लोगों की राय

उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610
आईएसबीएन :9781613010891

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

350 पाठक हैं

मैं न मानूँ...


मोहिनी की सास उसे लेने आई। जब मोहिनी को विदा किया गया तो माला आ गई और कहने लगी, ‘‘मैं जा रही हूँ।’’

‘‘कहाँ?’’

‘‘जहाँ आपका पुत्र मेरे जाने की बात कह गया है।’’

‘‘वह कह गया है कि तुम जाना चाहो तो मैं तुम्हारे साथ पंडिताइन को भेज दूँ।’’

‘‘हाँ माताजी, उसको बुला दो। मैं कपड़े पहनकर तैयार हो रही हूँ।’’

‘‘भोजन तो कर लो।’’

‘‘क्या जाने आपने बनाया हुआ है या नहीं? मोहिनी की सास आई थी उसको भी तो आपने खिलाया है न?’’

‘‘मैंने उसके और मैहिनी के साथ बैठकर खा लिया है। तुम्हारे लिए रखा है।’’

‘‘खिलाना होता तो मुझको भी बुला लेतीं।’’

‘‘मगर तुम तो उस समय नहा रही थीं। तुम्हारी बात हुई थी। मुझको झूठ बोलना पड़ा था कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं इसलिए तुम देरी से उठी हो।’’

‘‘अब खाना माँ के घर जाकर खाऊँगी।’’

घर में चौका-बासन के लिए एक लड़का रखा हुआ था। उसका नाम था साधू। रामदेई ने साधू को भेज पंडिताइन को बुला लिया। राधा आ गई और माला की कपड़ों की गठरी उठा, उसको माँ के घर ले चली।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book