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1857 का संग्राम

वि. स. वालिंबे

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8316
आईएसबीएन :9781613010327

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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन

सरकार को देसी सिपाहियों पर विश्वास नहीं रह गया था। उनकी तरफ शक की निगाहों से देखा जा रहा था। यह बात देसी सिपाहियों को नागवार गुजरी। इस अपमान के कारण वे अब जिद पर उतर आये। आयुध गोदाम में जितने कारतूस मिले, उतने लेकर वे अपनी जेबों में भरने लगे। फिर वे पुल की ओर मार्च करने लगे। सबके मन में आजादी की उमंग लहरा रही थी। वे सभी नये-नये नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे। सभी सिपाही खुश नजर आ रहे थे। यह देखकर टायटलर और गार्डनर निश्चिंत हो गये। अब यह टुकड़ी पुल के पास गश्त लगा रही थी।

कुछ सिपाही गुट बनाकर एक जगह बैठे थे। पुल के नजदीक एक पुराना मकान था। मकान में कोई नहीं था। इसलिए टायटलर ने सिपाहियों को आदेश दिया, ‘‘आप लोग धूप में क्यों बैठे हैं? जाइये, उस मकान में जाकर बैठ जाइये।’’

‘‘नहीं, हम यहीं ठीक हैं।

टायटलर और गार्डनर आपस में बातचीत कर रहे थे। सिपाही की वर्दी पहना हुआ कोई अजनबी मकान में चोरी-छिपे घुस गया। उसके पीछे सभी देसी सिपाही मकान के भीतर चल पड़े। काफी देर तक सिपाही मकान से बाहर नहीं आया तो टायटलर को शक हुआ। मकान के अंदर छिपे अजनबी सिपाही को देखने टायटलर वहां पहुंचा। उसने देखा, वह सिपाही बाकी सिपाहियों के साथ बातचीत कर रहा था। टायटलर को देखते ही सभी सिपाही पिछले दरवाजे से शहर की ओर भाग गये। अब यह बात साफ हो गयी कि टायटलर और गार्डनर के सिपाहियों की बागी सिपाहियों के साथ मिलीभगत हो गयी थी। उनके टुकड़ियों के सिपाही कश्मीरी गेट की ओर बढ़ रहे थे। वे नारे लगा रहे थे—‘‘पृथ्वीराज की जय !’’

पृथ्वीराज यानी बहादुरशाह—दिल्ली का बादशाह, हिंदुस्तान का बादशाह।

बागी सिपाहियों को कश्मीरी गेट पर रोकना अंग्रेज सेनानियों को मुश्किल हो गया। अंग्रेज स्त्री-पुरुषों का धीरज खत्म हो रहा था। अब दिल्ली में रुकना मौत को बुलावा देने जैसी बात थी। शाम होने तक सभी अंग्रेज कालोनी सुनसान हो गयी। कर्नल व्हीलर को देखकर उनके जान में जान आयी।

वह 11 मई 1857 का दिन था। सूरज डूब रहा था। दिल्ली शहर पर बागी सिपाहियों ने अपना निशान लगा दिया था। उन्होंने सौ साल पहले प्लासी में हुए पराजय का बदला चुकाया था। यह एक विशेष अभियान था।

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