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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान

अब हम यहाँ पर कुछ हाल प्रभाकरसिंह का लिखना जरूरी समझते हैं। पहिले बयान में हम लिख आए हैं कि ‘प्रभाकरसिंह इन्दुमति और गुलाबसिंह को लेकर भूतनाथ अपनी घाटी में गया तो रास्ते में सुरंग के अन्दर से यकायक प्रभाकरसिंह गायब हो गए’। अस्तु इसी जगह से हम प्रभाकरसिंह का हाल लिखना शुरू करते हैं।

जब भूतनाथ उन लोगों को साथ लिए हुए सुरंग में गया और कुछ दूर जाने के बाद चौमुहानी पर पहुँचा तो रास्ते का हाल बता कर कुछ आगे चलने के बाद भूतनाथ ने मोमबत्ती बुझा दी और उसे यही खयाल रहा कि हमारे तीनों मेहमान हमारे पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। मगर वास्तव में ऐसा न था, चौमुहानी से थोड़ी ही दूर आगे बढ़ने के बाद किसी ने प्रभाकरसिंह के दाहिने मोढ़े पर अपना हाथ रक्खा जो सबके पीछे-पीछे जा रहे थे।

प्रभाकरसिंह ने चौंक कर पीछे की तरफ देखा मगर अंधकार में कुछ भी दिखाई न दिया, हाँ एक हलकी-सी आवाज यह सुनाई पड़ी ‘ठहरो, और जरा मेरी बात सुन कर तब आगे बढ़ो।’ ठहरे या न ठहरें, भूतनाथ को रोकें अथवा चुप रहें इत्यादि सोचते हुए प्रभाकरसिंह कुछ ही देर रुके थे कि उनके कान में पुनः एक बारीक आवाज आई, ‘‘घबड़ाओ मत, जरा-सा रुक कर सुनते जाओं कि अब तुम कैसी आफत में फंसना चाहते हो और उससे छुटकारा पाने की क्या तदबीर है!’’

इन शब्दों ने प्रभाकरसिंह को और भी रोक लिया और वह कुछ ठिठके-से रह कर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए।

इतने ही में पिछली तरफ रोशनी मालूम हुई जो उसी चौराह पर थी जिसे यह लोग छोड़ कर कुछ दूर आगे बढ़ आये थे। उस रोशनी में दो औरतें दिखाई पड़ी और यह भी मालूम पड़ा कि जिसने प्रभाकरसिंह के मोढ़े पर हाथ रख कर उन्हें रोका था वह भी एक औरत ही है जो अब कुछ पीछे हट इन्हें पुनः अपनी तरफ बुला रही हैं।

यद्यपि इस कार्रवाई में बहुत थोड़ी देर लगी तथापि इसी बीच में उस अनूठी और पेचीली सुरंग में गुलाबसिंह और इन्दुमति को लिए हुए भूतनाथ इतना आगे बढ़ गया कि न तो वह इन दोनों की बात ही सुन सका और न चौमुहानी वाली रोशनी ही पर उसकी निगाह पड़ी। कुछ वर्तमान और कुछ भविष्य को सोचते हुए प्रभाकरसिंह अटके और उन औरतों से जो कम-उम्र, नाजुक और सुन्दर थीं, डरना व्यर्थ समझ कर चौमुहानी की तरफ मुंड कर उस औरत की तरफ चले जिसने इन्हंद रोका था

इन तीनों औरतों का नखशिख बयान करने और इनकी खूबसूरती के बारे में लिखने की यहाँ कुछ जरूरत नहीं है, यहाँ इतना ही कहना काफी है जितना कह आये हैं अर्थात तोनों कम उम्रकी थी, नाजुक थीं, सुन्दर थीं भड़कीली पोशाक पहिरे हुए थी।

जब चौमुहानी पर पहुँचे तो उन दोनों औरतों में से एक ने जो पहिले ही से वहा खडी थी प्रभाकरसिंह का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘भूतनाथ ने जरूर आप को कहा होगा कि चौमुहानी से उसके घर का रास्ता छोड़ कर बाकी दोनों तरफ जाना खतरनाक हैं। मगर नहीं, वह बिलकुल झुठा हैं आप जरा इधर आइए और देखिए मैं आपको कैसा अनूठा तमाशा दिखाती हूँ’’,

इतना कह कर दोनों बल्कि तीनों औरतों प्रभाकरसिंह को सुरंग के उस रास्ते मे ले चली जिधर जाने के लिए भूतनाथ ने मना किया था । हम नहीं कह सकते कि क्या सोच-समझ कर प्रभाकरसिंह ने इन औरतों की बात मान ली और भूतनाथ की नसीहत पर कुछ भी ध्यान न दिया अथवा भूतनाथ का साथ छोड़ दिया। क्या सम्भव है कि वे तीनों औरतों को पहिले से पहिचानते हों?

लगभग पन्द्रह या बीस कदम जाने के बाद तीसरी औरत ने जिसके हाथ में रोशनी थी नखरे के साथ हाथ से मोमबत्ती गिरा दी जिससे अंधकार हो गया। उसने यही जाहिर किया कि यह बात धोखे में उससे हो गई। इसके बाद उस औरत ने इनका हाथ छोड़ दिया। प्रभाकरसिंह अटक कर कुछ सोचने लगे और बोले ‘‘जो हुआ सो हुआ, अब रोशनी करो तो मैं तुम्हारे साथ आगे बढूँगा नहीं तो पीछे की तरफ मुड़ जाऊँगा,’’ मगर उनकी इस बात का किसी ने भी जवाब न दिया। आश्चर्य के साथ प्रभाकरसिंह ने पुनः पुकारा मगर फिर जवाब न मिला, मानो वहाँ कोई था ही नहीं।

आश्चर्य और चिन्ता के शिकार प्रभाकरसिंह कुछ देर तक खड़े सोचने के बाद अफसोस करते हुए पीछे की तरफ लौटे मगर अपने ठिकाने न पहुँच सके, आठ ही दस कदम पीछे हटे थे कि दीवार से टकरा कर खड़े हो गए और सोचने लगे-‘‘हैं, यह क्या मामला है! अभी-अभी तो हम लोग इधर से आ रहे हैं, फिर यह दीवार कैसी? रास्ता क्योंकर बंद हो गया? क्या अब इस तरफ का रास्ता बन्द ही हो गया!’’ इत्यादि।

वास्तव में पीछे फिरने का रास्ता बन्द हो गया था मगर अँधेरे में इस बात का पता नही लग सकता था कि यह कोई दीवार बीच मे आ पड़ी है या किसी तरह के तख्ते या दरवाजे ने बगल से निकल कर रास्ता बन्द कर दिया है अथवा क्या है!

जो हो, प्रभाकरसिंह को निश्चय हो गया कि अब पीछे की तरफ लौटना असम्भव अस्तु यही अच्छा होगा कि आगे की तरफ बढ़े, शायद कहीं उजेले की सूरत दिखाई दे तब जान बचे। आह! मैं इन औरतों को ऐसा नहीं समझता था और इस बात का स्वप्न में भी गुमान नहीं होता था कि ये मेरे साथ दगा करेंगी।

लाचार प्रभाकरसिंह अंधेरे में अपने दोनों हाथों को फैला कर टटोलते हुए आगे की तरफ बढ़े मगर बहुत धीरे-धीरे जाने लगे जिसमें किसी तरह का धोखा न हो। रास्ता पेचीला और ऊँचा था तथा आगे की तरफ से तंग भी होता जाता था, अढ़ाई-तीन सौ कदम जाने के बाद रास्ता इतना तंग हो गया कि एक आदमी से ज्यादा के चलने की जगह न रही।

कुछ आगे बढ़ने पर रास्ता रास्ता खतम हुआ और एक बन्द दरवाजे पर हाथ पड़ा। धक्का देने से वह दरवाजा खुल गया और प्रभाकरसिंह ने चौखट के अन्दर पैर रक्खा। दो ही कदम जाने के बाद यह दर्वाजा पुनः बन्द हो गया और साथ ही इसके आसपास की सफेदी पर भी प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी जो उनके सामने की तरफ बढ़ती हुई मालूम पड़ती थी। लगभग पच्चीस-तीस कदम जाने के बाद प्रभाकरसिंह खोह के बाहर निकले और तब उन्होने अपने को एक सरसब्ज पहाड़ की ऊँचाई पर किसी गुफा के बाहर खड़ा पाया।

इस समय सवेरा हो चुका था और पूरब तरफ पहाड़ की चोटी के पीछे सूरज की लालिमा दिखाई दे रही थी। प्रभाकरसिंह ने अपने को ऐसे स्थान में पाया जिसे एक सुन्दर और सोहावनी घाटी कह सकते हैं। यह घाटी त्रिकोण अर्थात तीन तरफ से पहाड़ के अन्दर दबी हुई थी और जमीन के बीचोबीच में एक सुन्दर बंगला बना हुआ था जो इस जगह से जहाँ प्रभाकरसिंह खडे़ थे लगभग चौथाई कोस की दूरी पर पहाड़ के नीचे की तरफ था। प्रभाकरसिंह वहाँ पहुँचने के लिए रास्ता तलाश करने लगे मगर सुभीते से उतर जाने के लायक कोई पगडण्डी नजर न आई, तथापि प्रभाकरसिंह हतोत्साह न हुए और किसी-न-किसी तरह से उद्योग करके नीचे की तरफ उतरने ही लगे।

वह सोच रहे थे कि देखें हमारा दिन कैसा कटता है, किस ग्रहदशा के फेर में पड़ते है, किसका सामना पड़ता है और खाने-पीने के लिए क्या चीज मिलती है अथवा यहाँ से निकलने का रास्ता ही क्योंकर मिलता है। उस बंगले तक पहुँचने में प्रभाकरसिंह को दो घंटे से ज्यादा देर लगी। पहाड़ की चोटियों पर धूप अच्छी तरह फैल चुकी थी मगर बंगले के पास धूप का नामनिशान नहीं था।

बंगले के दरवाजे पर दो जवान लड़के पहरा दे रहे थे जिन्होंने प्रभाकरसिंह को रोका और पूछा, ‘‘तुम यहाँ क्योंकर आए?’’

इसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने क्रोध में आकर कहा, ‘‘जिस तरह हम आए हैं वह जरूर तुम्हें मालूम होगा और जरूर वे तीनों कम्बख्त औरतें भी इसी बंगले के भीतर होंगी जिन्होने मुझे धोखा देकर गुमराह किया है। तुम जाओ, उन्हें इत्तिला दो कि प्रभाकरसिंह आ पहुँचे।’’

उन दोनों पहरे वालों ने प्रभाकरसिंह की बात का कुछ भी जवाब न दिया। प्रभाकरसिंह गुस्से में आकर कुछ कहा ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक मौल –सिरी के पेड़ के ऊपरी हिस्से पर जा पड़ी जो इसी बंगले के चारों कोनों पर चार मौलसिरी के बड़े-बड़े दरख्त में से एक था। ये पेड़ इस समय खूब ही हरे-भरे थे और उनके फूलों से वहाँ की जमीन ढक रही थी तथा खुशबू से प्रभाकरसिंह का दिमाग मुअत्तर हो रहा था।

जिस मौलसिरी के पेड़ के ऊपर प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी उसके ऊपरी हिस्से में रेशमी डोर के साथ एक हिडोला लटक रहा था जो झुकी हुई डालियों की आड़ में छिपा था। जब पत्तियाँ हटती थीं तो उस हिडोले पर एक सुन्दर औरत बैठी हुई दिखाई देती थी और इसी पर प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी थी। गौर से देखने पर प्रभाकरसिंह को इन्दुमति का गुमान हुआ और ये दौड़ कर उस पेड़ के नीचे जा खड़े हुए।

प्रभाकरसिंह ने सर उठा कर पुनः उस औरत को देखा – इस आशा से कि यह इन्दुमति है या नहीं, इस बात का निश्चय कर लें, मगर प्रभाकरसिंह का खयाल गलत निकला क्योंकि वह वास्तव में इन्दुमति न थी, हाँ, इन्दुमति से उसकी सूरत रुपये में बारह आना जरूर मिलती-जुलती थी यहाँ तक कि यदि यह औरत केवल अपने दोनों होंठ और अपनी ठुड्डी हाथ से ढांक कर प्रभाकरसिंह की तरफ देखती होती तो दोपहर की चमचमाती हुई रोशनी में और दस हाथ की दूरी से भी वे इसे न पहिचान सकते और यही कहते कि यह जरूर मेरी इन्दुमति हैं।

इस समय वह औरत भी प्रभाकरसिंह की तरफ देख रही थी। जब वे उस पेड़ के नीचे आए तब उसने हाथ के इशारे से उन्हें भाग जाने को कहा जिसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘तुम इस बात का गुमान भी न करो कि तुम्हारा हाल जाने बिना मैं यहाँ से चला जाऊँगा।’’

औरत : (अपने माथे पर हाथ रख कर) बात तो यह है कि आप अब यहाँ से जा नहीं सकते और न आपको निकल जाने का रास्ता ही मिल सकता हैं।

प्रभा० : तुम्हारे इस कहने से तो निश्चय होता है कि तुम्हारी जुबानी मुझे यहाँ का सच्चा-सच्चा हाल मालूम हो जाएगा और मैं अपने दुश्मनों से बदला ले सकूंगा।

औरत : नहीं, क्योंकि एक तो मुझे यहाँ का पूरा-पूरा हाल मालूम नहीं, दूसरे अगर कुछ मालूम भी है तो उसके कहने का मौका मिलना कठिन हैं, क्योंकि अगर कुछ कहने की कोशिश करूँगी तो मेरी ही तरह से आप भी कैद कर लिए जाएँगे।

प्रभा० : तो तुम कैदी हो?

औरत : (आँचल से आँसू पोंछ कर) जी हाँ!!

प्रभा० : तुम्हें यहाँ कौन ले आया?

औरत : मेरी बदकिस्मती!

प्रभा० : तुम्हारा क्या नाम हैं?

औरत : तारा

प्रभा० : (ताज्जुब से) तुम्हारे बाप का क्या नाम हैं?

औरत : (रो कर) वही जो आपकी इन्दुमति के बाप का नाम हैं!! अफसोस, आपने मुझे अभी तक नहीं पहिचाना!

इतना करके वह और भी खुल कर रोने लगी जिससे प्रभाकरसिंह का दिल बेचैन हो गया और उन्होंने पहिचान लिया कि यह बेशक उनकी साली हैं, वह चाहते थे कि पेड़ पर चढ़ कर उसे नीचे उतारें और अच्छी तरह बात करें मगर इसी बीच में कई आदमियों ने आकर उन्हें घेर लिया। बंगले के दरवाजे पर पहरा देने वाले दोनों नौजवान लड़कों ने प्रभाकरसिंह को जब उस औरत से बातचीत करते देखा तब तेजी के साथ वहाँ से चले गए और थोड़ी ही देर में कई आदमियों ने आकर उनको घेर लिया।

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