उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
लोकनाथ के घर में वह दिक्कत तो नहीं थी, जो करीमा को अपने घर में विवाह के बाद दिखाई दी थी। फिर भी जो सुख-सुविधा उसने अपने नए घर में बनवा ली थी, वह वहाँ पर अभी नहीं थी। भगवानदास की माँ सुबह पाँच बजे उठती थी और सबसे पहले बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती थी। उनको नहला-धुला, कपड़े पहना प्रातः का अल्पाहार करा स्कूल भेजती। फिर अपने पति को दफ्तर के लिए तैयार कराती। तत्पश्चात् वह स्वयं स्नानादि से निवृत्त हो, भोजन करती। नित्य उसको भोजन करते समय ग्यारह बज जाते थे। एक दिन करीमा जब उस समय इनके घर आयी, तो भगवानदास की माँ को स्नान करते देख, पूछने लगी, ‘‘माताजी, अभी सुबह से कुछ खाया-पीया है या नहीं?’’
‘‘नहीं! अभी नहाई हूँ। अब अपने लिए दो रोटी सेंक लूँगी।’’
‘‘तो अभी तक कुछ नहीं खाया?’’
‘‘देखो बेटी! बच्चे साढ़े छः बजे स्कूल जाते हैं। उनको पाँच बजे उठा, नहला-धुला, खिला-पिला तैयार कर देती हूँ। वे साढ़े छः बजे जाते हैं तो फिर भगवानदास के पिता जाग पड़ते हैं। पहले उनको हुक्का ताज़ा करके देती हूँ। जब तक वे हुक्का पी, नहाने-धोने के लिए तैयार होते हैं, मैं उनके लिए पानी गरम करती हूँ। वे इस गरमी के मौसम में भी गरम पानी से नहाते हैं। उनको ‘वाय’ का रोग है। ठंडा पानी उनको सुहाता नहीं। वे नहाते हैं तब तक उनके लिए भोजन तैयार कर लेती हूँ। वे खाते हैं। फिर हुक्का पीते हैं। तत्पश्चात् कपड़े पहनते हैं और फिर दफ्तर के लिए जाते हैं। उनके चले जाने के बाद ही मुझको नहाने-धोने की फुरसत मिलती है। साढ़े नौ बजे से अब स्नान करके खाली हुई हूँ।’’
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