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			 ई-पुस्तकें >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
 ‘‘जी नहीं। मैं तो समझी थी कि एक भले व्यक्ति का साथ मिल रहा है। आप जायँगे तो न जाने कौन अन्य यहाँ पर आ जाय।’’ 
 
 गजराज ने विचार किया कि स्त्री ठीक ही कहती है। उसने पूछ लिया, ‘‘आप कहाँ जा रही हैं?’’
 
 ‘‘लाहौर।’’
 
 ‘‘वहीं की रहने वाली हैं क्या?’’
 
 ‘‘जी नहीं। रहती तो मैं रायबरेली में हूँ। ये बीमार हैं। पता चला है कि लाहौर में एक मियाँमीर की दरगाह है। वहाँ की ज़ियारत करने से खुदा इनके गुनाह बख्श देगा। इसी उम्मीद पर इनको वहाँ ले जा रही हूँ।’’
 
 ‘‘आप इतमीनान से बैठिये। मैं अमृतसर जा रहा हूँ। ऊपर की एक बर्थ खाली है। अगर ठीक समझें तो एक टिकट और खरीद लेता हूँ जिससे कि सारा डिब्बा ही अपना हो जाय।’’
 
 ‘‘परन्तु मेरी तो इतनी तौफीक नहीं।’’
 
 ‘‘तब क्या हुआ?’’ इतना कह गजराज बाहर गया और एक फर्स्ट क्लास का अमृतसर का टिकट और खरीद लाया। उसने कण्डक्टर को कह दिया कि वह डिब्बे पर रिज़र्व लिख दे। इस कार्य के लिए एक रुपया पुरस्कार भी देना पड़ा। 
 			
		  			
						
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