अधिकार ही है। जिस तरह एक बेईमान और नमकहराम ऐयार बेईज्जती के साथ अपनी जिन्दगी बिता सकता है उसी तरह तुम भी अपनी जिन्दगी के दिन बिताने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते, हम बखूबी जानते हैं कि तुम्हारा नाम गदाधरसिंह है और अब अपनी असलियत को छिपाते हुए तुम भूतनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ चाहते हो!

भूत० : (गुस्से से पेच खाकर) मालूम होता है कि तुम दोनों की शामत आई है जिससे मेरी बातों का साफ-साफ जवाब न देकर जली-कटी बातें करते और मुझे गदाधरसिंह के नाम से सम्बोधन करते हो। मैं नहीं जानता कि गदाधरसिंह किस चिड़िया का नाम है पर सम्भव है कि यह कोई भेद की बात हो, इसलिए मैं गदाधरसिंह के बारे में कुछ नहीं पूछता और एक दफे तुम्हारी ढिठाई को माफ करके फिर कहता हूँ कि तुम दोनों आदमी अपना परिचय दो नहीं तो....

एक : नहीं तो क्या? तुम हमारा कर ही क्या सकते हो? पहिले तुम अपनी जान बचाने का बन्दोबस्त तो कर लो। हम लोग तुम्हारी झूठी बातों से धोखा नहीं खा सकते, बस चले जाओ और अपना काम करो, हम लोगों का पीछा करके तुम अच्छा नतीजा नहीं निकाल सकते।

भूतनाथ खिलखिला कर हँस पड़ा और उसने फिर पूछा।

भूत० : मैं समझता हूँ कि तुम दोनों मर्द नहीं बल्कि औरत हो। खैर इससे भी कोई मतलब नहीं, मैं वह आदमी नहीं हूँ जो किसी तरह का मुलाहिजा कर जाऊँ, इस तलवार को देख लो और जल्द बताओ कि तुम कौन हो!

इतना कहकर भूतनाथ ने म्यान से तलवार निकाल ली मगर उन दोनों का दिल फिर भी न हिला और एक ने पुनः कड़क कर भूतनाथ से कहा—‘‘चल दूर हो मेरे सामने से तेरी निर्लज्ज तलवार से हम डर नहीं सकते! समझ ले कि तू इस ढिठाई की सजा पावेगा और पछतावेगा।’’

इसके जवाब में भूतनाथ ने हाथ बढ़ाकर एक की कलाई पकड़ ली, मगर साथ ही इसके दूसरे नकाबपोश ने भूतनाथ पर छुरी का वार किया जिसके लिए शायद वह पहिले ही से तैयार था। वह छुरी यद्यपि बहुत बड़ी न थी मगर भूतनाथ उसकी चोट खाकर सम्हल न सका। छुरी भूतनाथ के चार अंगुल धंस गयी और साथ ही भूतनाथ यह कहता हुआ जमीन पर गिर पड़ा—‘‘ओफ, यह जहरीली छुरी...!’’

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