ई-पुस्तकें >> 1857 का संग्राम 1857 का संग्रामवि. स. वालिंबे
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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन
ह्यूरोज ने झांसी शहर की मजबूत घेराबंदी की थी। उसने बेतवा नदी के किनारे कुछ टुकड़ियां तैनात की। अब तात्या टोपे को रोकना आसान हो गया था। तात्या टोपे के सिपाही नदी के उस पार से अंग्रेजों पर गोली दागने लगे। ह्यूरोज ने गोली का जवाब तोप से दिया। तात्या को आगे बढ़ना मुश्किल हो गया। कुछ ही दिनों के भीतर तात्या टोपे को बेतवा नदीं का किनारा छोड़ना पड़ा। तात्या के हट जाने से ह्यूरोज को जोश आ गया। 2 मार्च को झांसी पर चढ़ाई के लिए वह फिर तैयार हुआ। ह्यूरोज झांसी की रानी को गिफ्तार करने के लिए बेसब्र था।
अब रानी का किले में रहना खतरे से खाली नहीं रह गया था। घोड़े पर सवार रानी ने रात को किलेबंदी की दीवार से छलांग लगा दी। अंग्रेज सिपाहियों का घेरा तोड़कर रानी शहर के बाहर निकल पड़ीं। अब वह कालपी पहुंच गयीं। वहां रानी को खबर मिली कि ह्यरोज उसे पकड़ने बड़ी फौजकर लेकर आ रहा है। उन्होंने कालपी छोड़कर ग्वालियर के पास गोपालपुर में शरण ली। वहां उनसे तात्या टोपे आकर मिला। ग्यारह हजार सिपाहियों की फौज और बारह तोपें लेकर रानी ग्वालियर की ओर निकल पड़ीं। बीच रास्ते में ही ‘कोटे की सराय’ में रानी की फौज अंग्रेज सिपाहियों के साथ भिड़ गयी। वहां घमासान लड़ाई हुई। दोनों तरफ के सिपाही घायल हो रहे थे। हर सिपाही में लड़ाई का जोश भर गया था।
अपने सिपाहियों का धीरज बंधाती हुई रानी मैदान में दौड़ रही थीं। अचानक रानी को एक गोली लगी। खून की धारा बह निकली। जख्मी रानी घोड़ा लेकर मैदान से बाहर आ गयीं। एक आश्रम के बैरागियों ने उनका दवा-पानी किया। फिर भी रानी के जख्मों से खून बहना जारी रहा। वह बेहोश हो गयीं। कुछ ही समय बाद झांसी की उस मर्दानी वीरबाला रानी लक्ष्मीबाई के प्राणपखेरू उड़ गये। सूरज ढल रहा था। इसी समय आश्रम के पास चार-छह बैरागियों के सामने रानी के पार्थिव देह को अग्नि को समर्पित किया गया। वह दिन था—17 जून 1858। एक बिजली आसमान में विलीन हो गयी।
रानी की मौत की खबर सुनकर तात्या टोपे ने ग्वालियर छोड़ दिया। वह चंबल में राजपुताना चला गया। तात्या को उम्मीद थी कि राजपूत उसकी सहायता जरूर करेंगे। लेकिन राजपुताना का कोई नरेश कंपनी सरकार से विद्रोह करने को तैयार नहीं था।
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