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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


लक्ष्मी उठकर रसोईघर में चली गई। गजराज उसके पीछे-पीछे अपनी कारगुजारी दिखाने के लिए वहाँ जा पहुँचा। वह गरम-गरम तवा लकड़ी की मेज पर रख आया था और मेज का वह भाग जलकर काला हो गया था। लक्ष्मी हँस पड़ी और बोली, ‘‘आप यदि एक बार और रसोईघर में आ जायें तो यहाँ आग लगे बिना नहीं रहेगी।’’

‘‘फोन पर कौन था?’’

‘‘मोहिनी ही थी।’’

‘‘क्या कहती थी?’’

‘‘कस्तूरी की पत्नी उससे मिलने के लिए गई थी और उससे हमारी कठिनाई का वर्णन कर सहायता माँग रही थी। मोहिनी कहती थी कि उसने अपने सब हिस्सों के कागज़ राजकरणी को दिये हैं और वे पाँच लाख से अधिक मूल्य के हैं। वह हमसे क्षमा माँगती थी कि निर्वाचन में उसने मनसाराम का समर्थन किया है।

‘‘मोहिनी कहती थी कि यह सब-कुछ हमारा ही है। हमारी ही कृपा से उसको मिला था, इस कारण यदि वह हमारे काम आ जाय तो उसे बहुत प्रसन्नता होगी।’’

उसी सायंकाल लक्ष्मी अपने पति के साथ मोहिनी को धन्यवाद करने के लिए गई। वे जब वहाँ पहुँचे तो उनके विस्मय का ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने कस्तूरी, राजकरणी, चरणदास, सुमित्रा और केशवचन्द्र को एक साथ बैठे पाया।

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