लोगों की राय

उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

270 पाठक हैं

बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘इसका अभिप्राय यह थोड़े ही है। कि मैं अपना मूल्य कम कर लूँ?’’

शेषराम की समझ में यह युक्ति नहीं आई। इसपर भी उसने कहा, ‘‘भैया ! एक रुपया नित्य घर में आने से हमारी हालत बहुत सुधर गई है। मैं तो जीजाजी को भी लिखने वाला हूँ कि वे यहाँ आ जाएँ और मैं बाबू से कहकर, उनको भी काम दिलवा दूँगा।’’

‘‘वह भी तुम्हारी तरह दिन भर कोल्हू के बैल की भाँति जुत जायगा।’’

‘‘पर तुमने ही तो कहा था कि वहाँ वह बहुत दुःखी है।’’

‘‘वह इस कारण कि वहाँ उसको वेतन बहुत कम मिलता है।’’

‘‘पर देखो न, मैं तीस रुपये लाता हूँ तो आनन्द से परिवार भर को खाना मिलता है। वह यहाँ आ जायगा तो बहिन सुखी हो जायगी।’’

इसका उत्तर मोतीराम के पास नहीं था। बात समाप्त हो गई। इसपर भी मोतीराम नौकरी करने नहीं गया। मोतीराम मन-ही-मन सोच रहा था कि इस पंजाबी ने गाँव वालों की भूमि पर अधिकार कर गुलछर्रे उड़ाने आरम्भ कर दिए हैं। अत: इसको यहाँ से निकालना चाहिए। वह इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगा था।

एक दिन शेषराम ने फकीरचन्द से कहा, ‘‘बाबू ! मेरा एक बहनोई है। वह बम्बई में नौकरी करने गया हुआ है और चार वर्ष से घर नहीं आया। उसको वहाँ साठ रुपये महीना मिलते हैं। बीस रुपये महीना वह बहिन को भेज देता है और शेष चालीस में बहुत कठिनाई से गुजर कर रहा है। उसके पास तो यहाँ आने तक के लिए खर्चा नहीं।

‘‘बहिन बहुत दुःखी है। कोई उपाय बताओ कि क्या किया जाय?’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book