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उपन्यास >> सुमति

सुमति

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7598
आईएसबीएन :9781613011331

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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।


सुमति ने जब नलिनी से घर चलने के लिए कहा तो वह विस्मय में डॉ० सुदर्शन के मुख को देखने लगी। सुमति नलिनी को नियंत्रण देकर कात्यायिनी को इसकी सूचना देने के लिए चली गई थी। एकान्त देखकर नलिनी ने सुदर्शन से पूछा, ‘‘आपने मेरा पत्र सुमति को नहीं दिखाया इसके लिए मैं आपकी आभारी हूँ।’’

डॉ० सुदर्शन ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘मैंने वह पत्र सुमति को सुना दिया था।’’

‘‘क्यों? मैंने तो लिखा था कि उसे न दिखाएँ?’’

‘‘लिखा तो था, किन्तु क्यों? मुझे इसका कोई कारण दिखाई नहीं दिया। पत्र पढ़ने पर हम दोनों ही देर तक उस संकेत में निहित तुम्हारे उद्देश्य पर विचार करते रहे। पहले तो तुमने अपने मन के उस काल के विचार, जो कि लगभग मुझे विदित ही थे, लिखे थे और फिर उनको अपनी पत्नी से छिपाकर रखने के लिए कहा। हम इस बात पर ही विचार करते रहे कि ऐसा तुमने क्यों लिखा?’’

इतने में सुमति लौट आई। कात्यायिनी भी उसके पीछे-पीछे वहाँ आ गई थी। उसके आने पर नलिनी उठकर कपड़े बदलने की बात कहकर अपने कमरे में चली गई। कात्यायिनी बोली, ‘‘यो तो नलिनी को आपके साथ जाने पर सुख होगा। उसके चित्त को शान्ति मिलेगी। परन्तु मैं उसको जाने की स्वीकृति नहीं दे सकती। जब से वह यहाँ आई है, मेरी स्थिति घर की नौकरानियों से अधिक नहीं रही।’’

डॉ० सुदर्शन ने कहा, ‘‘श्रीपति भैया ने कल कॉलेज में इसका पूर्ण इतिहास बताया था। उस दुःखद् स्थिति में तो कोई भी सामर्थ्यवान व्यक्ति विचिलित हो सकता है। फिर नलिनी तो स्त्री है, उसका विचलित होना समझ में आ सकता है, इसलिए वह सहानुभूति की पात्र है।’’

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