ई-पुस्तकें >> 1857 का संग्राम 1857 का संग्रामवि. स. वालिंबे
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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन
1858 के फरवरी में कैंपबेल लखनऊ की ओर आगे बढ़ रहा था। उसके पैदल फौज में 17 बटालियन, घुड़सवारों की 28 टुकड़ियां और 134 तोपें शमिल थीं। कंपनी सरकार के इतिहास में पहली बार इतनी विशाल फौज को एकत्रित किया गया था। 2 मार्च के दिन कैंपबेल लखनऊ के पास दिलखुश पहुंचा। आउट्रम के सिपाही और बागी सिपाहियों के बीच आलमबाग में घमासान लड़ाई हुई। आलमबाग में बागी सिपाहियों की लाशें बिछ गयीं।
दिलखुश पर कब्जा कर लेने के बाद कैंपबेल ने सेना के दो भाग किये। फौज के एक भाग को आउट्रम को सौंपा गया। वह गोमती पार करके इस्माईलगंज की ओर कूच कर गया। आउट्रम वहां से होकर फैजाबाद रवाना हुआ। आगे चलकर उसकी फौज ने रास्ता बदल लिया और ‘चकार कोठी’ की ओर रुख किया।
फौज के दूसरे भाग का नेतृत्व कैंपबेल ने संभाल लिया था। वह पश्चिम दिशा की तरफ से कैसरबाग की ओर कूच कर गया। वहां पहुँचते ही बागी सिपाहियों ने उन पर गोली चलायी। इस गोलीबारी का जबाव कैंपबेल ने तोप चलाकर दिया। तोप गोले बरसने पर बागी सिपाही पीछे हट गये। अंग्रेज सिपाहियों ने उनका पीछा किया।
कंपनी सरकार की फौज के सामने बागी सिपाहियों की संख्या बहुत कम थी। बागी सिपाहियों को एक तरफ से आउट्रम ने तो दूसरी तरफ से कैंपबेल के सिपाहियों ने घेर लिया। बागी सिपाही प्रतिकार करने में असफल हुए। अब शरण लेना भी मुश्किल था।
अंग्रेज सिपाहियों में बदले की भावना भड़क उठी। बागी सिपाहियों को अपने अधिकारियों के पास सौंपने के बजाय उन्होंने उनका कत्ल करना शुरू किया। अंग्रेज सिपाही बदले की आग में पागल हो रहे थे। उन्होंने अनगिनत बागी सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। उनके घर जलाये गये जो बागी सिपाहियों को शरण देते थे। सभी जगहों पर अधजले मकान और खून के धब्बों से रंगी दीवारें नजर आ रही थीं।
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