उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
बिन्दू का पिता अपने झोपड़े में लौटकर अपनी पत्नी से बात करता रहा। बिन्दू उनकी बातें सुन नहीं सकी, पर उसकी समझ में कुछ ऐसा आया कि उसके विवाह के विषय में ही बात हो रही है। पिछले दिन उसकी माँ ने अपने पति को कहा था कि वह साधु के पास जाए और लड़की के विवाह की स्वीकृति ले आए।
इस विचार से बिन्दू को बड़ौज की याद आ गई। उसको विदित था कि वह लुमडिंग गया हुआ है। खालों का गट्ठर पीठ पर उठाए हुए उधर को जाते हुए बिन्दू ने देखा था। उसके वापस आने की बात जानने के लिए वह बड़ौज के झोंपड़े को चल पड़ी। वहाँ सोना चावल छाँट रही थी। उस के समीप बैठती हुई वह बोली, ‘‘लाओ मौसी! मैं छाँट दूँ।’’
सोना ने बिन्दू को देखा तो पूछ लिया, ‘‘तेरा विवाह कब होगा?’’
‘‘मैं क्या जानूँ!’’
‘‘तुम्हारी सखी काजू का तो हो गया है।’’
‘‘बड़ौज कब आएगा?’’
‘‘क्यों पूछती हो, क्या उससे विवाह करोगी?’’
‘‘वह ठीक नहीं है क्या?’’
भला सोना अपने लड़के को कैसे कह सकती थी कि वह अच्छा नहीं! वह चुपचाप बिन्दू का मुख देखने लगी। बिन्दू के मुख पर लाली दौड़ गई। सोना बिन्दू की रूपरेखा देखकर विचार कर रही थी कि वह बड़ौज की बहू के रूप में ठीक है अथवा नहीं। यद्यपि सोना जितनी सुन्दर तो वह नहीं थी, फिर भी कबीले की अन्य लड़कियों में वह सबसे सुन्दर थी। साथ ही वह अब यौवन में पदार्पण कर चुकी थी। उसकी आँखों में यौवन की मस्ती भी दिखाई देने लगी थी।
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