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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...

: ८ :


सुमित्रा गजराज की कोठी में आ गई थी। लक्ष्मी उसकी देख-रेख करने लगी। गजराज ने अपने मन का संशय उसको बता दिया था। उसने बताया था कि सुमित्रा ने कस्तूरी के उसकी कोठी में ही विद्यमान होने वाली बात को छिपाया था। वह अति सन्देहोत्पादक व्यवहार था।

लक्ष्मी जानती थी कि इस सन्देह का अर्थ क्या है। अतः वह सुमित्रा को इस विषय में बातों-ही-बातों में बताने लगी थी, ‘‘देखो सुमित्रा, किसी भी स्त्री का किसी पुरुष से संबंध विवाह के बाद ही होना चाहिए। विवाह के बिना संबंध के परिणामों का उत्तरदायित्व किसी पर नहीं होता। उन परिणामों का बोझा औरत पर ही अधिक होता है। इस कारण औरत को सावधान रहना चाहिए।’’

सुमित्रा इसका अर्थ समझी अथवा नहीं, यह कहना कठिन था। उसने प्रत्यक्ष में तो ऐसा भाव बनाया कि वह कुछ नहीं समझी। वह चुपचाप अपनी बुआ का मुख देखती रही। लक्ष्मी ने समझा कि उसके पति का संशय भ्रान्त है, अन्यथा इस कथन से कुछ तो भाव उसके मुख पर दिखाई देता।

एक अन्य दिन उसने बताया, ‘‘अपने विवाहित पति से मिलने में जो आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान उत्पन्न होता है, वह अन्य किसी प्रकार से नहीं होता। पुरुष-स्त्री के सम्बन्ध में दोनों एक-दूसरे को अपने जीवन की सर्वोच्च वस्तु प्रदान करते हैं। यही कारण है कि पति-पत्नी का संबंध अति मधुर और पवित्र माना जाता है।’’

सुमित्रा चुप थी।

लक्ष्मी ने फिर एक बार कहा, ‘‘मैं बालिका ही थी, मेरी आयु बारह वर्ष की थी और मेरा विवाह हो गया। मेरे श्वशुर ने मुझसे पूछा, ‘‘बहू, घूँघट उघाड़ने के लिए क्या माँगती हो?’’

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