ई-पुस्तकें >> 1857 का संग्राम 1857 का संग्रामवि. स. वालिंबे
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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन
सभी ने दिल्ली की ओर कूच करने का निर्णय लिया। दूसरे दिन सुबह नाना साहब अपने सिपाहियों को लेकर पश्चिम दिशा की ओर चल पड़े। उनका पहला मुकाम कल्याणपुर में हुआ। नाना साहब के करीबी दोस्त अजीमुल्ला ने कहा, ‘‘श्रीमंत, आज्ञा हो तो मन की बात कहना चाहता हूँ’’
‘‘हां, जरूर कहिये।’’
‘‘आप दिल्ली न जायें तो बेहतर होगा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘वहां जाकर हम क्या करेंगे? सोचिये, अगर हमने दिल्ली पर कब्जा कर लिया, तो भी दिल्ली के तख्त पर बहादुरशाह को ही बिठाया जायेगा। वह आपको दीवान बनायेगा। इससे आपको क्या लाभ होगा?’’
‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’
‘‘मैं चाहता हूँ कि हम कानपुर लौट चलें। हमारे पास चार टुकड़ियों की फौज है। कानपुर की जनता आपको राजा मानती है। वो आपका साथ देंगी। हम फिरंगियों को देश से निकाल देंगे। दिल्ली का दीवान होने के बदले बिठूर का राजा होने में ज्यादा फायदा है।’’
अपनी राय बदलकर नाना साहब कानपुर की ओर अपनी सेना लेकर लौट पड़े। यह खबर सुनते ही मेजर जनरल व्हीलर कांप गया। नाना साहब की चार टुकड़ियों का सामना करना उसने नामुमकिन समझा। नाना साहब की पलटन ने कानपुर के बाहर अपना पड़ाव लगा दिया था। उसके पास तीन हजार दो सौ सिपाही और तीन सौ अंगरक्षकों की हथियारबंद फौज उपलब्ध थी। उसके विपरीत, व्हीलर के पास दो सौ अंग्रेज सिपाहियों की मामूली फौज थी। उसके अलावा चार सौ औरतें और बच्चे तथा पांच सौ पुरुष अंग्रेज भी मौजूद थे। इन दो सौ अंग्रेज सिपाहियों में से सौ से अधिक सिपाही दंगे में जख्मी हुए थे। सिपाहियों की सख्त कमी महसूस की जा रही थी। बैरक में मौजूद बंदूकों की बड़ी संख्या को देखकर व्हीलर निश्चिंत हो गया।
दूसरे दिन सुबह नाना साहब का तोपखाना बैरक की दिशा में गोले बरसा रहा था। डंकन होटल में नाना साहब ने डेरा जमाया हुआ था। वे वहां से इस हमले का संचालन कर रहे थे। नाना साहब के लिए यह लड़ाई निर्णायक थी। जीवन-मरण का सवाल था। कंपनी सरकार की ओर से कानपुर में रसद पहुंचने से पहले व्हीलर को पराजित करना आवश्यक था।
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