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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


कस्तूरीलाल को अपने मामा का घर देखकर बड़ी निराशा हुई थी। एक छोटा-सा मकान था, जिसकी पहली मंजिल पर एक अन्य परिवार रहता था और ऊपर की दो मंज़िलों में उसका मामा रहता था। ये बीच की मंजिल के एक कमरे में बैठे थे। मकान में बिजली तो थी, परन्तु आज किसी कारण बन्द होने से कमरे में अँधेरा था।

मोहिनी ने भूमि पर चटाई बिछाकर अपनी ननद और उसके लड़के को बैठाया था। कस्तूरीलाल ने खड़े-खड़े ही अपने चारों ओर देख उस स्थान को नापसन्द कर दिया। लक्ष्मी ने कहा, ‘‘बैठो कस्तूरी!’’

मोहिनी ने उसका भाव समझकर कहा, ‘‘बैठ जाओ भैया! यहाँ तो यह चटाई ही है।’’

‘‘मामी! बहुत अँधेरा है यहाँ तो?’’

‘‘हाँ, आज बिजली बन्द होने के कारण और भी अन्धकार हो गया है, अन्यथा कुछ तो दिखाई देता ही।’’

कस्तूरी इस ‘कुछ’ का अर्थ नहीं समझ सका। वह बैठ गया। मोहिनी ने चौके में जाकर बरतन में से एक मठरी निकाली और थाली में रखकर लड़के के सामने रख दी।

कस्तूरीलाल इस समय बारह वर्ष का हो गया था और उसको अपने माता-पिता के साथ बारहखम्भा रोड वाली कोठी पर रहते हुए तीन वर्ष हो चुके थे। उसका लाहौर वाला मकान भी पर्याप्त साफ-सुथरा और हवादार था, परन्तु नई दिल्ली की कोठी तो बहुत ही शानदार थी। उसकी तुलना में चरणदास का मकान तो अत्यन्त गन्दा और अन्धकारमय प्रतीत होता था। कस्तूरीलाल के बाल-मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।

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