ई-पुस्तकें >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘इससे तुमको लाभ होगा, जो कि होना ही चाहिए।’’
चरणदास ने उस समय जान छुड़ाई। उसने कहा, ‘‘कल विचार करने के अनन्तर बताऊँगा।’’
परन्तु उसी सायंकाल जब वह मोहिनी के साथ लॉन में बैठकर इस बात पर विचार करने लगा, तो मोहिनी ने अपनी आशंका प्रकट करते हुए कहा, ‘‘जीजाजी ठीक ही तो कहते हैं, कहीं आप बीमार हो गए तो हमारा फिर क्या होगा? आप परीक्षाएँ देना चाहते हैं, इसके लिए परिश्रम भी करना ही पड़ेगा और वह मकान इतना स्वास्थ्यप्रद स्थान नहीं है।’’
‘‘तो तुम भी यही चाहती हो?’’
‘‘मैं तो केवल आपको चाहती हूँ और आपके शरीर पर आँच भी नहीं आने देना चाहती। मुझे कहेंगे तो लक्ष्मी बहिन की सेवा कर दिया करूँगी, जिससे उनका एहसान न रहे।’’
‘‘नहीं-नहीं, एहसान की बात नहीं है। मैं समझ नहीं पा रहा कि क्या करूँ।’’
‘‘मेरी राय तो यह है कि उस मकान को छोड़िये नहीं। यहाँ रहना आरम्भ कर दीजिये। यदि किसी भी प्रकार से मान-प्रतिष्ठा में कुछ हानि दिखाई दे तो यहाँ से चल देंगे।’’
चरणदास जब रात को जाने लगा तो लक्ष्मी ने उसको समझाया। उसके एक प्रलोभन और उपस्थित करते हुए कहा, ‘‘वहाँ तो पड़ोस में दिल्ली वाले ही रहते हैं। यहाँ तुम अपने घर वालों के साथ रहोगे, सुःख-दुःख में एक-दूसरे के साथी बनोगे और फिर अपने जीजाजी के साथ रहकर अपनी कुछ अवस्था भी सुधार सकोगे।’’
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