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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


इस प्रकार बात तय हो गई। फकीरचन्द ने कम्पनी से पन्द्रह दिन की छुट्टी ली और माँ से पचास रुपये लेकर झाँसी जा पहुँचा।

राजा साहब का नाम श्री महेन्द्रपाल सिंह था। उनकी जमींदारी मध्य भारत में थी, परन्तु वे रहते झाँसी में थे। झाँसी और बीना के मध्य एक छोटे से स्टेशन जिरौन से तीन मील पश्चिम की ओर देवगढ़ नामक गाँव था। इस गाँव के समीप ही एक घना जंगल था, जो बीस मील लम्बा-चौड़ा था। यह और इसके आस-पास की भूमि राजा साहब की थी। इस जंगल से कुछ विशेष आय की आशा नहीं थी। इस कारण राजा साहब के सलाहकारों ने उनको इस भूमि को पट्टे पर उठा देने की राय दी और इसको आबाद करने के लिए दस वर्ष का लगान छोड़ने का प्रस्ताव कर दिया। जंगल की लकड़ी के काटने के लिए कटी लकड़ी पर एक आना मन राजा साहब को देने का प्रस्ताव था।

फकीरचन्द झाँसी पहुँचा और वहाँ से स्वीकृति लेकर वह जिरौन जा पहुँचा। वहाँ की स्थिति देख, उसने अपने मन में यह निश्चय कर लिया कि वह इस भूमि को अवश्य लेगा।

जब उसने झाँसी पहुँचकर राजा साहब के मैनेजर से पट्टा करने को कहा तो उसने कह दिया कि वह अभी नाबालिग है, इस कारण उससे किसी प्रकार का वचन-पत्र नहीं किया जा सकता।

इससे तो फकीरचन्द का मन बुझ-सा गया। उसको सब कुछ स्वप्न ही प्रतीत होने लगा। इस पर भी उसने मैनेजर को समझाते हुए कहा, ‘‘मैनेजर साहब ! हमारे घर में कोई बड़ा आदमी नहीं है। इस पर भी जीने का अधिकार तो हमको है ही ! मैं सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि आपकी कोई भी हानि नहीं करूँगा।’’

‘‘तुम्हारे पिता कहाँ है?’’ मैनेजर ने पूछा।

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