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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


नाग लोगों ने चीतू को इस कार्य पर नियुक्त कर दिया और चीतू अपने शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित, नर-मुण्डों की माला धारण किए अपने बीस सहायको के साथ सचिव के शिविर पर जा पहुँचा।

सबको शिविर में प्रविष्ट होने दिया गया। किन्तु कुछ दूर जाकर केवल चीतू और सौतकी को ही सचिव के सम्मुख जाने की स्वीकृति मिली। सौतकी प्रौढ़ावस्था का व्यक्ति था। वह चीतू को युद्ध-समिति की राय से सूचित करने के लिए भेजा गया था।

सचिव ने चीतू से पूछा, ‘‘तुम मुण्डमाल धारण करके क्यों आए हो?’’

चीतू ने कहा, ‘‘यह हमारा जातीय पहरावा है। कोई व्यक्ति जब तक नेता नहीं बन सकता जब तक कि वह कम-से-कम पाँच शत्रुओं को मारकर उनके मुण्डों की माला न पहन ले।’’

‘‘यह तो बहुत भंयकर है।’’

‘‘श्रीमान जी! बन्दूक से तो शत्रु के मारने में बहादुरी प्रकट नहीं होती। हाथों-हाथ युद्ध में बहादुरी प्रकट होती है। दोनों ओर से एक-दूसरे को मारने की स्वीकृति होती है। हम इसको भयंकर बात नहीं मानते। भयंकर बात तो तब होती है जब सौ गज़ दूर खड़े शत्रु को गोली मारकर मारा जाता है।’’

‘‘और उसके हाथ में भी बन्दूक हो तो?’’

‘‘दोनों निर्दयी और भीरु कहलाएँगे।’’

सचिव हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘अच्छा इस बात पर फिर विचार कर लेंगे। पहले यह बताओ कि तुमने कोई अंग्रेज़ औरत कैद कर रखी है?’’

‘‘हाँ, दो हैं। परन्तु हमने उनको मान के साथ और सब प्रकार के आराम में रखा हुआ है।’’

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