लोगों की राय

उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610
आईएसबीएन :9781613010891

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

350 पाठक हैं

मैं न मानूँ...


‘‘ओह! पाँच सौ रुपए महीना? बहुत मज़े में हो?’’

‘‘हाँ! अब्बा ने कम्मो के बाप से कह दिया था, ‘‘कुछ हरज नहीं। मैं लड़की के जेवर-कपड़ों से लाद दूँगा। खाने-पीने को रोज मिठाई-पूरी खिलाऊँगा।’’

‘‘तो शादी तय हो गई है?’’

‘‘हाँ, अब्बा कहते थे। सादिक के घर दावत नहीं होगी। शादी के बाद दोस्तों, रिश्तेदारों की दावत हमारे घर पर होगी। देगें चढ़ेंगी, ज़र्दा, पुलाओ, नान, मिठाइयाँ खाई जाएँगी।’’

‘‘शादी कब होगी?’’

‘‘बस! इस महीने की पन्द्रह तारीख को।’’

‘‘दस दिन बाद?’’

‘‘हाँ, और तुम्हारी?’’

‘‘पिताजी कह रहे थे कि विवाह मेरे एम.ए. पास करने के बाद होगा।’’

‘‘मतलब छः साल बाद?’’

‘‘हाँ।’’

उस दिन दोनों दोस्त सैर करके घर लौटे तो शरणदास जा चुके थे। लोकनाथ मुहल्ले के कुछ अन्य लोगों से बैठे बातचीत कर रहे थे। उनके सामने एक लाल रेशमी रूमाल में रुपयों की पोटली बँधी रखी थी। रूपलाल ने भगवानदास को देखा तो कह दिया, ‘‘अरे ओ भगवान! वह देखो! वह लाल रूमाल में क्या रखा है?’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book