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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


राजकरणी बोली, ‘‘पिताजी, आप अभी खाकर तो आये नहीं होंगे। इसलिए यहीं खा लीजिए।’’

‘‘खाकर तो नहीं आया और गत चार वर्ष से रात का खाना मैं क्लब में ही खाता रहा हूँ। आज क्लब नहीं गया। कस्तूरी से कुछ आवश्यक कार्य था।’’

गजराज ने सन्तोषी के घर जाने की बात नहीं बताई। वास्तव में उसको क्लब गए हुए तो वर्षों बीत गये थे।

राजकरणी ने बैरे को संकेत किया तो गजराज के सम्मुख भी प्लेट लगा दी गई। कस्तूरी ने पूछा, ‘‘पिताजी, मैंने तो मद्य पीना छोड़ दिया है, आपकी इच्छा हो तो मँगवा दूँ?’’

‘‘नहीं कस्तूरी, आज नहीं पीऊँगा। चार वर्ष निरन्तर नशे में रहने के बाद आज पहला दिन होगा, जब मैं शराब नहीं पीयूँगा। इससे बात के विचारने और करने में कष्ट तो हो रहा है, परन्तु जो कुछ भी समझ आ रहा है, वह अति भयानक प्रतीत होता है।’’

कस्तूरीलाल समझ रहा था। गजराज को अपनी परिस्थिति से परिचित जान उसने चुप रहना ही ठीक समझा। राजकरणी ने कह दिया, ‘‘पिताजी, आप भोजन कीजिए। फिर बैठक में चलकर बात कर लेंगे।’’

‘‘भोजनोपरान्त तीनों ड्राइंगरूम में पहुँचे तो कस्तूरीलाल ने अपने पिताजी को सिगरेट देते हुए कहा, ‘‘यह व्यसन अभी शेष है। राज तो इसको भी छोड़ने के लिए कह रही है, परन्तु मैं अभी छोड़ नहीं सका।’’

गजराज ने सिगरेट का गहरा कश लिया और साहस बाँध उसने अपनी आर्थिक स्थिति का उसके सम्मुख बयान कर दिया। तदुपरांत कहा, ‘‘यदि तुम मेरी सहायता करो तो एक वर्ष में ऋण उतारने लगूँगा।’’

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