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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610
आईएसबीएन :9781613010891

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मैं न मानूँ...


जब तक भगवानदास इंटर पास कर मेडिकल कॉलेज में प्रविष्ट हुआ, नूरुद्दीन के घर एक लड़का पैदा हो चुका था। नूरुद्दीन ने अपने पुराने मकान को गिरवाकर उसकी जगह पर नया मकान बनवाना आरम्भ कर दिया था। दूसरी तरफ लोकनाथ को लड़के की पढ़ाई का खर्च देने में कठिनाई अनुभव होने लगी थी। भगवानदास का एक भाई और एक बहन थी। बहन का विवाह हो चुका था। भाई अब स्कूल में पढ़ता था। उसका भी न्यूनाधिक खर्च होने लगा था।

इन्हीं दिनों लोकनाथ का लाट साहब के दफ्तर से सरकारी निर्माण विभाग में तबादला हो गया। उसने एक दिन अपने सुपरिण्टेण्डैंट से अपनी कठिनाई का उल्लेख किया था। सुपरिण्टेण्डैंट ने मेहरबानी कर, उसका तबादला करा दिया और इस दफ्तर में पहुँचते ही लोकनाथ की तली गरम होने लगी। इससे घर का खर्च सुभीते से चलने लगा।

भगवानदास मेडिकल कॉलेज की थर्ड ईअर में पहुँचा तो नूरुद्दीन के एक लड़की हो गई। नूरुद्दीन और भगवानदास में दोस्ती केवल बनी ही नहीं रही, प्रत्युत और भी गहरी हो रही थी। जब से लोकनाथ सरकारी निर्माण विभाग में गया था, नूरुद्दीन उनकी बैठक में रोज एक-आध घण्टा आता रहता था और अब तो वह अपनी बीवी को भी भगवानदास की माँ से मिलाने के लिए ले आता था। नूरुद्दीन की पत्नी ने अपने पति के घर में आने के पहले महीने में ही अपना नाम बदल लिया। कम्मो के माँ-बाप और खुदाबख्श ने इस पर आपत्ति की। मगर कम्मो ने हठ किया और उसका नाम कम्मो से करीमा हो गया।

करीमा घर से बाहर बुर्का पहनकर निकलती थी। मगर जैसे अपने घर में वह अपने श्वसुर से परदा नहीं करती थी, वैसे ही वह भगवानदास और लोकनाथ से भी परदा नहीं करती थी। भगवानदास समझ गया कि नूरुद्दीन की पत्नी का चुनाव बहुत श्रेष्ठ है। सत्य ही करीमा बहुत सुन्दर थी।

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