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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


सन् १९१९ में नई दिल्ली के निर्माण के लिए ठेकेदारों की खोज हो रही थी। गजराज ने यत्न किया और उसका नाम ठेकेदारों की सूची में रजिस्टर हो गया। उसके बाद निरन्तर काम मिलता रहा। कुछ समय तक जब तक काम करने वाले कम थे और काम अधिक था, काम ईमानदारी से ही चलता रहा। सन् १९२२ तक ठेकेदारों की भरमार हो गई। मुकाबले पर टेण्डर दिये जाने लगे और सीमेन्ट में रेत मिलने लगा। बिल पास करवाने के लिए रिश्वत दी जाने लगी और प्रत्येक बात में घपला होने लगा।

गजराज के मन में भय होने लगा कि वह एक बेईमानी का कार्य तो छोड़कर आया है किन्तु अब दूसरा बेईमानी का कार्य करने लगा है। इस समय तक वह दिल्ली के धनी समाज में अच्छी स्थिति पर पहुँच गया था। इस समाज को वह अब छोड़ नहीं सकता था। इस कारण कोई ऐसा काम ढूढा जाने लगा, जिसमें बेईमानी न हो और आय अच्छी हो। गजराज के एक मित्र मिस्टर आनन्द थे। वे कम्पनी ऐक्ट के विशेषज्ञ थे। उनसे राय की गई तो बीमा कम्पनी खोलने की योजना बनने लगी।

जब कम्पनी का रजिस्ट्रेशन हो गया तो सेक्रेटरी की नियुक्ति पर विचार हुआ। सबसे अधिक हिस्से गजराज के थे। अतः उसकी राय मानकर चरणदास कपूर सेक्रेटरी नियुक्त हो गया। उसके साथ बीस वर्ष के लिए काम का वचन-पत्र हो गया।

गजराज चाहता था कि सेक्रेटरी अपने पक्ष का व्यक्ति हो तो धन के प्रयोग से अन्य काम सुविधा से चल सकेंगे। वैसा ही हुआ। गजराज हिन्दुस्तान के इने-गिने धनिकों में गिना जाने लगा। चरणदास भी अब लाखों में खेलने लगा था।

गजराज और चरणदास दोनों ही कानून और सूझ-बूझ के अनुसार नेकनीयती से कार्य कर रहे थे। फिर भी रुपये का चक्कर ऐसा था कि अनायास ही लाभ होता जाता था।

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