उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘यह तो मैं भी देख रहा हूं। वैसे तो नलिनी ऐसी लड़की है, जिससे विवाह कर कोई भी गौरवान्वित होगा। परन्तु श्रीपति। मुझको तो इस बात का कभी विचार भी नहीं आया कि मुझ जैसे सीधे-सादे पुरुष को वह पति के रूप में स्वीकार कर सकेगी।’’
‘‘सीधे-सादे! भई खूब कही। देखो, मेरा तुमसे परिचय हुए सात वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। तुम पिताजी के देहान्त के समय आए थे और मेरी माँ ने तुमको नलिनी के लिए उपयुक्त पति मान लिया था। नलिनी उस समय मैट्रिक की परीक्षा दे रही थी। तबसे ही मैं तुमको उसमें रुचि लेते देख रहा हूं। जब से उसने बी० टी० की है, हम इस प्रतीक्षा में थे कि तुम उसको ‘प्रपोज़’ करोगे। कुछ दिन हुए मैंने नलिनी से पूछा था कि इस काम में, क्या मैं उसकी कुछ सहायता कर सकता हूं? उसने स्पष्ट कह दिया था कि वह दूध-पीती बच्ची नहीं है, वह स्वयं अपना प्रबन्ध करना जानती है। आज उसकी यही बात स्मरण कर मैं हँस पड़ा था। मैं समझता हूं कि वह ‘बस’ मिस कर गई है।’’
‘‘अब उसको अगली ‘बस’ की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। मुझको इसके लिए दुःख है।’’
श्रीपति को यह कह कि उसको परिवार-सहित बारात में सम्मिलित होना चाहिए, सुदर्शन चला गया। वह मन में विचार करता था कि कितनी चतुराई से उसने यह नाटक किया है। उसको विश्वास हो रहा था कि श्रीपति सर्वथा धोखे में आ गया है। नलिनी से उसका सम्बन्ध पर्याप्त घनिष्ठ था। वे साहित्य-चर्चा से कुछ अधिक बातें करते रहे थे।
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