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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘जी में तो आया कि उसका गला घोंटकर उसे जहन्नुम रसीद कर दूँ। परन्तु अपनी मूर्खता को ही इसका कारण समझकर मैं मौन रहा। मेरे देखते-देखते सामान लद गया और वह अपना सूटकेस और हैंडबैग ले, टैक्सी में बैठ, रेलवे स्टेशन की ओर चल दी। जाते समय उसने मुस्कराते हुए कहा, ‘खुदा हाफ़िज चरणदासजी, अब आप बूढ़े हो गए हैं। खुदा का नाम लीजिए और कुछ सवाब का काम कीजिए।’’

‘‘मेरे मुख से निकल गया, ‘और तुम जवान हो रही हो?’ उसका कहना था, ‘‘मैं तो आपसे भी अधिक बूढ़ी हो गई हूँ। अपनी आकबत सुधारने के लिए ही जा रही हूँ।’’

‘‘वह गई तो ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरी आँखों से परदा हट रहा है। इससे पश्चात्ताप करता हुआ यहाँ चला आ रहा हूँ। चार बजे का पैदल चला हुआ साढ़े पाँच बजे यहाँ पहुँचा सका हूँ।’’

‘‘मोहिनी की आँखें सजल हो उठी थीं। सुमित्रा और केशव यह समझ नहीं सके कि यह प्रसन्नता के आँसू हैं अथवा दुःख के। वे दोनों माँ को अपनी सम्पत्ति गजराज को देने के लिए रोकते रहे थे। यह भी सम्भावना हो सकती थी कि मोहिनी को अब अपनी उदारता पर खेद हो रहा हो।

चरणदास ने जब अपनी कथा बताई तो मोहिनी ने कह दिया, ‘‘मैंने तो अपनी सब सम्पत्ति जीजाजी के नाम लिख दी है। उनको इसकी आवश्यकता थी। यदि यह मालूम होता कि आप लौटने वाले हैं। तो कुछ रख छोड़ती।’’

‘‘तो तुमने खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं रखा?’’

‘‘यह बात नहीं, लगभग एक सौ रुपया मासिक आय का प्रबन्ध है।’’

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