ई-पुस्तकें >> 1857 का संग्राम 1857 का संग्रामवि. स. वालिंबे
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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन
दिल्ली में उपद्रव
दिल्ली में दिनभर दंगा-फसाद होता रहा। इससे परेशान होकर अंग्रेजों ने दिल्ली के बाहर एक पहाड़ी पर पनाह ली। खुले मैदान में तंबू लगाया गया था। आलीशान जिंदगी जीनेवाले अंग्रेज निर्वासित की तरह दयनीय जीवन बिता रहे थे। सभी को घर की याद सता रही थी।
दिल्ली में दंगा-फसाद शुरू हुए बहुत दिन गुजर गये। जून गुजर गया, जुलाई आ गया। फिर भी अंग्रेजों के हाथ दिल्ली नहीं आ रही थी। भीषण गर्मी के बाद मूसलाधार बारिश में अंग्रेजों के बुरे हाल हुए। पहाड़ी से दिल्ली नजर आ रही थी, लेकिन वहां पहुंचना नामुमकिन था। दिल्ली पर कब्जा करने वाले सिपाहियों की तादाद उनसे कहीं ज्यादा थी। कलकत्ता से विल्सन को संदेश भेजा गया—‘‘दिल्ली पर जल्द हमला करें, अन्यथा स्थिति और बिगड़ जायेगी।’’
विल्सन अब हताश हुआ जा रहा था। बाहर से किसी भी प्रकार की मदद नहीं मिल रही थी। पहाड़ी पर जा बसे अंग्रेज और बागी सिपाहियों के बीच कभी-कभार गोलीबारी होती रही। दोनों तरफ के लोग घायल हो रहे थे। कुछ समय के लिए सन्नाटा छा जाता था।
कर्नल जोंस की छठी पलटन पर विल्सन की उम्मीद टिकी हुई थी। जून में हुए हादसे में बागी सिपाहियों ने पलटन के एक सौ पैंसठ सिपाहियों को गोली से भून दिया था। विल्सन चिंतित हुआ। अगर इसी तरह उसके सिपाही मारे जाते रहे तो लड़ाई जीतना मुश्किल हो जायेगा। वह अपनी पत्नी से कह रहा था, ‘‘मेरा सिर चकरा रहा है। अब हमारा क्या होगा? समझ में नहीं आता।’’ विल्सन दिन भर किसी पल्टन की मदद की राह ताकता रहा।
कैप्टन हेनरी डेली पंजाब से टुकड़ी लेकर दिल्ली पहुंचा। उसके घुड़सवारों ने कमाल किया था। चार सौ अस्सी मील का फासला सिर्फ एक सौ बीस दिनों में पार किया। विल्सन ने डेली से पूछा, ‘‘आपके सिपाही थके हुए नजर आ रहे हैं। लड़ाई के लिए आप कब तैयार हो जायेंगे?
‘‘सिर्फ आधे घंटे में।’’
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