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1857 का संग्राम

वि. स. वालिंबे

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8316
आईएसबीएन :9781613010327

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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन

दिल्ली शहर की सुरक्षा दीवार से आधे मील की दूरी पर हिंदूराव की हवेली बसायी गयी थी। विल्सन ने अपनी तोपें इस हवेली में लाकर बिठायी। हवेली के आसपास के इलाकों का मुआयना किया। उसे लगा कि दिल्ली पर हमला करने लायक यही सही जगह है। उसने वहीं पर अपनी कचहरी शुरू की। कामकाज के पहले दिन ही उसने मेजर रीड और मेजर स्मिथ के साथ विचार-विमर्श किया। दोनों निकल्सन से पहली बार मिल रहे थे। ‘पंजाब का शेर’ नाम से सुपरिचित बहादुर सेनानी निकल्सन से मिलने के लिए दोनों उत्सुक थे। निकल्सन ने दोनों के साथ बहुत कम बात की। इस पर मेजर रीड ने अपनी राय जाहिर की, ‘‘यह आदमी भले ही बहादुर है, लेकिन  घमंडी है। वह अपने को होशियार और दूसरों को मूर्ख समझता है।’’ स्मिथ ने रीड को समझाया, ‘‘यह हमारी पहली मुलाकात है। शायद दूसरी मुलाकात में वह खुलकर बात करेगा।’’

‘‘अगर ऐसा होता है, तो अच्छा ही होगा। लेकिन मेरी किसी आदमी के बारे में पहली राय कभी झूठ साबित नहीं होती। यह मेरा अनुभव है।’’

स्मिथ इस बात को आगे बढ़ाना नहीं चाहता था। रीड भी तो झूठ नहीं बोल रहा था। हिंदुस्तान में आये हुए निकल्सन को बीस साल हो गये थे। फिर भी अब तक वह यहां के लोगों से घुलमिल नहीं पाया था। देसी सिपाहियों के साथ उसका व्यवहार काफी सख्त रहता था। देसी सिपाही हमेशा आपस में बातें करते, ‘‘ईश्वर इस पत्थरदिल आदमी को कलेजा देना भूल गया है।’’

11 मई 1858 के दिन दिल्ली में जो दंगा-फसाद हुआ था, उससे यह घमंडी आदमी बिगड़ गया था। पेशावर के कमिश्नर हर्बर्ट एडवर्ड्स को लिखे पत्र में उसने लिखा था— ‘‘इन लोगों की यह मजाल कि वे हमारे लोगों पर हाथ उठायें? ये सब जंगली लोग हैं। मैंने सुना है कि हमारी सरकार इन लोगों को पेड़ पर लटकाकर फांसी दे रही है। मेरी राय है कि इन गुनहगारों को यह सजा कुछ भी नहीं है। मैं इन बदमाशों की खाल छुरी से उधेड़ना चाहता हूं। उनको जिंदा जलाना चाहिए। अगर मुझे इजाजत मिले तो मैं पीछे नहीं हटूंगा।’’

एडवर्ड्स ने यह पत्र कलकत्ता भेज दिया। यह पत्र पढ़कर कलकत्ता मुख्यालय ने फैसला किया कि दिल्ली की मुहिम निकल्सन को सौंपी जाय। निकल्सन के आते ही हिंदूराव की तोपें दिल्ली की ओर आग बरसाने लगीं। कुछ अंग्रेज सिपाही बागी सिपाहियों की नजर चुराकर दिल्ली में घुस जाते थे। और किसी मकान में छिपे बागी सिपाही को बंदूक की संगीन से खत्म कर देते थे। अंग्रेज सिपाही के हाथ में बंदूक देखकर बागी सिपाही डर जाते थे। इसी दौरान कुछ देसी सिपाही हिंदूराव की हवेली में घुसे गये और वहां बेखबर अंगेज सिपाहियों पर हमला किया।

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