ई-पुस्तकें >> 1857 का संग्राम 1857 का संग्रामवि. स. वालिंबे
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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन
एक दिन लॉरेंस अपनी कचहरी में काम कर रहा था। यकायक आग का एक गोला उसके टेबुल के पास आकर गिरा। कचहरी धुएं से भर गया। विल्सन ने देखा कि लॉरेंस का पेट और बायीं जांघ पूरी तरह फट गयी है। उसने तुरंत अपने पद पर मेजर बैंक्स को कमिश्नर और कर्नल इंग्लिस को सेनानी के पद पर नियुक्त किया। लॉरेंस के बचने की उम्मीद बिलकुल नहीं थी। 4 जुलाई को लॉरेंस की मौत हो गयी।
लॉरेंस की मौत के बाद चौबीस बीघा परिसर में अवस्थित रेजिडेंसी में खलबली मच गयी। कर्नल इंग्लिस ने घटना के बारे में सिपाही के हाथ संदेश भेज दिया। जवाब में हैवलॉक ने लिखा था—‘‘हम एक महीने तक लखनऊ पहुंच नहीं पायेंगे।’’
इधर रेजिडेंसी के सभी अंग्रेज नागरिक हैवलॉक की मदद की राह ताक रहे थे। लखनऊ के अलावा आगरा ने भी हैवलॉक से मदद मांगी थी। लेकिन हैवलॉक दोनों जगहों पर मदद भेजने में लाचार था। इसी कशमकश के बीच नील ने खबर लायी, ‘‘नाना साहब पेशवा बिठूर के चार हजार सिपाहियों के साथ कानपुर पर हमला करने निकल पड़ा है। बिठूर के इलाके में नाना साहब पेशवा और हैवलॉक के सिपाहियों के बीच घमासान लड़ाई हुई। काफी देर तक दोनों तरफ से हमले होते रहे। आखिर हैवलॉक की जीत हुई। नाना साहब के सिपाही जंगल की ओर भाग निकले। बिठूर पर कब्जा करने के लिए हैवलॉक कानपुर की ओर निकल पड़ा। 4 अगस्त को उसे कलकत्ता से खत मिला। उसमें लिखा था—
‘‘कानपुर और दानापुर की सेना के लिए मेजर जनरल सर जेम्स आउट्रम को सेनानी पद पर नियुक्त किया जाता है।’’
इस पत्र मे हैवलॉक की वफादारी और बहादुरी के बारे में कोई जिक्र नहीं था। हैवलॉक नाराज हुआ। 15 सितंबर के दिन आउट्रम कानपुर पहुंचा। पदभार संभालने के तुरंत बाद उसने घोषणा की—‘‘लखनऊ मुहिम की बागडोर हैवलॉक संभाल लेंगे।’’
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