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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611
आईएसबीएन :9781613011102

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


रामकृष्ण कुछ देर तक आँखें मूँद विचार करता रहा। फिर प्रसन्नवदन हाथ जोड़कर बोला, ‘‘पण्डित जी! यह सब आपकी कृपा का फल ही है। आप जैसा चाहें इसका प्रयोग करवाएँ।’’

‘‘आपकी कृपा से मेरा काम पहले से अधिक उन्नति पर है और मैं भी इस पुण्य-कार्य में कुछ न कुछ योगदान दूँगा।’’

‘‘लिखकर दान-पत्र इनको दे दो।’’

‘‘पण्डित जी! मैं तो कुछ पढ़ा नहीं। आप ही लिख दीजिए। मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूँगा।’’

‘‘इस प्रकार नहीं। कल आगरा चले जाओ और वहाँ मीरे-अदल की अदालत में मीर के सामने लिखा दो।’’

‘‘ठीक है। चला जाऊँगा और कर दूँगा।’’

अब विभूतिचरण ने उस सेठों के मुखिया सेठ लक्ष्मीचन्द को अकबर से दी अशरफियों की थैली देते हुए कहा, ‘‘शहंशाह का गुप्तदान है इस कार्य के लिए।’’

सेठ लक्ष्मीचन्द ने थैली खोलकर अशरफियों को गिना। वह पाँच सौ थीं।

इस प्रकार मन्दिर के लिए नींव अकबर के धन से रखी गई। वह सरकारी तामीर करनेवालों ने बनाई थी और ऊपर का भाग बनाने के लिए सबसे पहला दान भी शहंशाह का था। इतना विभूतिचरण ने बता दिया, ‘‘शहंशाह इसे गुप्त रखना चाहते हैं।’’

‘‘वह कुछ भी रखें। उसके धन से लिखा-पढ़ी होते ही काम आरम्भ कर देंगे।’’

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