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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘वह तो करूँगा ही। परन्तु तुम मुझे और मेरे पूर्वजों को गाली किसलिए देने लगी थीं? मुझे विश्वास है कि हमारा दृढ़ निश्चय सुनकर वे मान जाएँगे। यदि नहीं मानेंगे तो तुम्हारे बालिग होने में तीन वर्ष ही तो शेष हैं। वे तो पलक की झपक में निकल जायँगे।’’

‘‘देखो, मैं तो यह जानती हूँ कि हमारे माता-पिता हमारे संबंध को स्वीकार नहीं करेंगे और मेरा निर्णय है कि बिना उनकी स्वीकृति के हम अपनी मेल-मुलाकात बन्द कर दें।’’

इस समय तक वे बस स्टाप से बहुत आगे निकल गए थे। एकाएक सुमित्रा को इस बात का ध्यान आया। वह खड़ी हो गई और माथे पर त्यौरी चढ़ाकर बोली, ‘‘तुम सदा यही करते हो। मेरा ध्यान विचलित कराकर मुझको भटकाते रहे हो।’’ उसने दूर जाती हुई बस की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘और वह देखो बस निकल गई और मैं घर से मीलों दूर खड़ी हूँ।’’

‘‘आधे घण्टे के बाद दूसरी बस आ जायगी।’’

‘‘परन्तु जीवन की बस तो एक ही बार आती है।’’

‘‘यह तुमको किसने बताया है? बस अगले स्टैंड पर खड़ी है। यत्न करो तो पा जाओगी।’’

‘‘सुमित्रा ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘यह मेरी शक्ति के बाहर है।’’

‘‘तो मैं यत्न करता हूँ कि तुमको लिये बिना, बस चल ही न सके।’’

सुमित्रा ने देखा कि बस तो गई, अब कैसे घर पहुँचे? उसे दूर से एक ताँगा आता दिखाई दिया, इसलिए वह सड़क के किनारे खड़ी हो गई। कस्तूरीलाल उसके समीप ही खड़ा था। वह कहने लगा, ‘‘ताँगा तो है परन्तु उसका टट्टू मरियल प्रतीत होता है। कब तक अपने घर पहुँच सकोगी?’’

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