उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
पड़ोसिन को कोई उत्तर नहीं सूझ पड़ा। उसने केवल इतना कहा, ‘‘रामो ! सावधानी से रहना। बदनाम हो गई तो न घर की रहोगी, न घाट की।’’
फकीरचन्द को उसकी माँ ने उसके पिता की पूर्ण कथा सुना रखी थी। अतः जब वह विचार करने योग्य हुआ तो वह इस निर्धनता के पंजे से निकलने के विषय में विचार करने लगा। कभी माँ को वह रात-रात-भर कपड़े सीते देखता तो बहुत दुःखी होता। उससे कभी-कभी पूछ भी लेता, ‘‘माँ ! क्या हम कभी अमीर नहीं बन सकते?’’
‘‘बन सकते हैं, बेटा !’’
‘‘कैसे माँ?’’
‘‘मैं सब बात तो जानती नहीं। इतना है कि तुम पढ़-लिखकर होशियार हो जाओगे तो कहीं अच्छी नौकरी पर लग जाओगे। तब हमारी निर्धनता मिट जाएगी।’’
‘‘मैं दसवीं पास कर लूँगा, तो तीस रुपये की नौकरी मिल जायगी। इससे अधिक तो तुम ही कमा लेती हो, माँ !’’
‘‘पर पढ़ने-लिखने से उन्नति करने का ढंग आ जाता है इस कारण पहले मन लगाकर पढ़ो। पीछे अपने-आप रुपया आने लगेगा।’’
वह मन लगाकर पढ़ने तो लगा, परन्तु उसको अपनी माँ द्वारा किया गया स्थिति का विश्लेषण संतोषजनक प्रतीत नहीं हुआ। उसका एक गणित का अध्यापक था पं. जयगोपाल। फकीरचन्द गणित में बहुत ही योग्य था। इसी कारण गणित का अध्यापक उससे बहुत प्रेम करता था। गणित की परीक्षाओं में उसको शत-प्रतिशत अंक मिला करते थे और मास्टर उससे बहुत आशा रखता था।
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