उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
प्रथम परिच्छेद
1
सन् १५३१ की बात है। लाहौर रेलवे स्टेशन पर थर्ड क्लास के वेटिंग रूम में एक प्रौढ़ावस्था की स्त्री और उसके दो लड़के, एक दरी में लपेटे, रस्सी में बँधे, बड़े-से बिस्तर पर बैठे, हाथ में रोटी लिए खा रहे थे। रोटी पर आम का अचार का एक-एक बड़ा टुकडा रखा था। स्त्री कुछ धीरे-धीरे चबा-चबाकर खा रही थी। वास्तव में वह अपने विचारों में लीन किसी अतीत स्मृति में खोई हुई थी। बड़ा लड़का पन्द्रह वर्ष की आयु का प्रतीत होता था। उसके अभी दाढ़ी मूँछें फूटी नहीं थीं। वह माँ के एक ओर बैठा जल्दी-जल्दी चबाकर रोटी खा रहा था। यह फकीरचन्द था। माँ के दूसरी ओर उसका दूसरा पुत्र, बिहारीलाल, ग्यारह वर्ष की आयु का, बैठा रोटी खा रहा था।
फकीरचन्द ने रोटी सबसे पहले समाप्त की और समीप रखे लोटे को ले, वेटिंग रूम के एक कोने में लगे नल से पानी लेने चला गया। नल के समीप पहुँच, हाथ का चुल्लू बना, उसने पानी पिया और लोटे को भली-भाँति धो, भर, अपनी माता तथा भाई के लिए पानी ले आया।
माँ ने अभी तक रोटी समाप्त नहीं की थी। इस पर फकीरचन्द ने कहा, ‘‘माँ गाड़ी का समय हो रहा है और तुमने अभी तक रोटी समाप्त नहीं की? जल्दी करो न।’’
माँ ने फकीरचन्द के मुख पर देखा और खाना बन्द कर दिया ‘‘इसको उस कुत्ते के आगे डाल दो। खाई नहीं जाती।’’
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