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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान

अब हम अपने पाठकों को पुनः उस घाटी में ले चलते हैं जिसमें कला और बिमला रहती थीं और जिसमें भूतनाथ ने पहुँचकर बड़ी ही संगदिली का काम किया था अर्थात् कला, बिमला और इन्दुमति के साथ-ही-साथ कई लौंडियों को भी कुएँ में ढकेल कर जिन्दगी का आईना गंदला किया था।

भूतनाथ यद्यपि अपने शागिर्द रामदास की मदद से उस घाटी में पहुँच गया था और अपनी इच्छानुसार उसने सब कुछ करके अपने दिल का गुबार निकाल लिया था मगर घाटी के बीच वाले उस बँगले के सिवाय वह वहाँ का और कोई स्थान नहीं देख सका जिसमें कला और बिमला रहती थीं या जहाँ जख्मी इन्दुमति का इलाज हुआ किया गया था, और न वहाँ का कोई भेद ही भूतनाथ को मालूम हुआ।

वह केवल अपने दुश्मनों को मार कर उस घाटी के बाहर निकल आया और फिर कभी उसके अन्दर नहीं गया। मगर प्रभाकरसिंह को उस घाटी का बहुत ज्यादा हाल मालूम हो गया था। कुछ तो उन्होंने बीच वाले बँगले की तलाशी लेते समय कई तरह के कागजों-पुर्जों और किताबों को देखकर मालूम कर लिया था और कुछ कला, बिमला ने बताया था और बाकी का भेद इन्द्रदेव ने बता कर प्रभाकर को खूब पक्का कर दिया था।

आज प्रातःकाल सूर्योदय के समय हम उस घाटी में प्रभाकरसिंह को एक पत्थर की चट्टान पर बैठे हुए देखते हैं। उनके बगल में ऐयारी का बटुआ लटक रहा है और हाथ में एक छोटी-सी किताब है जिसे वे बड़े गौर से देख रहे हैं। यह किताब हाथ की लिखी हुई है और इसके अक्षर बहुत ही बारीक हैं तथा इसमें कई तरह के नक्शे भी दिखाई दे रहे हैं जिन्हें वे बार-बार उलट कर देखते हैं और फिर कोई दूसरा मजमून पढ़ने लगते हैं।

इस काम में उन्हें कई घण्टे बीत गये। जब धूप की तेजी ने उन्हें परेशान कर दिया तब वे वहाँ से उठ खड़े हुए तथा बड़े गौर से दक्षिण और पश्चिम कोण की तरफ देखने लगे और कुछ देर तक देखने के बाद उसी तरफ चल निकले। नीचे उतर कर मैदान खत्म करने के बाद जब दक्षिण और पश्चिम कोण वाली पहाड़ी के नीचे पहुँचे तब इधर-उधर बड़े गौर से देख कर उन्होंने एक पगडंडी का पता लगाया और उसी सीध पर चलते हुए पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। करीब-करीब साठ कदम चले जाने के बाद उन्हें एक छोटी-सी गुफा मिली और वे लापरवाही के साथ उस गुफा के अन्दर चले गये।

यह गुफा बहुत बड़ी न थी और इसमें केवल दो आदमी एक साथ मिलकर चल सकते थे, फिर भी ऊँचाई इसकी ऐसी कम न थी कि इसके अन्दर जाने वाले का सिर छत के साथ टकराए, अस्तु प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे टटोलते हुए इसके अन्दर जाने लगे। जब लगभग दो सौ कदम चले गये तब उन्हें एक छोटी-सी कोठरी मिली जिसके अन्दर जाने के लिए दरवाजे आदि की किसी तरह की रुकावट न थी, सिर्फ एक चौखट लाँघने ही के सबब से कह सकते हैं कि वे उस कोठरी के अन्दर जा पहुँचे। अन्धकार के सबब से प्रभाकरसिंह को कुछ दिखाई नहीं देता था इसलिए वे बैठकर वहाँ की जमीन हाथ से इस तरह टटोलने लगे मानों किसी खास चीज को ढूँढ़ रहे हैं।

एक छोटा-सा चबूतरा कोठरी के बीचोबीच मिला जो हाथभर चौड़ा और इसी कदर लम्बा था। उसके बीच में किसी तरह का खटका था जिसे प्रभाकरसिंह ने दबाया और साथ ही इसके चबूतरे के ऊपर वाला भाग किवाड़ के पल्ले की तरह खुल गया, मानों वह पत्थर का नहीं बल्कि किसी धातु या लकड़ी का बना हो।

अब प्रभाकरसिंह ने अपने बटुए में से मोमबत्ती निकाली और इसके बाद चकमक पत्थर निकाल कर रोशनी की। प्रभाकरसिंह ने देखा कि ऊपर का भाग खुल जाने से उस चबूतरे के अन्दर नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ लगी दिखायी देती हैं। प्रभाकरसिंह ने रोशनी में उस कोठरी को बड़े गौर से देखा। वहाँ चारों तरफ दीवार में चार आले (ताक) थे जिनमें से सिर्फ सामने वाले एक आले में गुलाब का बनावटी एक पेड़ बना हुआ था जिसमें बेहिसाब कलियाँ लगी हुई थीं और सिर्फ चार फूल खिले हुए थे, बाकी के तीन आले खाली थे।

प्रभाकरसिंह ने उस गुलाब के पेड़ और फूलों को बड़े गौर से देखा और यह जानने के लिए कि वह पेड़ किस चीज का बना हुआ है उसे हाथ से अच्छी तरह टटोला। मालूम हुआ कि वह पत्थर या किसी और मजबूत चीज का बना हुआ है।

प्रभाकरसिंह उन खिले हुए चार फूलों को देख कर बहुत ही खुश हुए और इस तरह धीरे-धीरे बुदबुदाने लगे जैसे कोई अपने मन से दिल खोल कर बातें करता हो।

उन्होंने ताज्जुब के साथ कहा, ‘‘हैं यह चार फूल कैसे! खैर मेरा परिश्रम सफल हुआ चाहता है। इन्द्रदेव जी का ख्याल ठीक निकला कि वे तीनों औरतें (जमना, सरस्वती और इन्दु) जरूर उस तिलिस्म के अन्दर चली गई होंगी अब इन खिले फूलों को देखकर मुझे भी विश्वास होता है कि उन तीनों से तिलिस्म में मुलाकत होगी और मैं उन्हें खोज निकालूँगा, मगर इन्द्रदेव जी ने कहा था कि जितने आदमी इस तिलिस्म में जायेंगे इस पेड़ के उतने ही फूल खिले दिखाई देंगे इसके अतिरिक्त उस कागज में भी ऐसा ही लिखा है अस्तु, यह चौथा आदमी इस तिलिस्म में कौन जा पहुँचा? इस बात का मुझे विश्वास नहीं होता कि किसी लौंडी को भी वे तीनों अपने साथ ले गई होंगी क्योंकि ऐसा करने के लिए इन्द्रदेव जी ने उन्हें सख्त मनाही कर दी थी।

यह सम्भव है कि विशेष कारण से वे किसी लौंडी को अपने साथ ले भी गई हों, खैर जो होगा देखा जायगा मगर ऐसा किया तो यह काम उन्होंने अच्छा नहीं किया।

इस तरह बहुत-सी बातें वे देर तक सोचते रहे, साथ ही इसके इस बात पर भी गौर करते रहे कि उन तीनों को तिलिस्म के अन्दर जाने की जरूरत ही क्या पड़ी।

प्रभाकरसिंह बेखटके उन सीढ़ियों के नीचे उतर गये। नीचे उतर जाने के बाद उन्हें पुनः एक सुरंग मिली जिसमें तीस या चालीस हाथ से ज्यादे जाना न पड़ा, जब वे उस सुरंग को खत्म कर चुके तब उन्हें रोशनी दिखायी दी तथा सुरंग के बाहर निकलने पर एक छोटा-सा बाग और कुछ इमारतों पर उनकी निगाह पड़ी। आसमान पर निगाह करने से खयाल हुआ कि दोपहर ढल चुकी है और दिन का तीसरा पहर बीत रहा है।

इस बाग में मकान, बारहदरी, कमरे, दालान, चबूतरे या इसी तरह की इमारतों के अतिरिक्त और कुछ भी न था अर्थात् फूल के अच्छे दरख्त दिखाई नहीं देते थे या अगर कुछ थे भी तो केवल जंगली पेड़ जो कि यहाँ बहते हुए चश्मे के सबब से कदाचित् बराबर ही हरे-भरे रहते थे, हाँ केले के दरख्त यहाँ बहुतायत से दिखाई दे रहे थे और उनमें फल भी बहुत लगे हुए थे।

प्रभाकरसिंह थक गये थे इसलिए कुछ आराम करने की नीयत से नहर के किनारे एक चबूतरे पर बैठ गये और वहाँ की इमारतों को बड़े गौर से देखने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने अपने बटुए में से मेवा निकाला और उसे खाकर चश्में का बिल्लौर की तरह साफ बहता हुआ जल पीकर सन्तोष किया।

प्रभाकरसिंह सिपाही और बहादुर आदमी थे, कोई ऐयार न थे, मगर आज हम इनके बगल में ऐयारी का बटुआ लटका देख रहे हैं इससे मालूम होता है कि इन्होंने समयानुकूल चलने के लिए कुछ ऐयारी जरूर सीखी है, मगर इनका उस्ताद कौन है सो अभी मालूम नहीं हुआ।

हम कह चुके हैं कि यह बाग नाममात्र को बाग था मगर इसमें इमारतों का हिस्सा बहुत ज्यादे था। बाग के बीचोंबीच में एक गोल गुम्बद था जिसके चारों तरफ छोटी-छोटी पाँच कोठरियाँ थीं और वह गुम्बद इस समय प्रभाकरसिंह की आँखों के सामने था जिसे वह बड़े गौर से देख रहे थे। बाग के चारों तरफ चार बड़ी-बड़ी बारहदरियाँ थीं और उनके ऊपर उतने ही खूबसूरत कमरे बने हुए थे जिसके दरवाजे इस समय बन्द थे, सिर्फ पूरब तरफ वाले कमरे के दरवाजे में से एक दरवाजा खुला हुआ था और प्रभाकरसिंह को अच्छी तरह दिखाई दे रहा था।

प्रभाकरसिंह और कमरों तथा दालानों को छोड़ कर उसी बीच वाले गुम्बद को बड़े गौर से देख रहे थे जिसके चारों तरफ वाली कोठरियों के दरवाजे बन्द मालूम होते थे। कुछ देर बाद प्रभाकरसिंह उठे और उस गुम्बद के पास चले गये। एक कोठरी के दरवाजे को हाथ से हटाया तो वह खुल गया अस्तु वह कोठरी के अन्दर चले गये। इस कोठरी की जमीन संगमरमर की थी और बीच में स्याह पत्थर का एक सिंहासन था जिस पर हाथ रखते ही प्रभाकरसिंह का शरीर काँपा और वे चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गये तथा उसी समय उस कोठरी का दरवाजा भी बन्द हो गया।

दिन बीत गया। आधी रात का समय था जब प्रभाकरसिंह की आँख खुली। अँधेरी रात होने के कारण वे कुछ स्थिर नहीं कर सकते थे कि वे कहाँ पर हैं। घबराहट में उन्होंने अपने हर्बों को टटोला और फिर ऐयारी का बटुआ खोला, ईश्वर को धन्यवाद दिया कि वे सब चीजें उनके पास मौजूद थीं। इसके बाद वे विचारने लगे कि यह स्थान कैसा है तथा हमको अब क्या करना चाहिए। बहुत देर के बाद उन्हें मालूम हुआ कि वे किसी छोटे दालान में हैं और उनके सामने एक घना जंगल है। इस अंधकार के समय में उनकी हिम्मत न पड़ी की उठकर तिलिस्म में इधर-उधर घूमें या किसी बात का पता लगावें। अस्तु उन्होने चुपचाप उसी दालान में पड़े रह कर रात बिता दी।

रात बीत गई और सूर्य भगवान का पेशखेमा आसमान पर अच्छी तरह तन गया। प्रभाकरसिंह उठ खड़े हुए और यह जानने के लिए उस दालान में घूमने और दरोदीवार को अच्छी तरह देखने लगे कि वे क्योंकर इस स्थान में पहुँचे तथा उनके यहाँ आने का जरिया क्या है, परन्तु इस बात का उन्हें कुछ भी पता न लगा।

उस दालान के सामने जो जंगल था वह वास्तव में बहुत घना था और सिर्फ देखने से इस बात का पता नहीं लगता था कि वह कितना बड़ा है तथा उसके बाद किसी तरह की इमारत है या कोई पहाड़, साथ ही इसके उन्हें इस बात की फिक्र भी थी कि अगर कोई पानी का चश्मा दिखाई दे तो स्नान इत्यादि का काम चले।

जंगल में घूम कर क्या करें और किसको ढूँढे़ इस विचार में वे बहुत देर तक सोचते और इधर-उधर घूमते रह गये, यहाँ तक कि सूर्य भगवान ने चौथाई आसमान का सफर तै कर लिया और धूप में कुछ गर्मी मालूम होने लगी। उसी समय प्रभाकरसिंह के कान में यह आवाज आई, ‘‘हाय, बहुत बुरे फँसे, यह मेरे कर्मों का फल है, ईश्वर न करे किसी...’’ बस इसके आगे की आवाज इतनी बारीक हो गई कि प्रभाकरसिंह उसे अच्छी तरह समझ न सके।

इस आवाज ने प्रभाकरसिंह को परेशान कर दिया और खुटके में डाल दिया। आवाज जंगल के बीच में से आई थी अतएव उसी आवाज की सीध पर चल पड़े और उस घने जंगल में ढूंढ़ने लगे कि वह दुखिया कौन और कहाँ है जिसके मुँह से ऐसा आवाज आई है।

प्रभाकरसिंह को ज्यादा ढूँढ़ना न पड़ा। उस जंगल में थोड़ी ही दूर जाने पर उन्हें पानी का एक सुन्दर चश्मा दिखाई दिया और उसी चश्में के किनारे उन्होंने एक औरत को देखा जो बदहवास और परेशान जमीन पर पड़ी हुई थी और न मालूम किस तरह की तकलीफ से करवटें बदल रही थी।

प्रभाकरसिंह बड़े गौर से इस औरत को देखने लगे क्योंकि वह कुछ जानी-पहचानी-सी मालूम पड़ी थी, उस औरत ने प्रभाकरसिंह को देख के हाथ जोड़ा और कहा, ‘‘मेरी जान बचाइये, मैं बेतरह इस आफत में फँस गई हूं। मुझे उम्मीद थी कि अब कुछ ही देर में इस दुनिया से कूच कर जाऊँगी, परन्तु आपको देखने से विश्वास हो गया कि अभी थोड़ी जिन्दगी बाकी है। आप बड़े गौर से देख रहे हैं, मालूम होता है कि आपने मुझे पहिचाना नहीं। मैं आपकी ताबेदार लौंडी हरदेई हूँ, आपकी स्त्री और सालियों की बहुत दिनों तक खिदमत कर चुकी हूँ।’’

प्रभाकर : हाँ, अब मैंने तुझे पहिचाना, कला और बिमला के साथ मैंने तुझे देखा था मगर सामना बहुत कम हुआ इसलिए पहचानने में जरा कठिनाई हुई, अच्छा यह बता कि तीनों कहाँ हैं?

हरदेई : मैं उन्हीं की सताई होने पर भी उनकी ही खोज में यहाँ आई थी, एक दफे वे दिखाई देकर पुनः गायब हो गईं – आह अब मुझसे बोला नहीं जाता।

प्रभाकर : तुझे किस बात की तकलीफ है?

हरदेई : मैं भूख से परेशान हो रही हूँ। आज कई दिन से मुझे कुछ भी खाने को नहीं मिला ...बस...प्राण निकला ही...

प्रभाकर : तुझे यहाँ आये कितने दिन हुए?

हरदेई : आज से सात...

बस इससे ज्यादे हरदेई कुछ भी न बोल सकी अस्तु प्रभाकरसिंह ने अपने बटुए में से कुछ निकाल कर खाने के लिए दिया और हाथ का सहारा देकर उसे बैठाया मेवा देख कर हरदेई खुश हो गई, भोजन किया और नहर का जल पीकर सम्हल बैठी और बोली, ‘‘अब मेरा जी ठिकाने हुआ, अब मैं बखूबी बातचीत कर सकती हूँ।’’

प्रभा० :(उसके पास बैठकर) अच्छा अब बता कि तुझे यहाँ आये कितने दिन हुए और तूने कला, बिमला तथा इन्दु को कहाँ और किस अवस्था में देखा तथा क्योंकर उनका साथ छूटा। क्या तू भी तीनों के साथ ही तिलिस्म में आई थी?

हरदेई : नहीं, मैं तो बेसबब और बिना कसूर के मारी गई। मैंने आज तक अपने मालिकों के साथ बुराई नहीं की थी मगर न-मालूम उन्होंने क्यों मुझे इस तरह की सजा दी! यद्यपि उन्होंने अपना धर्म बिगाड़ दिया था और जिस तरह सती-साध्वियों को चलना चाहिए उस तरह नहीं चलती थीं, अपनी सफेद और साफ चादर में बदनामी के कई धब्बे लगा चुकी थीं मगर मैंने आपसे भी इस बात की कभी शिकायत नहीं की और उनका भेद किसी तरह प्रकट होने न दिया, परन्तु ईश्वर की कृपा से मैं जीती बच गई। अब मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ और जो कुछ कहने की बातें हैं वह आपसे...

प्रभा० : (कुछ घबड़ा कर) तू क्या कह रही है! क्या कला और बिमला के सतीत्व में धब्बा लग चुका है? और क्या उन दोनों ने अपनी चाल-चलन खराब कर डाली है?

हर : बेशक ऐसी बात है। आज से नहीं बल्कि आपसे मुलाकात होने के पहिले ही से वे दोनों बिगड़ी हुई हैं और दो आदमियों से अनुचित प्रेम करके अपने धर्म को बिगाड चुकी हैं, बड़े अफसोस की बात है कि इन्दुमति को भी उन्होंने अपनी पंक्ति में मिला लिया है। ईश्वर ने इसी पाप का फल उन्हें दिया है। मेरी तरह वे भी इस तिलिस्म में कैद कर दी गई हैं और आश्चर्य नहीं कि वे भी इसी तरह की तकलीफें उठा रही हों। बस इससे ज्यादे और कुछ भी नहीं कहूँगी क्योंकि ...

प्रभा० : नहीं–नहीं, रुक मत। जो कुछ तू जानती है बेशक कहें जा, मैं खुशी से सुनने के लिए तैयार हूँ।

हर : अगर मैं ऐसा करूँगी तो फिर मेरी क्या दशा होगी, यही मैं सोच रही हूँ।

हरदेई की बातों ने प्रभाकरसिंह के दिल में एक तरह का दर्द पैदा कर दिया। ‘कला और बिमला बदकार हैं और उन्होंने इन्दु को भी खराब कर दिया’। यह सुन कर उनका क्या हाल हुआ सो वे ही जानते होंगे नेक और पतिव्रता इन्दु की कोई बदनामी करे यह बात प्रभाकरसिंह के दिल में नहीं जम सकती थी मगर कला और बिमला पर उन्हें पहले भी एक दफे शक हो चुका था। जब वे उस घाटी में थे तभी उनकी स्वतन्त्रता देख कर उनका मन आशंकित हो गया था मगर जाँच करने पर उनका दिल साफ हो गया था। आज हरदेई ने उन्हें फिर उसी चिन्ता में डाल दिया, और साथ ही इसके इन्दु का भी आँचल गंदला सुन कर उनका कलेजा काँप उठा तथा वे सोचने लगे कि क्या यह बात सच हो सकती है?

केवल इतना ही नहीं, प्रभाकरसिंह के चित्त में चिन्ता और घृणा के साथ-ही-साथ क्रोध की भी उत्पति हो गई और बहुत कुछ विचार करने के बाद उन्होंने सोचा कि यदि वास्तव में हरदेई का कहना सच है तो मुझे फिर उन दुष्टाओं के लिए परिश्रम करने की आवश्यकता ही क्या है, परन्तु सत्य की जाँच तो आवश्यक है इत्यादि सोचते हुए उन्होंने हरदेई से पूछा –

प्रभाकर : हाँ तो जो कुछ असल मामला है तू बेखौफ होकर कहे जा, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि तेरी रक्षा करूँगा और तुझे इस आफत से बचाऊँगा।

हरदेई : यदि आप वास्तव में प्रतिज्ञा करते हैं तो फिर मैं सब बातें साफ-साफ कह दूँगी।

प्रभा० : बेशक मैं प्रतिज्ञा करता हूँ मगर साथ ही इसके यह भी कहता हूँ कि अगर तेरी बात झूठ निकली तो तेरे लिए सबसे बुरी मौत का ढंग तजवीज करूँगा।

हर : बेशक मैं इसे मन्जूर करती हूँ।

प्रभा० : अच्छा तो जो कुछ ठीक-ठीक मामला है तू कह और यह बता कि वह सब कहाँ गईं और क्या हुईं और क्योंकर इस दशा को पहुँची।

हर : अच्छा तो मैं कहती हूँ, सुनिये, कला और बिमला की चालचलन अच्छी नहीं है। आप स्वयम सोच सकते हैं कि जिन्हें ऐसी नौजवानी में इस तरह की स्वतन्त्रता मिल गई हो रहने तथा आनन्द करने के लिए ऐसा स्वर्ग-तुल्य स्थान मिल गया हो तथा दौलत की भी किसी तरह कमी न हो तो वे कहाँ तक अपने चित्त को रोक सकती हैं? खैर जो कुछ हो, कला और बिमला दोनों ही ने अपने लिए दो प्रेमी निकाले और दोनों को औरतों के भेष में ठीक करके अपने यहाँ रख छोड़ा तथा नित्य नया आनन्द करने लगीं। मगर साथ ही इसके भूतनाथ से बदला लेने का भी ध्यान उनके दिल में बना रहा और उन दोनों मर्दों से भी इस काम में बराबर मदद माँगती रहीं, वे दोनों मर्द दिन तक इस घाटी में रह आनन्द करते और फिर कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाया करते थे।

प्रभा० : (बात काट कर) उन दोनों का नाम क्या था?

हर : सो मैं नहीं कह सकती क्योंकि कला और बिमला ने बड़ी कारीगरी से उन दोनों का भेष बदल दिया, कभी-कभी मर्दाने भेष में रहने पर भी उनकी सूरत दिखाई नहीं देती थी, इसलिए मैं उनके नाम और ग्राम के विषय में ठीक तौर पर कुछ भी नहीं कह सकती, हाँ इतना जरूर है कि अगर मुझे कुछ मदद मिले तो मैं उन दोनों का पता जरूर लगा सकती हूँ क्योंकि एकान्त की अवस्था में छिप-लुक कर उन लोगों की बहुत-सी बातें सुन चुकी हूँ जिसका...

प्रभा० : खैर इस बात को जाने दे फिर देखा जायगा, अच्छा तब क्या हुआ?

हर : बहुत दिनों तक कला और बिमला ने दोनों से सम्बन्ध रखा मगर जब इन्दु इस घाटी में लाई गई और आपका आना भी यहाँ हुआ तब वे दोनों कुछ दिन के लिए गायब कर दिए गये। मैं ठीक नहीं कह सकती कि वे कहाँ चले गये या क्या हुए मैं इस किस्से को बहुत मुख्तसर में बयान करती हूँ। फिर जब आप विजयगढ़ और चुनार की लडाई में चले गये और बहुत दिनों तक आपके आने की उम्मीद न रही तब पुनः वे दोनों इस घाटी में दिखाई देने लगे। संग और कुसंग का असर मनुष्य के ऊपर अवश्य पड़ा करता हैं कुछ ही दिनों के बाद इन्दुमति को मैंने उन दोनों में से एक के साथ मुहब्बत करते देखा और इसी कारण से कला, बिमला और इन्दुमति में अन्दर-अन्दर कुछ खिंचाव भी आ गया था।

मैं समझती हूँ कि भूतनाथ को इस विषय का हाल जरूर मालूम होगा जिसने उन दोनों को रिश्वत देकर अपने साथ मिला लिया और उस घाटी में आने-जाने का रास्ता देख लिया। इसी बीच में मैंने आपको उस घाटी में देखा पहिले तो मुझे विश्वास हो गया कि वास्तव में प्रभाकरसिंह ही लड़ाई में नामवरी हासिल करके यहाँ आ गये हैं परन्तु कुछ दिन के बाद मेरा खयाल जाता रहा और निश्चय हो गया कि असल में आपकी सूरत बना कर यहाँ आने वाला कोई दूसरा ही था।

मैं इस विषय में कला और बिमला को बार-बार टोका करती थी और कहा करती थी कि तुम लोगों के रहन-सहन का यह ढंग अच्छा नहीं है एक-न-एक दिन इसका नतीजा बहुत ही बुरा निकलेगा, मगर वे दोनों इस बात का कुछ ख्याल नहीं करती थीं और मुझे यह कह कर टाल दिया करती थीं कि खैर जो कुछ भी हुआ सो हुआ अब ऐसा न होगा। मगर मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि मेरे रोक-टोक करने से उसके दिल में रंज बैठता जाता है। मैंने अपने काम में और भी कई लौंडियों को शरीक कर लिया मगर इसका नतीजा मेरे लिए अच्छा न निकला।

एक दिन वह आदमी जो आपकी सूरत बनाये हुए था जब उस घाटी में आया तो उसके साथ और भी दस-बारह आदमी आये, जब वे लोग कला, बिमला और इन्दुमति से मिले तो उनका रंग-ढंग देख कर मैं डर गई और एक किनारे हट कर उनका तमाशा देखने लगी। थोड़ी देर के बाद जब संध्या हुई तब कला, बिमला और इन्दुमति उन सभों को साथ लिए हुए बँगले के अन्दर चली गई अस्तु इसके बाद क्या-क्या हुआ मैं कुछ भी न जान सकी, लाचार मैं अपनी हमजोलियों के साथ जा मिली और भोजन इत्यादि की साम्रगी जुटाने के काम में लगी।

पहर रात बीत जाने के बाद जब भोजन तैयार हुआ तब सभों ने मिल-जुल कर भोजन किया, तत्पश्चात हम लोगों ने भी खाना खाया मगर भोजन करने के थोड़ी देर बाद हम लोगों का सर घूमने लगा जिससे निश्चय हो गया कि आज के भोजन में बेहोशी की दवा मिलाई गई है। खैर जो हो, आधी रात जाते-जाते तक हम सब की सब बेहोश होकर दीन-दुनिया को भूल गईं। प्रातः काल जब मेरी आँख खुली तो मैंने अपने-आपको इसी स्थान पर पड़े हुए पाया। घबड़ा कर उठ बैठी और आश्चर्य के साथ चारों तरफ देखने लगी, उस समय मेरे सर में बेहिसाब दर्द हो रहा था।

तीन दिन और रात मैं घबड़ाई हुई इस जंगल में और (हाथ का इशारा करके) इस पास वाली इमारत और दालान में घूमती रही मगर न तो किसी से मुलाकात हुई और न यहाँ से निकल भागने के लिए कोई रास्ता ही दिखाई दिया, चौथे दिन भूख से बेचैन होकर मैं इसी जंगल में घूम रही थी कि यकायक इन्दुमति कुछ दूरी पर दिखाई पड़ी जो कि आपके गले में हाथ डाले हुए धीरे-धीरे पूरब की तरफ जा रही थी, मैं नहीं कह सकती कि वह वास्तव में आप ही के गले में हाथ डाले हुए थी या किसी दूसरे ऐयार के गले में जो आपकी सूरत बना हुआ था।

उसी के पीछे मैंने कला और बिमला को भी जाते हुए देखा। मैं खुशी-खुशी लपकती उनकी तरफ बढ़ी मगर नतीजा कुछ भी न निकला। देखते-ही-देखते इसी जंगल और झाड़ियों में घूम-फिर वे सब-की-सब न जाने कहाँ गायब हो गई, तब से आज तक कई दिन हुए मैं उनकी खोज में परेशान हूँ, अन्त में भूख के मारे बदहवास होकर इसी जगह गिर पड़ी और कई पहर तक तनबदन की भी सुध न रही, जब होश में आई तब आपसे मुलाकात हुई। बस यही तो मुख्तसर हाल है।

हरदेई की बात सुन कर प्रभाकरसिंह के तो होश उड़ गये वे ऐसे बेसुध हो गये कि उन्हें तनोबदन की सुध बिल्कुल ही जाती रही। थोड़ी देर तक तो ऐसा मालूम होता रहा कि वे प्रभाकरसिंह नहीं बल्कि कोई पत्थर की मूरत हैं, इसके बाद उन्होंने एक लम्बी साँस ली और बड़े गौर से हरदेई के चेहरे की तरफ देखने लगे, कई क्षण बाद उन्होंने सिर नीचा कर लिया और किसी गहरे चिन्ता-सागर में डुबकियाँ लगाने लगे हरदेई मन-ही-मन प्रसन्न होकर उनके चेहरे की तरफ देखने लगी जिसका रंग थोड़ी-थोड़ी देर पर गिरगिट के रंग की तरह बराबर बदल रहा था।

प्रभाकरसिंह के चेहरे पर कभी तो क्रोध, कभी दुःख, कभी चिन्ता, कभी घबराहट और कभी घृणा की निशानी दिखाई देने लगी। आह, प्रभाकर सिंह के जिस हृदय में इन्दुमति का अगाध प्रेम भरा हुआ था उसमें इस समय भयानक रस का संचार हो रहा था जो वीर हृदय सदैव करुण रस से परिपूरित रहता था वह क्षण मात्र के लिये अद्भुत रस का स्वाद लेकर रौद्र और तत्पश्चात वीभत्स रस की इच्छा कर रहा है! जिस हृदय में इन्दुमति पर निगाह पड़ते ही श्रृंगार रस की लहरें उठने लगती थीं वह अपनी भविष्य जीवनी पर हास्य करता हुआ अब सदैव के लिये शान्त हुआ चाहता है आह, इन्दुमति के विषय में स्वप्न में भी ऐसे शब्दों के सुनने की क्या प्रभाकरसिंह को आशा हो सकती थी? कदापि नहीं।

यह प्रभाकर सिंह की भूल है कि हरदेई की जुबान से विष-भरी अघटित घटना को सुन अनुचित चिन्ता करने लग गये हैं, वह नहीं जानते कि यह हरदेई वास्तव में हरदेई नहीं है बल्कि कोई ऐयार है। परन्तु हमारे प्रेमी पाठक इस बात को जरूर समझ रहे होंगे कि यह भूतनाथ का शागिर्द रामदास है जिसकी मदद से भूतनाथ ने उस घाटी में पहुँच कर बड़ा ही अनुचित और घृणित व्यवहार किया था। निःन्देह भूतनाथ ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति के साथ जो कुछ किया वह ऐयारी के नियम के बिल्कुल ही बाहर था, ऐयारी का यह मतलब नहीं है कि वह बेकसूरों के खून से अपने जीवन की पवित्र चादर में धब्बा लगाए।

यदि प्रभाकरसिंह उसकी कार्रवाई का हाल सच्चा-सच्चा सुनते तो न–मालूम उनकी क्या अवस्था हो जाती, परन्तु इस समय रामदास ने उन्हें बड़ा ही धोखा दिया और ऐसी बेढंगी बातें सुनाई कि उनका पवित्र हृदय काँप उठा और इन्दुमति तथा कला बिमला की तरफ से उन्हें एक दम घृणा उत्पन्न हो गई। तब क्या प्रभाकरसिंह ऐसे बेवकूफ थे कि एक मामूली ऐयार अथवा लौंडी के मुँह से ऐसी अनहोनी बात सुन कर उन्होंने उस पर कुछ विचार न किया और उसे सच्चा मान कर अपने आपे से बाहर हो गये? नहीं प्रभाकरसिंह तो ऐसे न थे परन्तु प्रेम ने उनका हृदय ऐसा बना दिया था कि इन्दु के विषय में ऐसी बातें सुन कर वे अपने चित्त को सम्हाल नहीं सकते थे।

प्रेम का अगाध समुद्र थोड़ी ही सी आँच लगने से सूख सकता है, और प्रेमी का मन-मुकुर जरा ही सी ठेस लगने से चकनाचूर हो जाता है।

अस्तु जो हो प्रभाकर सिंह के दिल की उस समय क्या अवस्था थी वे ही ठीक जानते होंगे या उनको देख कर रामदास कुछ-कुछ समझता होगा क्योंकि वह उनके सामने बैठा हुआ उनके चेहरे की तरफ बड़े गौर से देख रहा था।

नकली हरदेई अर्थात रामदास के दिल की अवस्था भी अच्छी न थी। वह कहने के लिये तो सब कुछ कह गया परन्तु इसका परिणाम क्या होगा यह सोच कर उसका दिल डावाँडोल होने लगा। यद्यपि इस तिलिस्म में फँस कर वह बर्बाद हो चुका था बल्कि थोड़ी देर पहिले तो मौत की भयानक सूरत अपनी आँखों के सामने देख रहा था परन्तु प्रभाकरसिंह पर निगाह पड़ते ही उसकी कायापलट हो गई और उसे विश्वास हो गया कि अब किसी-न-किसी तरह उसकी जान बच जायगी, परन्तु इन्दुमति को बदनाम करके उसका चित्त भी शान्त न रहा और थोड़ी ही देर बाद सोचने लगा कि मैंने यह काम अच्छा नहीं किया यदि मैं कोई दूसरा ढंग निकालता तो कदाचित है यहाँ से छुटकारा मिल जाता परन्तु अब जल्दी छुटकारा मिलना मुश्किल हैं क्योंकि मेरी बात का निर्णय किए बिना प्रभाकरसिंह मुझे यहाँ से बाहर नहीं जाने देंगे।

अफसोस भूतनाथ को मदद पहुँचाने के ख्याल से मैंने व्यर्थ ही इन्दु को बदनाम किया इन्दुमति निःसन्देह सती और साध्वी है, उस पर कलंक लगाने का नतीजा मुझे अच्छा न मिलेगा। अफसोस खैर अब क्या करना चाहिये, जबान से जो बात निकल गई वह तो लौट नहीं सकती। तब? मुझे अपने बचाव के लिए शीघ्र ही कोई तरकीब सोचनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि इन्दुमति, कला और बिमला घूमती-फिरती इस समय यहाँ आ पहुँचे यदि ऐसा हुआ तो बहुत ही बुरा होगा। मेरी कलई खुल जायगी और मैं तुरन्त ही मारा जाऊँगा। यदि मैं उन सभी को बदनाम न किये होता तो इतना डर न था।

इसी तरह की बातें सोचते हुए रामदास का दिल बड़ी तेजी के साथ उछल रहा था, वह बड़ी बेचैनी से प्रभाकरसिंह की सूरत देख रहा था।

बहुत देर तक तरह-तरह की बातें सोचते हुए प्रभाकरसिंह ने पुनः नकली हरदेई से सवाल किया-

प्रभाकरसिंह : अच्छा यह तो बता कि कला और बिमला किसी विषय में किसी दिन तुझसे रंज भी हुई थीं?

हरदेई : (मन में) इस सवाल का क्या मतलब? (प्रकट) नहीं अगर कभी कुछ रंज हुई थीं तो केवल उसी विषय में जो आपसे बयान कर चुकी हूँ।

इस जवाब को सुनकर प्रभाकरसिंह चुप हो गये और फिर कुछ गौर करके बोले, ‘‘खैर कोई बात नहीं देखा जायगा, यह जगत ही कर्म-प्रधान है, जो जैसा करेगा वैसा फल भोगेगा। यदि वे तीनों इस तिलिस्म के अन्दर हैं तो मैं उन्हें जरूर खोज निकालूँगा, तू सब्र कर और मेरे साथ-साथ रह।’’

इतना कहकर प्रभाकरसिंह ने फिर वही छोटी किताब निकाली और पढ़ने लगे जिसे इस तिलिस्म के अन्दर घुसने के पहिले एक दफे पढ़ चुके थे।

प्रभाकरसिंह घंटे भर से ज्यादे देर तक वह किताब पढ़ते रहे और तब तक रामदास बराबर उनके चेहरे की तरफ गौर से देखता रहा। जब वे उस किताब में अपने मतलब की बात अच्छी तरह देख चुके तब यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि ‘कोई चिन्ता नहीं, यहाँ हमारे लिए खाने-पीने का सामान बहुत कुछ मिल जायगा और हम उन सभी को जल्द ही खोज निकालेंगे। (नकली हरदेई) आ तू भी हमारे साथ चली आ।’

रामदास उस किताब के पढ़ने और इन शब्दों के कहने से समझ गया कि उस किताब में जरूर इस तिलिस्म का ही हाल लिखा हुआ है, अगर किसी तरह वह किताब मेरे हाथ लग जाए तो सहज में ही मैं यहाँ से निकल भागूँ बल्कि और भी बहुत सा काम निकालूँ।

रामदास अर्थात् नकली हरदेई को साथ लिए हुए प्रभाकरसिंह उसी जंगल में घुस गये और दक्षिण झुकते हुए पूरब की तरफ चल निकले। आधे घण्टे तक बराबर चले जाने के बाद उन्हें एक बहुत ऊँची दीवार मिली जिसकी लम्बाई का वे कुछ अन्दाज नहीं कर सकते थे और न इसकी जाँच करने की उन्हें कोई जरूरत ही थी। इस दीवार में बहुत दूर तक ढूँढ़ने के बाद उन्हें एक छोटा-सा दरवाजा दिखाई दिया। वह दरवाजा लोहे का बना हुआ था मगर उसमें ताला या जंजीर वगैरह का कुछ निशान नहीं दिखाई देता था।

रामदास का ध्यान किसी दूसरी तरफ था तथा वह जानना चाहता था कि यह दरवाजा क्योंकर खुलता है, परन्तु प्रभाकरसिंह ने उसे खोलने के लिए जो कुछ कार्रवाई की वह देख न सका यकायक दरवाजा खुल गया और प्रभाकरसिंह ने उसके अन्दर कदम रक्खा तो रामदास को भी अपने साथ आने के लिए कहा।

प्रभाकरसिंह और रामदास दरवाजे के अन्दर जाकर कुछ ही दूर आगे बढ़े होंगे कि दरवाजा पुनः ज्यों-का-त्यों बन्द हो गया। प्रभाकरसिंह एक ऐसे बाग में पहुँचे जहाँ केले और अनार के पेड़ बहुतायत के साथ लगे हुए थे और पानी का एक सुन्दर चश्मा भी बड़ी खूबसूरती के साथ चारों तरफ बह रहा था। इस बाग के अन्दर एक छोटा-सा बँगला भी बना हुआ था, जिसमें कई कोठरियाँ थीं और इस बंगले के चारों तरफ संगमरमर के चार चबूतरे बने हुए थे।

इस बाग में इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। प्रभाकरसिंह ने वहाँ के पके हुए स्वादिष्ट केले और अनार से पेट भरा और चश्मे का जल पीकर कुछ शान्त हुए तथा नकली हरदेई से भी ऐसा ही करने के लिए कहा।

जब आदमी की तबीयत परेशान होती है तो थोड़ी–सी भी मेहनत बुरी मालूम होती है और वह बहुत जल्द थक जाता है। प्रभाकरसिंह का चित्त बहुत ही व्यग्र हो रहा था और चिन्ता ने उदास और हताश भी कर दिया था अतएव आज थोड़ी ही मेहनत से थक कर वे एक संगमरमर के चबूतरे पर आराम करने की नियत से लेट गये और साथ ही निद्रादेवी ने भी उन पर अपना अधिकार जमा लिया।

यहाँ प्रभाकरसिंह ने बहुत ही बुरा धोखा खाया। नकली हरदेई की बातों ने उन्हें अधमरा कर ही दिया था और इस दुनिया से वे एक तौर पर विरक्त हो चुके थे, कारण यही था कि उन्होंने नकली हरदेई को पहचाना न था। अगर इन बातों के हो जाने के बाद भी वे जाँच कर लेते तो कदाचित सम्हल जाते परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया और नकली हरदेई को वास्तव में हरदेई मानकर अपने भाग्य का सब दोष समझ लिया, यही सबब था कि यहाँ पर भी वे रामदास की तरफ से बिल्कुल ही बेफिक्र बने रहे और चबूतरे पर लेट कर बेखिक्री के साथ खुर्राटे लेने लगे।

प्रभाकरसिंह को निद्रा के वशीभूत देखकर रामदास चौकन्ना हो गया, उसने ऐयारी के बटुए में से जिसे वह बड़ी सावधानी से छिपाये हुए था, बेहोशी की दवा निकाली और होशियारी से प्रभाकरसिंह को सुँघाया जब उसे विश्वास हो गया कि जब ये बेहोश हो गये तब उनकी जेब में से वह किताब निकाल ली जिसमें इस तिलिस्म का हाल लिखा हुआ था और जिसे प्रभाकरसिंह दो दफे पढ़ चुके थे।

किताब निकाल कर उसने बड़े गौर से थोड़ा-सा पढ़ा तब बड़ी प्रसन्नता के साथ सिर हिला कर उठ खड़ा हुआ और दिल्लगी के ढंग पर बेहोश प्रभाकरसिंह को झुक कर सलाम करता हुआ एक तरफ को चला गया।

बेहोशी का असर दूर हो जाने पर जब प्रभाकरसिंह की आँखे खुली तो वे घबड़ा कर उठ बैठे और बेचैनी से चारों तरफ देखने लगे। आसमान की तरफ निगाह दौड़ाई तो मालूम हुआ कि सूर्य भगवान का रथ अस्ताचल को प्राप्त कर चुका है परन्तु अन्धकार को मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती, वह केवल दूर ही से ताक-झांक रहा है हरदेई को जब देखना चाहा तो निगाहों की दौड़-धूप से उसका कुछ भी पता न लगा तब वे लाचार होकर उठ बैठे और उसे इधर-उधर ढूँढने लगे, परन्तु बहुत परिश्रम करने पर भी उसका पता न लगा, आखिर वे पुनः उस चबूतरे पर बैठ कर तरह-तरह की बातें सोचने लगे।

‘‘ हरदेई कहाँ चली गई। इस बाग में जहाँ तक सम्भव था अच्छी तरह खोज चुका मगर उसका कुछ भी पता न लगा। तब वह गई कहाँ? इस बाग के बाहर हो जाना तो उसके लिए बिल्कुल ही असम्भव है, तो क्या उसे किसी तरह की मदद मिल गई? मगर मदद भी मिली होती या कोई उसका दोस्त यहाँ आया होता तो भी बिना मेरी आज्ञा के उसे यहाँ से चले जाना मुनासिब न था (अपना सर पकड़ के) ओफ, सर में बेहिसाब दर्द हो रहा है। मालूम होता है कि जैसे किसी ने बेहोशी की दवा का मुझ पर प्रयोग किया हो ठीक है बेशक यह सरदर्द उसी ढंग का है तो यह हरदेई की सूरत में वह कोई ऐयार तो नहीं था जिसने मुझे धोखा दिया हो। (घबराहट के साथ जेब टटोल के) आह वह किताब तो जेब में है ही नहीं! क्या कोई ले गया? या हरदेई ले गई? ( पुनः उस किताब को अच्छी तरह खोज कर) हैं।

वह किताब निःसन्देह गायब हो गई और ताज्जुब नहीं कि वही किताब की मदद पाकर यहाँ से चला गया हो अगर वास्तव में ऐसा हुआ तो बहुत ही बुरा हुआ और मैंने बेढब धोखा खाया, लेकिन अगर वह वास्तव में कोई ऐयार था तो कला बिमला और इन्दुमति वाली बात भी उसने झूठ ही कही होगी ऐसी अवस्था में मैं उसका पता लगाये बिना नहीं रह सकता और इस काम में सुस्ती करना अपने हाथ से अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना है।’’

इत्यादि बातों को सोच कर प्रभाकरसिंह पुनः उठ खड़े हुए और नकली हरदेई को खोजने लगे। अबकी दफे उनका खोजना बड़ी सावधानी के साथ था यहाँ तक कि एक-एक पेड़ के नीचे जा और खोज-खोज कर वे उसकी टोह लेने लगे यकायक केलों के झुरमुट में उन्हें कोई कपड़ा दिखाई दिया जब उसके पास गये और अच्छी तरह देखा तो मालूम हुआ कि वह हरदेई का कपड़ा है मुलाकात होने के समय वह यही कपड़ा पहिने हुए थी और भी अच्छी तरह देखने पर मालूम हुआ कि साड़ी का एक भाग है और खून से तर हो रहा हैं। वहाँ जमीन और पेड़ों के निचले हिस्से पर भी खून के छींटे दिखाई दिये।

अब प्रभाकरसिंह का खयाल बदल गया और वह सोचने लगे कि क्या यहाँ कोई हमारा दुश्मन आ पहुँचा और हरदेई उसके हाथ से मारी गई या जख्मी हुई! ताज्जुब नहीं कि वह हरदेई को गिरफ्तार भी कर ले गया हो। परन्तु यहाँ दूसरे आदमी का आना बिल्कुल ही असम्भव है?

हाँ हो सकता है कि कला, बिमला और इन्दु यहाँ पहुँची हों और उन्होंने हरदेई को दुश्मन समझ के उसका काम तमाम कर दिया हो? ईश्वर ही जाने यह क्या मामला है, पर वह तिलिस्मी किताब मेरे कब्जे से निकल गई, यह बहुत ही बुरा हुआ।

इत्यादि बातें सोचते हुए प्रभाकरसिंह बहुत ही परेशान हो गये वे और भी धूम-फिर कर हरदेई के विषय में कुछ पता लगाने का उद्योग करते परन्तु रात की अन्धेरी घिर आने के कारण कुछ भी न कर सके। साथ ही इसके सर्दी भी मालूम होने लगी और आराम करने के लिए वे आड़ की जगह तलाश करने लगे।

आज की रात प्रभाकरसिंह ने उसी बाग के बीच वाले बँगले में बिताई और तरह-तरह की चिन्ता में रात-भर जागते रहे। तिलिस्मी किताब के चले जाने का दुःख तो उन्हें था ही परन्तु इस बात का खयाल उन्हें बहुत ज्यादे था कि अगर वह किताब किसी दुश्मन के हाथ में पड़ गयी होगी तो वह इस तिलिस्म में पहुँचकर बहुत कुछ नुकसान पहुँचा सकेगा और यहाँ की बहुत-सी अनमोल चीजें भी ले जायगा।

यद्यपि वह किताब इस तिलिस्म की चाभी न थी और न उसमें यहाँ का पूरा-पूरा हाल ही लिखा हुआ था तथापि वह यहाँ के मुख्तसर हाल का गुटका जरूर थी और उसमें बहुत सी बातें इन्द्रदेव ने जरूरी समझ कर नोट करा दी थीं प्रभाकरसिंह उसे कई दफे पढ़ चुके थे परन्तु फिर भी उसके पढ़ने की जरूरत थी। इसी समय अपनी भूल से वे शर्मिन्दा हो रहे थे और सोचते थे कि इस विषय में इन्द्रदेव के सामने मुझे बेबकूफ बनना पड़ेगा।

ज्यों-त्यों कर के रात बीत गई सवेरा होते ही प्रभाकरसिंह बँगले के बाहर निकले मामूली कामों से छुट्टी पाकर चश्में के जल से स्नान किया और सन्ध्या-पूजा करके पुनः बंगले के अंदर चले गए। कई कोठरियों में घूमते-फिरते वे एक ऐसी कोठरी में पहुँचे जिसकी लम्बाई-चौड़ाई यहाँ की सब कोठरियों से ज्यादे थी। यहाँ चारों तरफ की दीवारों में बड़ी-बड़ी अलमारियाँ बनी हुई थीं और उन सभी के ऊपर नम्बर लगे थे।

सात नम्बर की अलमारी उन्होंने किसी गुप्त रीति से खोली और उसके अन्दर चले गये नीचे उतर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं अस्तु उसी राह से प्रभाकरसिंह नीचे उतर गए और एक दालान में पहुँचे।

बटुए में से मोमबत्ती निकालकर रोशनी की तो मालूम हुआ कि यह दालान लम्बा-चौड़ा है और यहाँ की जमीन में बहुत-सी लोहे की नालियाँ बनी हुई हैं जो सड़क का काम देने वाली हैं तथा उन पर छोटी-छोटी बहुत-सी गाड़ियाँ रक्खी हुई हैं जिन पर सिर्फ एक आदमी के बैठने की जगह है दालान के चारों तरफ दीवारों में बहुत-से रास्ते बने हुए हैं जिनमें से होकर के वे सड़के न-मालूम कहाँ तक चली गई हैं।

गौर से देखने पर प्रभाकरसिंह को मालूम हुआ कि उन छोटी-छोटी गाड़ियों पर पीठ की तरफ नम्बर लगे हुए हैं और उन नम्बरों के नीचे कुछ लिखा हुआ भी है प्रभाकरसिंह बड़ी उत्कण्ठा से पढ़ने लगे। एक गाड़ी पर लिखा हुआ था ‘जमानिया दुर्ग’ दूसरी पर लिखा था ‘खास बाग’ तीसरी पर लिखा हुआ था, ‘चुनाव विक्रमी केन्द्र’ चौथी पर लिखा हुआ था ‘केन्द्र’ इसी तरह किसी पर ‘मुकुट’ किसी पर सूर्य और किसी पर ‘सभा-मण्डप’ लिखा हुआ था, मतलब यह है कि सभी गाड़ियों पर कुछ-न-कुछ लिखा था प्रभाकरसिंह एक गाड़ी के ऊपर सवार हो गए जिसकी पीठ पर ‘चन्द्र’ लिखा हुआ था।

सवार होने के साथ ही वह गाड़ी चलने लगी, दालान के बाहर हो जाने पर मालूम हुआ कि वह किसी सुरंग के अन्दर जा रही है, जैसे-जैसे वह गाड़ी आगे बढ़ती जाती थी तैसे-तैसे उसकी चाल भी तेज होती जाती थी और हवा के झपेटे भी अच्छी तरह लग रहे थे। यहाँ तक कि उनके हाथ की मोमबत्ती बुझ गई और हवा के झपेटों से मजबूर होकर उन्होंने अपनी दोनों आँखें बन्द कर लीं।

आधे घण्टे तक तेजी के साथ चले जाने के बाद गाड़ी एक ठिकाने पहुँच कर रुक गई। प्रभाकरसिंह ने आँखें खोल कर देखा तो उजाला मालूम हुआ वे गाड़ी से नीचे उतर पड़े और गौर से चारों तरफ देखने लगे। वह स्थान ठीक उसी तरह का था जैसा कि कला और बिमला के रहने का स्थान था और उसे देखते ही प्रभाकरसिंह को शक हो गया कि हम पुनः उसी ठिकाने पहुँच गए जहाँ कला और बिमला से मुलाकात हुई थी। परंतु वहाँ की जमीन पर पहुँचकर उनका खयाल बदल गया और वे दूसरी निगाह से उस स्थान को देखने लगे।

यहाँ भी ठीक उसी ढंग का एक बँगला बना हुआ था जैसाकि कला और बिमला के रहने वाली घाटी में था मगर इसके पास मौलसिरी (मालश्री) के पेड़ न थे दक्षिण तरफ पहाड़ के ऊपर चढ़ जाने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई दे रही थीं और जहाँ पर वह सीढ़ियाँ खत्म हुई थीं वहाँ एक सुन्दर मन्दिर बना हुआ था जिसके ऊपर का सुनहरा शिखर ध्वजा और त्रिशूल सू्र्य की रोशनी पड़ने से बड़ी तेजी के साथ चमक रहा था।

जब प्रभाकरसिंह गाड़ी से नीचे उतर पड़े तो वह गाड़ी पीछे की तरफ उसी तेजी के साथ चली गई जिस तेजी के साथ यहाँ आई थी।

प्रभाकरसिंह चारों तरफ अच्छी तरह देखने के बाद दक्षिण तरफ वाली पहाड़ी के नीचे चले गये और सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, जब तमाम सीढ़ियाँ खतम कर चुके तब उस मन्दिर के अन्दर जाने वाला फाटक मिला अस्तु प्रभाकरसिंह उस फाटक के अन्दर चले गये।

इस पहाड़ी के ऊपर चढ़ने वाला इस मन्दिर के अन्दर आने के सिवाय और कहीं भी नहीं जा सकता था क्योंकि मन्दिर के चारों तरफ बहुत दूर तक फैली हुई ऊँची-ऊँची जालीदार चारदीवारी थी जिसके उत्तर तरफ सिर्फ एक फाटक था जो इन सीढ़ियों के साथ मिला हुआ था अर्थात इस सिलसिले की कई सीढ़ियाँ फाटक के अन्दर तक चली गई थीं। सीढ़ियों के अगल-बगल से भी कोई रास्ता या मौका ऐसा न था जिसे लाँघ या कूद कर आदमी दूसरी तरफ निकल जा सके। यह पहाड़ बहुत बड़ा और ऊपर से प्रशस्त था बल्कि यह कह सकते हैं कि ऊपर से कोसों तक चौड़ा था परन्तु इस मन्दिर में से न तो कोई उस तरफ जा सकता था और न उस तरफ से कोई इस मन्दिर के अन्दर आ सकता था।

प्रभाकरसिंह ने उस मन्दिर और चारदीवारी को बड़े गौर से देखा। मन्दिर के अन्दर किसी देवता की मूर्ति न थी केवल एक फौब्बारा बीचोंबीच बना हुआ था और दीवारों पर तरह-तरह की सुन्दर तस्वीरें लिखी हुई थीं, मन्दिर के आगे सभामण्डप में लोहे के बड़े-बड़े सन्दूक रक्खे हुए थे मगर उनमें ताले का स्थान बिल्कुल खाली था अर्थात यह नहीं जाना जाता था कि इसमें ताला लगाने को भी कोई जगह है या नहीं।

उन लोहे के सन्दूकों को भी अच्छी तरह देखते प्रभाकरसिंह मन्दिर के बाहर निकले और खड़े होकर कुछ सोच ही रहे थे कि उस जालीदार चारदीवारी के बाहर मैदान में मन्दिर की तरफ आती हुई कई औरतों पर निगाह पड़ी प्रभाकरसिंह घबड़ा कर दीवार के पास चले गए और इसके सुराखों में से उन औरतों को देखने लगे इस दीवार के सुराख बहुत बड़े-बड़े थे, यहाँ तक कि आदमी का हाथ बखूबी उन सूराखों के अन्दर जा सकता था, प्रभाकरसिंह ने देखा कि कला, बिमला और इन्दुमति धीरे-धीरे इसी मन्दिर की तरफ चली आ रही हैं और उन तीनों के चेहरे से हद दरजे की उदासी और परेशानी टपक रही है।

उस समय प्रभाकरसिंह को हरदेई वाली बात भी याद आ गई मगर क्रोध आ जाने पर भी उनका दिल उन तीनों के पास गये बिना बहुत बेचैन होने लगा। यद्यपि वे दीवार के पार जाकर उन सभों से मिल नहीं सकते थे तथापि सोचने लगे कि अब इन लोगों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए? हरदेई की जुबानी जो कुछ सुना है उसे साफ-साफ कह देना चाहिए या धीरे-धीरे सवाल करके उन बातों की जाँच करनी चाहिए।

धीरे-धीरे चल कर वे तीनों औरतें भी मन्दिर की दीवार के पास आ पहुँची और एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर इस तरह बातचीत करने लगीं।

इन्दु० : (कला से) बहिन, अभी तक समझ में नहीं आया कि हम लोग किस तरह इस तिलिस्म के अन्दर आकर फँस गईं।

कला : मेरी बुद्धि भी किसी बात पर नहीं जमती और न खयाल ही को आगे बढ़ने का मौका मिलता है अगर कोई दुश्मन भी हमारी घाटी में आ पहुँचा होता तो समझते कि यह सब उसी की कार्रवाई है मगर ...

बिमला : भला यह कैसे कह सकते हैं कि कोई दुश्मन वहाँ नहीं आया? अगर नहीं आया तो यह मुसीबत किसके साथ आई? हाँ यह जरूर कहेंगे कि प्रकट में सिवाय प्रभाकरसिंह जी के और कोई आया हुआ मालूम नहीं हुआ और न इसी बात का पता लगा कि हमारी लौंडियों में से किसी की नीयत खराब हुई या नहीं।

इन्दु० : (लम्बी साँस लेकर) हाय! इस बात का भी कुछ पता नहीं लगा कि उन पर (प्रभाकरसिंह) क्या बीती? एक तो लड़ाई में जख्मी होकर वे स्वयं कमजोर हो रहे थे, दूसरे यह नई आफत और आ पहुँची! ईश्वर ही कुशल करे!

बिमला : हाँ बहिन, मुझे भी जीजाजी के विषय में बड़ी चिन्ता लगी हुई है परन्तु साथ ही इसके मेरे दिल में इस बात का भी बड़ा ही खटका लगा हुआ है कि उन्होंने बदन खोल कर अपने जख्म जो घोर संग्राम में लगे थे हम लोगों को क्यों नहीं देखने दिये! इसके अतिरिक्त हम लोगों के भोजन में बेहोशी की दवा देने वाला कौन था? इस बात को जब मैं विचारती हूँ... (चौंक कर) इस चारदीवारी के अन्दर कौन है?

कला : अरे, यह तो जीजाजी मालूम पड़ते हैं!

बात करते-करते बिमला की निगाह मन्दिर की चारदीवारी के अन्दर जा पड़ी जहाँ प्रभाकरसिंह खड़े थे और नजदीक होने के कारण इन सभों की बातें सुन रहे थे, दीवार के जालीदार सुराख बहुत बड़े होने के कारण इनका चेहरा बिमला को अच्छी तरह दिखाई दे गया था।

कला, बिमला और इन्दु लपक कर प्रभाकरसिंह के पास आ गईं, प्रभाकरसिंह भी अपने दिल का भाव छिपा कर इन लोगों से बात करने लगे।

प्रभाकर : तुम तीनो यहाँ किस तरह आ पहुँचीं? मैं तुम लोगों की खोज में बहुत दिनों से बेतरह परेशान हो रहा हूँ। लड़ाई से लौट कर जब मैं तुम्हारी घाटी में गया तो उसे बिल्कुल ही उजाड़ देख कर मैं हैरान रह गया।

इन्दु० : यही बात मैं आपसे पूछने वाली थी मगर...

बिमला : ताज्जुब की बात है कि आप कहते हैं कि लड़ाई से लौटकर जब उस घाटी में आये तो उसे बिल्कुल उजाड़ पाया। क्या लड़ाई से लौटने के बाद आप हम लोगों से नहीं मिले? और आपको घायल देख कर हम लोगों ने इलाज नहीं करना चाहा? या यह कहिए कि आपका जख्मी घोड़ा आपको लड़ाई में से बचा कर भागता हुआ क्या हमारी घाटी के बाहर तक नहीं आया था?

प्रभा० : न मालूम तुम क्या कह रही हो? मैं लड़ाई से भाग कर नहीं आया बल्कि प्रसन्नता के साथ महाराज सुरेन्द्रसिंह से विदा होकर तुम्हारी तरफ आया था।

इन्दु० : (ऊँची साँस लेकर) हाय। बड़ा ही अनर्थ हुआ! हम लोग बेढब धोखे में डाले गये? हाय, आपका जख्मों को छिपाना हमें खटके में डाल चुका था परन्तु प्रेम! तेरा बुरा हो! तूने ही मुझे सम्हलने नहीं दिया।

प्रभा० : (मन में) मालूम होता है कि हरदेई का कहना ठीक है और कोई दूसरा गैर आदमी मेरी सूरत बन कर इन लोगों के पास जरूर आया था, परन्तु इन्दु के भाव से यह नहीं जाना जाता कि इसने जान-बूझ कर उसके साथ... अस्तु जो हो, संभव है कि यह अपने बचाव के लिए मुझे बनावटी भाव दिखा रही हो।

हाँ यह निश्चय हो गया कि हरदेई एकदम झूठी नहीं है, कुछ-न-कुछ दाल में काला अवश्य हैं, (प्रकट) मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रही हो, खुलासा कहो तो मालूम हो और विचार किया जाय कि मामला क्या है? क्या तुम्हारे कहने का वास्तव में यही मतलब है कि मैं लड़ाई से लौट कर तुम लोगों से मिल चुका हूँ?

इन्दु० : बेशक! आपका जख्मी घोड़ा आपके शरीर को बचाता हुआ वहाँ तक ले आया था और हम लोग आपको जबकि आप बिल्कुल बेहोश थे उठा कर घाटी के अन्दर ले आए थे।

प्रभा० : मगर ऐसा नहीं हुआ, हरदेई ने तुम लोगों का पर्दा खोलते समय यह भी कहा था कि कोई गैर आदमी प्रभाकरसिंह बन कर इस घाटी में आया था और बहुत दिनों तक इन्दुमति ने उनके साथ...

इन्दु० : (बात काट कर) क्या यह बात हरदेई ने आपसे कही थीं?

प्रभा० : हाँ बेशक! साथ ही इसके (बिमला की तरफ देख के) तुम लोगों के गुप्त प्रेम का हाल भी हरदेई ने मुझसे कह दिया था।

इन्दु० : हाय! अब मैं क्या करूँ? (आसमान की तरफ देख के) हे सर्वशक्तिमान जगदीश! तू ही मेरा न्याय करने वाला है?

बिमला : मालूम होता है कि हरदेई ने मेरे साथ दुश्मनी की।

प्रभा० : बेशक।

बिमला : और उसी ने घाटी में आपसे मिल कर...

प्रभा० : (बात काट कर) नहीं, वह मुझसे घाटी में नहीं मिली बल्कि तुम लोगों की सताई हुई हरदेई इसी तिलिस्म के अन्दर मुझसे मिली थी। बेशक उसने तुम लोगों का भण्डा फोड़ के तुम लोगों के साथ बड़ी दुश्मनी की मगर वह ऐसा क्यों न करती? तुम लोगों ने भी तो उसके साथ बड़ी बेदर्दी का बर्ताव किया था।

प्रभाकरसिंह के मुँह से इतना सुनते ही कला बिमला और इन्दुमति ने अपना माथा ठोंका और इसके बाद इन्दुमति ने एक लम्बी साँस लेकर प्रभाकरसिंह से कहाँ ‘‘अगर मुझमें सामर्थ्य होती तो मैं जरूर अपना कलेजा फाड़ कर आपको दिखाती, हाँ, जरूर दिखाती, नहीं-नहीं दिखाऊँगी, मेरे में इतनी सामर्थ्य है, परन्तु अफसोस! हम लोगों के पास इस समय कोई हर्बा नहीं है, और आप ऐसी जगह खड़े हैं जहाँ..

बिमला : अच्छा कोई चिन्ता नहीं जिसने धर्म को नहीं छोड़ा है ईश्वर उसका मददगार है! आप पहिले हम लोगों के पास आइए फिर जो कुछ होगा देखा जाएगा।

प्रभा० : मैं भी यही चाहता हूँ परन्तु क्योंकर तुम लोगों के पास आ सकता हँद यह विचारने की बात है।

बिमला : आप यदि उस सामने वाली पहाड़ी के ऊपर चढ़ते तो ऊपर ही ऊपर यहाँ तक आ जाते जहाँ मैं खड़ी हूँ और अब भी आप ऐसा कर सकते हैं या आज्ञा कीजिए तो हम लोग स्वयं उस राह से घूम कर आपके पास ..

बिमला और कुछ कहना ही चाहती थी कि राक्षस की तरह की भयानक सूरत का एक आदमी हाथ में नगी तलवार लिए हुए कला बिमला और इन्दुमति की तरफ आता प्रभाकरसिंह को दिखाई पड़ा क्योंकि वह तीनों के पीछे की तरफ से आ रहा था जिधर प्रभाकरसिंह का सामना पड़ता था।

प्रभाकरसिंह : (ताज्जुब के साथ) बिमला, क्या बता सकती हो कि वह आदमी कौन है जो तुम लोगों की तरफ आ रहा है?

बिमला कला और इन्दुमति ने घबड़ा कर पीछे की तरफ देखा और तीनों एकदम चिल्ला उठीं, बिमला ने चिल्लाते और आँसू गिराते हुए प्रभाकरसिंह से कहा, बचाइए बचाइए, आप जल्दी यहाँ आकर हम लोगों की रक्षा कीजिए, यही दुष्ट हम लोगों के खून का प्यासा है।’’

इतना कहकर वे वहाँ से भागने की चेष्टा करने लगीं परन्तु भाग कर जा ही कहाँ सकती थीं बात की बात में वह दुष्ट इन तीनों के पास आ पहुँचा और अपनी जलती हुई क्रोध से भरी आँखों से बिमला की तरफ देख कर बोलाः ‘क्यों कम्बख्त! अब बता कि तू मेरे हाथ से बच कर कहाँ जा सकती है? आज मैं तुम लोगों के खून से अपनी प्यासी तलवार को सन्तुष्ट करूँगा और...’’

बस इससे ज्यादे उसने क्या कहा सो प्रभाकरसिंह सुन न सके और न सुनने के लिए वे वहाँ खड़े रह सके। इस पहाड़ी के नीचे उतर कर और सामने वाले पहाड़ पर चढ़ कर ऊपर उन लोगों के पास पहुँचने की नीयत से प्रभाकरसिंह दौड़े और तेजी के साथ सीढ़ियाँ उतरने लगे।

प्रभाकरसिंह का मन इस समय बहुत ही व्यग्र हो रहा था और वे सोचते जाते थे कि क्या वहाँ पहुँचते तक मैं उन तीनों को जीती पाऊँगा और क्या वह दुष्ट मेरा मुकाबला करने के लिए वहाँ मुझे तैयार मिलेगा?

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