उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
|
327 पाठक हैं |
बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
सुमति ने हँसते हुए कहा, ‘‘तो क्या माताजी! भविष्य में मेरे मुख पर देखने वालों पर आप रुष्ट हो जाया करेंगी?’’
‘‘देखो बेटा! तुम्हारे मुख पर देखने का अधिकार केवल तुम्हारे पति को है। उस छोकरे की दृष्टि से तो वासना टपक रही थी। मेरी बेटी ऐसों के घर नहीं जाएगी।’’
‘‘और माँ!’’ सुदर्शन ने पूछा, ‘‘पिताजी की सम्मति के बँटवारे के विषय में माँग को तुम कैसी समझती हो?’’
‘‘रुपए-पैसे की बात मैं कुछ नहीं कहूँगी। उस बारे में लड़की जाने और उसके पिता जाने। मैं तो ऐसा दामाद चाहती हूँ जो भले घर का हो और जिसके विचार भी भले हों।’’
सुमति ने निश्चय कर लिया था कि वह निष्ठा को कुछ भी नहीं बताएगी। उसकी माँ और भैया ही जो चाहें उसको बताएँ।
सुमति घर पहुँचकर अपने कमरे में चली गई। निष्ठा संगीत-भवन गई हुई थी। वह लौटकर आई तब तक सुदर्शन और उसकी पत्नी घूमने के लिए इंडियागेट की ओर चले गए थे। जब उसे यह पता चला तो वर के निरीक्षण के लिए गए प्रतिनिधि-मण्डल के परिणामों को जानने की उत्सुकता मन में दबाए हुए अपने कमरे में चली गई।
उसकी माँ को जब पता चला कि निष्ठा आ गई है तो वह उसके समीप आकर बोली, ‘‘निष्ठा, मैं लड़के को देख आई हूँ।’’
|