उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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सुंदरी को नगर चैन में रहते हुए दो मास व्यतीत हो चुके थे। इन दो महीनों में उसको एकाकी जीवन व्यतीत करते हुए भी सराय के जीवन से अधिक सुखप्रद समझ आ रहा था। यद्यपि भविष्य के विषय में वह अनिश्चित थी, परंतु वर्तमान से सर्वथा संतुष्ट थी। एक दिन उसको वहाँ की अम्मी ने बताया कि वह मुक्ताहार जो उसे मिल चुका है, दस सहस्र रुपए का है। ये कंगन दो-दो सहस्र रुपए के हैं। यह कुर्ता और सलवार का कपड़ा बीस रुपए गज़ का है।
जिस कमरे में वह सोती थी वहाँ शाहंशाह की तस्वीर लगी थी। वह उसके साथ एक रात रह गया था। वहाँ खाने-पीने और सोने के अतिरिक्त करने को कुछ अन्य नहीं था। इस स्थान पर यदि कुछ खटकता था तो वह बेकार रहना था।
नगर चैन में एक प्रांगण था। उसमें उद्यान था और घनी छायावाले पेड़ थे। फूलों की क्यारियाँ थीं। जो दो, अम्मी के अतिरिक्त औरतें वहाँ थीं उनमें से एक मालिन थी जो उस उद्यान की देखभाल करती थी। वह वयस् में सुंदरी से अधिक समीप थी और सुंदरी जब बाग में होती तो उससे बात करने आ जाया करती थी। उसका नाम था मीना।
एक दिन वह बाग में टहलने आई तो मालिन उसके पास आ गई और मुस्कराते हुए सुंदरी की ओर देखने लगी। सुंदरी ने उसे मुस्कराते देखा तो पूछ लिया, ‘‘मीना! बहुत खुश हो आज?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘क्या बात है?’’
मीना ने अंटी से एक अंगूठी निकाल दिखाकर कहा, ‘‘देखो बहन, इसे पहचानती हो?’’
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